आदित्य ठाकरे के नाम राजदीप सरदेसाई का खुला खत
आपको या शिवसेना के गुंडों को यह अधिकार कौन और कैसे देता है कि आप आयोजकों पर हमले करवाएं या कार्यक्रम को खत्म करने के लिए सरकार को मजबूर करें?
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मेरे प्रिय आदित्य,
खुले खत के इस मौसम में मैंने सोचा कि एक खत आपको भी लिखूं. खासतौर पर तब जबकि हम एक ही कॉलेज से हैं, जेवियर से होने के नाते, मुझे लगता है कि हमारे बीच एक बंधन है, और एक सीनियर होने के नाते मैं कुछ सलाह देने की भी हिम्मत कर रहा हूं. इस सुबह जब मैं जगा, तो मैं खुशी और उत्साह का अनुभव कर रहा था. दिल्ली में अक्टूबर का खुशनुमा मौसम आपको यह अहसास कराता है. इसके बाद मैं घर वापस लौटा और टीवी ऑन की और फिर से अवसाद में डूब गया.
टीवी पर बीजेपी के पूर्व नेशनल एक्जिक्यूटिव सदस्य और लाल कृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी के पूर्व सहयोगी रहे सुधींद्र कुलकर्णी पर काली स्याही फेंकने की ब्रेकिंग न्यूज छाई हुई थी. उनका अपराध? उन्होंने पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद कसूरी की किताब पर मुंबई में एक चर्चा का आयोजन किया था. शिव सेना एक पाकिस्तानी की भारतीय जमीन पर मौजूदगी के कारण नाराज थी और इसका विरोध कर रही थी. तो एक बार फिर से मुंबई की गलियों में कालिख फेंकी जा रही है. पिछले हफ्ते गुलाम अली, इस हफ्ते कसूरीः सेना फिर से खबरों में लौट आई है.
मैं कहना चाहता हूं कि जिस तरह शिव सेना कसूरी को आमंत्रित किए जाने से नाराज है, वैसे ही मैं सेना से नाराज हूं, हालांकि मैं हैरान नहीं हूं. क्योंकि कसूरी पहले चर्चित व्यक्ति नहीं हैं जिन पर आपने हमला किया है. शायद वह आखिरी भी नहीं होंगे. कई साल पहले, जब आप शायद एक साल के रहे होंगे तो शिव सेना ने भारत-पाकिस्तान क्रिकेट सीरीज का विरोध करने के लिए वानखेड़े की पिच खोद दी थी.
जब मैंने शिव सेना के खिलाफ आर्टिकल लिखा तो टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिंग के बाहर प्रदर्शन हुआ था. मैं भाग्यशाली थाः बिना चोटिल हुए बच निकला. मेरे वरिष्ठ सहकर्मी निखिल वागले जिन्होंने मराठी सांध्य अखबार को एडिट किया था, वह कम भाग्यशाली थे. उनके ऑफिस में तोड़फोड़ की गई और उनके ऊपर हमला किया गया. तब आपके दादा बालासाहेब सुप्रीमो थे, अब आप और आपके पिता उसी विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं.
इसलिए, मैं समझ सकता हूं कि कुछ चीजें नहीं बदलेंगी. लेकिन फर्क यह है कि तब आप विपक्ष में थे, अब आपकी सत्ता है. जब आप सत्ता में होते हैं तो आप कानून के रक्षक होते हैं, न कि कानून तोड़ने वाले. आपको पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद का दृढ़ता से विरोध करने का पूरा अधिकार है. आपको मिस्टर कसूरी को नापसंद करने का भी पूरा अधिकार है. लेकिन यदि आप उन्हें या पाकिस्तान को, या उनकी पुस्तक को पसंद नहीं करते हैं तो आप उसे मत पढ़ें, समारोह का बहिष्कार करें, विरोध-स्वरूप काला बैंड लगाएं. गुलाम अली के साथ भी ऐसा ही करें. लेकिन आपको या शिवसेना के गुंडों को यह अधिकार कौन और कैसे देता है कि आप आयोजकों पर हमले करवाएं या कार्यक्रम को खत्म करने के लिए सरकार को मजबूर करें?
हालांकि, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने पुस्तक विमोचन समारोह के लिए पूरी सुरक्षा देने का वादा किया था. यह उनके लिए अच्छा है. लेकिन मैं उनसे और महाराष्ट्र पुलिस से पूछता हूं: अगर आप समारोह के प्रति इतने ही प्रतिबद्ध थे, तो कैसे आप मिस्टर कुलकर्णी के साथ यह घटना होने दिए? या क्या वाकई में यह आप सभी के हित में था: आपको राजनीतिक लाभ मिला, महाराष्ट्र सरकार ने सख्त कार्रवाई का दिखावा किया और आपकी मूखर्ता के कारण मिस्टर कसूरी की किताब अब और भी अधिक बिकेगी. जहां तक मेरे पत्र का सवाल है: मेरा आकलन है कि इसे शायद एक खूनी और हिंसक इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया जाएगा.
पोस्ट स्क्रिप्टः इस सुबह जब मैंने ट्वीट करके इसे महाराष्ट्र का शर्म करार दिया, तो मुझे 'देशभक्त' भारतीयों द्वारा पाकिस्तान से लड़ते हुए जान गंवाने वाले भारतीय सैनिकों की विधवाओं के बारे में सोचने की चेतावनी दी गई. मैं उनके गुस्से को साझा करता हूं: लेकिन कृपया मुझे बताइए कि स्याही फेंककर भाग जाना, 'देशभक्ति' पर गर्व करने वाला काम है, या फिर कायरता है? और अगर महाराष्ट्र की अस्मिता की रक्षा करनी ही है तो शायद शिव सैनिकों को मराठवाड़ा जाकर किसानों की विधवाओं की मुसीबत में उनकी मदद करनी चाहिए? या फिर यह अखबार के पहले पेज पर जगह बनाने वाली वह खबर नहीं है, जिसकी तलाश में आपकी पार्टी रहती है?
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