राजदीप सरदेसाई को क्यों लग रहा है कि गुजरात में भाजपा ही जीतेगी !
सच्चाई ये है कि गुजरात हिंदुत्व का गढ़ है. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की अगुवाई में पार्टी ने यहां बूथ लेवल कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर एक मजबूत संगठन तैयार किया है. जिसे तोड़ना कांग्रेस के लिए मुश्किल है.
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18 दिसम्बर को गुजरात और हिमाचल विधानसभा चुनावों के नतीजे आने वाले हैं. अब राजनीतिक दलों के साथ साथ जनता को भी रिजल्ट का इंतजार है. लोगों में गुजरात चुनाव के नतीजों को लेकर अपने अपने कयास हैं. नेताओं और पत्रकारों के भी. इंडिया टुडे के कंसलटेंट एडिटर राजदीप सरदेसाई ने भी गुजरात से लौटकर विधानसभा चुनावों के नतीजों का आकलन किया है. उन्होंने 10 प्वाइंट में अपनी राय रखी है.
अपने ब्लॉग में राजदीप सरदेसाई ने मान लिया है कि गुजरात विधानसभा में ट्रॉफी भाजपा के हाथ में ही जाएगी. वे अपने ब्लॉग में यह महत्वपूर्ण राय सबसे आखिरी प्वाइंट में देते हैं. इसलिए उनकी बात को उनके लेख के अंतिम प्वाइंट से ही शुरू करते हैं, उनकी जुबानी :
1- सबसे बड़ा सवाल ये है कि गुजरात चुनाव में कौन जीतेगा?: अगर ये सवाल मुझसे एक महीना पहले पूछा जाता तो मैं बेझिझक 182 में से 120 सीटों के साथ भाजपा का नाम लेता. लेकिन अब मैं थोड़ा सोचकर जवाब दूंगा. हालांकि अभी भी यही कहूंगा कि जीत का स्वाद भाजपा ही चखने वाली है. हां मार्जिन उतना नहीं होगा.
सच्चाई तो ये है कि गुजरात हिंदुत्व का गढ़ है. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की अगुवाई में पार्टी ने यहां बूथ लेवल कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर एक मजबूत संगठन तैयार किया है. जिसे तोड़ना कांग्रेस के लिए मुश्किल है. इसके विपरीत कांग्रेस एक कमजोर, नेतृत्वविहीन पार्टी के रूप में ही नजर आई. हालांकि इसी साल अगस्त में राज्यसभा चुनावों के दौरान अहमद पटेल के चुनाव के समय कांग्रेस ने आश्चर्यजनक प्रदर्शन किया था.
भाजपा जीत रही है
इस बार कांग्रेस ने बूथ मैंनेजमेंट के स्तर पर कुछ रिटायर हुए पुलिस ऑफिसरों की मदद से बहुत अच्छा काम किया है. लेकिन भाजपा और कांग्रेस के बीच वोटों की खाई बहुत ज्यादा है. खासकर शहरी क्षेत्रों में तो ये स्थिति और बुरी है. इस खाई को पाटना कांग्रेस के लिए मुमकिन नहीं है. हां ये सच जरूर है कि गुजरात के गांवों में इस बार सरकार के प्रति रोष का भाव है. लेकिन शहरी क्षेत्रों और युवाओं के बीच भाजपा के प्रति निष्ठा अटूट है. और इसलिए भाजपा का भला जरुर होगा.
और इन सभी कारणों के उपर मोदी जी खुद हैं. अपनी ही पिच पर उन्हें बोल्ड करना टेढी खीर ही होगी. लेकिन एक सच्चाई ये जरुर है कि जो चुनाव भाजपा के लिए चाय की चुस्कियों के समान आसान और स्वादभरी हुआ करती थी. वही चुनाव अब गर्म चाय की तरह मुंह जलाने वाली साबित होती दिखने लगी थी. चुनावों को लगातार कवर करने वाले पत्रकार के लिए इससे दिलचस्प और कुछ नहीं हो सकता.
तो इस तरह साफ-साफ राजदीप ने कह दिया कि अपनी पूरी ताकत लगाने के बावजूद भी राहुल बाबा करिश्मा नहीं कर पाए और गुजरात चुनावों के साथ एक और हार उनके रिकॉर्ड में शामिल हो जाएगी. इसके अलावा जो 9 प्वांइट राजदीप सरदेसाई के ब्लॉग में हैं एक नजर उनपर डाल लीजिए-
2- मोदी नंबर वन नेता: आज भी गुजरात का सबसे बड़ा नेता कोई है तो सिर्फ नरेंद्र भाई मोदी ही हैं. इस सच्चाई के बारे में जानने के लिए किसी रोड ट्रिप या किसी तरह के विश्लेषण की जरुरत नहीं. नरेंद्र मोदी को गुजरात छोड़ दिल्ली की राजनीति में आए अब तीन साल हो गए हैं लेकिन आज भी गुजरात के लोगों के दिलों में उनके प्रति प्यार, स्नेह, इज्जत वही है जो उनके राज्य के मुख्यमंत्री रहते थी. कुछ मुस्लिम बहुल इलाकों और हार्दिक पटेल के गढ़ को छोड़कर बाकी हर जगह लोगों के दिलों और जुबान पर आपको मोदी का ही नाम सुनाई देगा.
