हवा में लाठी नहीं भांज रहे हैं टीपू के काका!
हालांकि अखिलेश उतने निकम्मे हैं नहीं जितने दूर से दिखते हैं. लेकिन वे उतने भी 'समाजवादी' नहीं हैं जितना एक इटावा-मैनपुरी वाला होने की आकांक्षा पालता है.
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शिवपाल और अखिलेश के द्वंद में कई बार ऐसा लगता है कि समाजवादी पार्टी के 'ईको-सिस्टम' और 'ब्यूरोक्रेसी' में शिवपाल की कैमिस्ट्री वाले लोग ज्यादा हैं और उसी बूते कूद रहे थे/हैं टीपू के काका. पार्टी के ईको-सिस्टम को यूं समझिए कि गाजियाबाद-नोएडा के बिल्डरों, बिजनेसमैनों से तालमेल, पुलिस-कप्तानों की अदला-बदली, हाईवे के टेंडर, मेडिकल सीटों का बंटवारा, जवाहरबाग जैसे जमीनों के मसले जैसे कर्मों में जो समाजवादी बंधु लगे हुए हैं, वे शिवपाल की कैमिस्ट्री के हैं. पता नहीं अखिलेश की कैमिस्ट्री वाले कितने हैं.
एक जानकार का कहना है कि अखिलेश तो राहुल गांधी के उन्नत संस्करण हैं. दरअसल सपा समीकरण में मुलायम सिंह का कद पंडित नेहरु जैसा है तो शिवपाल, पटेल हैं जिसका पार्टी मशीनरी कब्जा आठ आना के करीब है.
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यों, भारत में बाप के बाद बेटा बनता है. खुराफाती किस्म के जानकार कहते हैं कि इंदिरा इसलिए बनीं क्योंकि भाई-विहीन थीं. तो ऐसे में शिवपाल कैसे लड़ेंगे ये वक्त बताएगा.
लेकिन शिवपाल की औकात साधू या सुभाष यादव जैसी कमजोर भी नहीं है जिसे लालू ने समय आने पर दरवाजा दिखा दिया था जब उनके बेटे जवान हुए थे. साधु-सुभाष, लालू के साले थे जिसकी औकात समाज और राजनीति दोनों जगह दो कौड़ी की होती है. लेकिन शिवपाल, मुलायम के भाई हैं. संघर्ष के दिनों वाले भाई.
इधर विरासत वाली थ्योरी को हाल में कई लोगों ने चुनौती दी. एन चंद्राबाबू नायडू ने ससुर के पैरों तले से दरी खींच ली. जयललिता ने रामचंद्रन की बीवी को धता बता दिया. यानी कई बार स्वाभाविक उत्तराधिकारी भी मात खाता है और 'काबिल' उभर कर आ जाता है.
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हालांकि अखिलेश उतने निकम्मे हैं नहीं जितने दूर से दिखते हैं. लेकिन वे उतने भी 'समाजवादी' नहीं हैं जितना एक इटावा-मैनपुरी वाला होने की आकांक्षा पालता है. हद से हद वो समाजवादियों में नया जोश हैं. एक ऐसा 'राजपुत्र' जो आधुनिक दिखता है और पुराने खांचे में फिट नहीं है, जिसकी अगुआई उसका चाचा कर रहा है.
यही सौ टके का सवाल है. ऐसे में युद्ध चलता रहा तो पार्टी तो चुनाव हारेगी ही, प्रश्न ये है कि पार्टी पर कब्जा किसका साबूत रहेगा? नेताजी, से बेहतर इस पेंच को कौन समझता होगा!
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