मोदी को मात देना अभी दूर की कौड़ी
3- राहुल गांधी ने दिखाई ताकत: इसमें तो कोई दो राय नहीं कि राहुल गांधी ने इस चुनाव में सबको चौंका दिया. जिस तरह की एनर्जी, आत्मविश्वास राहुल ने इस चुनाव प्रचार में दिखाया वो काबिलेतारीफ है. हालांकि अभी भी उनमें भाषण देने की कला में थोड़ा पैनापन आना बाकी है. मगर फिर भी राहुल ने दिखा दिया कि राजनीति के गुण उनमें भी कम नहीं हैं. राहुल ने दिखा दिया कि 2019 में वो क्षेत्रिय नेताओं के साथ मिलकर ब्रांड मोदी को कट्टर दे सकते हैं. गुजरात चुनाव के ये नतीजे इस संभावना पर मुहर लगाएंगे.
राहुल गांधी ने सारे विरोधियों को चौंका दिया
4- हार्दिक पटेल इस चुनाव में तुरुप का इक्का हैं: हार्दिक पटेल के बगैर कांग्रेस द्वारा भाजपा को टक्कर देना नामुमकिन था. हार्दिक के आने से विपक्ष में नई जान आ गई है. उनमें ममता बनर्जी की तरह लड़ने की क्षमता है, केजरीवाल की तरह अड़ियलपन और बाल ठाकरे की वाक्पटुता है. हालांकि एक भाजपा नेता ने उन्हें 'मवाली' कह उनकी कीमत को कम आंका है. लेकिन सच्चाई ये है कि इसके पहले कब, किसी 23 साल के मवाली ने राष्ट्रीय नेताओं के रातों की नींद उड़ा दी थी?
हार्दिक पटेल ने भाजपा को हिला दिया है
हार्दिक पटेल ने गुजरात की राजनीति में आए ठहराव को बदला और असुविधाजनक सवालों को उठाने के लिए लोगों को प्रेरित किया. मोदी और अमित शाह की जोड़ी को चैलेंज किया जा सकता है ये विश्वास दिलाया. जीत हो या हार. हार्दिक पटेल उदाहरण है देश की सुदृढ़ लोकतांत्रिक व्यवस्था का जिसमें हर किसी को ऊपर उठने की जगह मिलती है.
5- गुजरात मॉडल सवालों के घेरे में है: ये विडम्बना ही है कि 12 साल तक जब मोदी राज्य के मुख्यमंत्री थे तब किसी भी मीडिया हाउस ने गुजरात के विकास मॉडल की जमीनी हकीकत जानने की जहमत नहीं उठाई. लेकिन अब हर कोई इस मॉडल में खोट देख रहा है. सड़क, बिजली जैसी सुविधाओं में गुजरात सच में विकास मॉडल ही मालूम होता है. लेकिन सर्विस सेक्टर और सामाजिक क्षेत्रों में इसकी हालत खास्ता ही है. इसका सबसे ताजा उदाहरण साणंद जिले का टाटा नैनो प्रोजेक्ट है. इसे शुरु तो इस इरादे से किया गया था कि राज्य के लोगों को रोजगार मुहैया कराया जाएगा. लेकिन आलम ये है कि इसमें अधिकतर नौकरियों पर 'बाहरी' लोग हैं. क्योंकि गुजरात के लोगों में इंग्लिश का कम ज्ञान, आईटी और मैनेजमेंट ट्रेनिंग की कमी के कारण प्राइवेट सेक्टर में काम मिलना मुश्किल है.
6- गांवों और शहरों के बीच की खाई: भारत में कोई भी चुनाव शहरों में घूमकर कवर नहीं करना चाहिए. गुजरात में शहरीकरण ज्यादा है. इसलिए यहां के बड़े बड़े फ्लाईओवरों, जगमगाती स्ट्रीट लाइटों के बीच अहमदाबाद और सूरत जैसे शहरों की चकाचौंध में खो जाना आसान है. अहमदाबाद में पटेल फैक्टर के होने के बावजूद भी भाजपा ही जीतेगी. वहीं सूरत में जीएसटी पर गुस्सा के बावजूद भी भाजपा ही जीतेगी. ये दोनों शहर बीजेपी के गढ़ हैं. लेकिन यहां से ठीक 100 किलोमीटर दूर गांव में जाइए तो वहां एक 'नया' गुजरात आपका स्वागत करेगा. भले अमेठी जितनी बुरी स्थिति नहीं होगी लेकिन दोनों की तुलना भी नहीं कर सकते.
7- यहां जीएसटी और नोटबंदी नहीं बिजनेस की बात है: गुजरात के लोगों को पहले ढोकला, फिर धंधा और तब जाकर राजनीति से प्यार है. यूपी में नोटबंदी के बाद अमीर और गरीब के बीच की खाई पाटने की बात कहकर चुनाव जीतना आसान था. लेकिन गुजरात में ऐसा बिल्कुल भी नहीं है. यहां की सोसाइटी 'लेन-देन' वाली सोसाइटी है. इसलिए गुजराती व्यापारियों और खासकर छोटे और मझोले व्यापारियों के लिए नोटबंदी के बाद जीएसटी डबल मार थी. यहां के लोगों में गुस्सा इसलिए नहीं है कि व्यापार में दिक्कत आई, बल्कि लोगों में सरकार की 'तानाशाही' पर रोष है. 'अहंकार' ये शब्द तो खुद बीजेपी के विधायकों के मुंह से हमने सुन लिया.
8- टैगलाइन भले विकास है, लेकिन असलियत हिंदुत्व ही है: 2002 में जेम्स माइकल लिंगदोह, 2007 में मियां मुशर्रफ, 2012 में मियां अहमद पटेल और 2017 में मुगल शासन है. हर चुनाव में 'लतिफ राज' के वापसी की चेतावनी और राम मंदिर बनाने का वादा यही मुख्य मुद्दा होता है. किसी भी और राज्य में हिंदु मुस्लिम बंटवारा करना इतना आसान नहीं है जितना की गुजरात में है. राज्य के 10 प्रतिशत मुसलमानों की तरक्की की चिंता किसी को नहीं होती क्योंकि ये वोट बैंक का हिस्सा नहीं होते इसलिए इनसे मतलब नहीं होता.
मुसलमानों के विकास के मुद्दे पर कांग्रेस ने चुप्पी साध रखी है क्योंकि फिर उसे मुसलमानों की समर्थक पार्टी का दर्जा दे दिया जाएगा. और बीजेपी आक्रामक है क्योंकि उसे हिंदू वोट लेने हैं. भले ही जब मोदी सैन फ्रांसिसको जाते हैं तो उनके पीछे विकास पुरुष का तमगा टंगा होता है. लेकिन पश्चिमी गुजरात के वो हिंदू हृदय सम्राट हैं.
9- गुजरात में जाति का फर्क तो पड़ता है लेकिन इसपर वोट नहीं पड़ते: पिछले कुछ दिनों से मुझे लगातार ये याद दिलाया जा रहा है कि हार्दिक पटेल, कड़वा पटेल हैं. इसलिए लिउवा पटेल उनका साथ नहीं देंगे. कैसे अल्पेश ठाकोर उत्तरी गुजरात के वोट को अपने पक्ष में नहीं ला पाएंगे. कैसे जिग्नेश मेवानी ने कांग्रेस को बढ़त दिला दी और भाजपा ने आदिवासियों के बीच कांग्रेस की छवि खराब कर दी. ये सारी बातें थोड़ी बहुत सच हो सकती हैं. लेकिन गुजरात चुनाव को जातिगत चश्मे से देखना एक गलती होगी.
सौराष्ट्र के कोली दक्षिण गुजरात के कोलियों से बिल्कुल अलग समीकरण पर वोट कर सकते हैं. दलित और आदिवासी वोट भी बंट सकते हैं. ये 1980 का चुनाव नहीं है जिसमें कांग्रेस अपने kham समीकरण के साथ जीत पा ले. जैसे अब भाजपा को अपने हिंदुत्व राजनीति को बढ़ाने की जरुरत है वैसे ही कांग्रेस को अपने कास्ट पॉलिटिक्स में बदलाव लाने की जरुरत है.
10- चलते-चलते : आपने गौर किया होगा मैंने ईवीएम का कहीं जिक्र नहीं किया. ईवीएम के बारे में लगातार मिल रही शिकायतों के बावजूद मुझे नहीं लगता कि ईवीएम में कोई दिक्कत है. ईवीएम में गड़बड़ी की शिकायत सिर्फ हारने वाले करते हैं. वैसे भारत में लोकतंत्र की जड़ें गहरी हैं. तो हो सकता है आज जो हार गया कल किसी और राज्य में जीत ही जाए.
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