इरोम के लिए भूल सुधार जरूरी था, सच में राजनीति उनके लिए नहीं बनी
यूपी में मोदी की सुनामी के बावजूद मऊ में उनके नेता एक अपराधी छवि वाले मुख्तार अंसारी से हार गये. हत्या के आरोपी अमनमणि त्रिपाठी, जिनके मां-बाप मधुमिता शुक्ला मर्डर केस में जेल में सजा काट रहे हैं चुनाव जीत गये. लेकिन इरोम शर्मिला को महज 90 वोट ही मिल पाये.
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इरोम शर्मिला के 16 साल का संघर्ष 100 वोटों के लायक भी नहीं समझा गया. इरोम को नोटा से भी कम वोट मिले. मणिपुर में नोटा के हिस्से 143 रहा तो इरोम को महज 90 वोट मिले.
आंदोलन के बैकग्राउंड से आने वाले इरोम शर्मिला और अरविंद केजरीवाल में यही फर्क है. केजरीवाल ने दिल्ली में शीला दीक्षित को बुरी शिकस्त दी थी और उसी तर्ज पर इरोम को इबोबी सिंह से दो दो हाथ करने की सलाह भी.
इरोम के साथ सलूक तो बहुत बुरा हुआ लेकिन अप्रत्याशित नहीं. चुनाव प्रचार के लिए कोई साथी नहीं मिलने के चलते उन्हें अपने ही इलाके खुरई से चुनाव लड़ने का इरादा बदलना पड़ा था. थाउबल में भी जिस कठिनाई के साथ इरोम ने 20-20 किलोमीटर साइकल चला कर चुनाव प्रचार किया वो उनके अनशन से कम मुश्किल नहीं था.
ये सियासत सबको सूट नहीं करती
ये सच है सियासत सबको सूट नहीं करती. अमिताभ बच्चन इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं. गांधी परिवार से नजदीकियों और खुद की लोकप्रियता के बूते इलाहाबाद में अमिताभ ने हेमवती नंदन बहुगुणा जैसे राजनेता को हरा तो दिया लेकिन जल्द ही मैदान छोड़ कर भागना पड़ा. अमिताभ को इतना गहरा सदमा लगा कि हाल में उन्होंने साउथ के सुपरस्टार रजनीकांत को भी राजनीति में न आने की सलाह दे डाली.
अरविंद केजरीवाल भी आंदोलन से राजनीति में आये और दिल्ली में 70 में से 67 सीटें जीत कर साबित भी कर दिया कि वो अपने विरोधियों से कितना तेज और आगे सोचते हैं. यही सोच कर चुनाव से पहले इरोम टिप्स लेने केजरीवाल के पास पहुंचीं. संभव है केजरीवाल की सलाह पर ही इरोम ने मुख्यमंत्री इबोबी सिंह को चैलेंज करने का भी फैसला किया हो, लेकिन एक ही फॉर्मूला हर जगह कहां फिट होता है.
इरोम का सियासत से तौबा...
यही केजरीवाल पंजाब में जिस विक्रम सिंह मजीठिया को चुनाव बाद जेल भेजने की रट लगाये थे उन्होंने सत्ता में लौटी कांग्रेस के उम्मीदवार को 22 हजार से ज्यादा वोटों से हराया - और आम आदमी पार्टी का कैंडिडेट तो तीसरे स्थान पर पहुंच गया जिसे मुश्किल से 10 हजार वोट मिल पाये.
यूपी में मोदी की सुनामी के बावजूद मऊ में उनके 'कटप्पा' 'बाहुबली' मुख्तार अंसारी से हार गये तो हत्या के आरोपी अमनमणि त्रिपाठी जिनके मां-बाप मधुमिता शुक्ला मर्डर केस में जेल में सजा काट रहे हैं चुनाव जीत गये.
अच्छी बात ये है कि इरोम को जल्द ही समझ में आ गया कि राजनीति हर किसी को सूट नहीं करती - और आगे के लिए इरादा बदल लिया.
देर आयद दुरूस्त आयद
अब इरोम ने यात्रा पर निकलने का फैसला किया है. बढ़िया है वो जगह जगह जाएंगी और लोगों से मिलेंगी तो उनका अनुभव संसार विशाल होगा. मणिपुर से AFSPA हटाने को लेकर वो 16 साल तक डटी रहीं. इस दौरान वो दुनिया से कटी तो नहीं रहीं लेकिन समाज से पूरी तरह जुड़ी भी नहीं रहीं. जो चल कर उनके पास पहुंचता उनसे उनकी बातचीत होती और ऐसे लोगों की भी संख्या धीरे धीरे सीमित होती गयी.
अनशन तोड़ने के साथ साथ इरोम ने घर बसाने का भी फैसला किया. अनशन तोड़ना उनके समर्थकों को ठीक नहीं लगा तो घर बसाने का फैसला उनके घरवालों को ही.
ये दोनों फैसले ही नहीं ऐसे हर फैसले लेने का इरोम का हक है, लेकिन जिस मुद्दे को लेकर वो अनशन करती रहीं उसे राजनीति के जरिये आगे बढ़ाने का फैसला गलत निकला. इरोम ने ये फैसला चाहे खुद लिया हो या किसी की सलाह पर - ऐसा करना गलत नहीं था क्योंकि बगैर परीक्षण के उसे सही या गलत कैसे ठहराया जा सकता था. लेकिन इरोम का ये सोचना कि मणिपुर की मुख्यमंत्री बन कर वो राज्य से AFSPA हटा पातीं - सामान्य तौर पर संभव न था. अगर उसके लिए उन्होंने कोई और रणनीति सोच रखी होगी तो बात अलग है.
हां, राजनीतिक पारी शुरू करने से पहले अगर यात्रा पर निकलने का फैसला इरोम ने किया होता तो शायद बात और होती. हालात को समझने के लिए इरोम जम्मू कश्मीर या उन इलाकों में जातीं जहां AFSPA लागू है या फिर नक्सल प्रभावित इलाकों का दौरा करतीं. फिर उन्हें हालात और सरकारी रवैये को समझने में आसानी होती.
इरोम ने AFSPA के चलते अपने लोगों को मरते देखा और उसे हटाने के मकसद से अपनी जिंदगी के बेशकीमती 16 साल दे डाले. आखिर में वो बिलकुल अकेली पड़ गयी हैं. क्या कोई कॉज ऐसा हो सकता है जिसमें योद्धा अकेले पड़ जाय? इतना अकेले कि उसका अपना मैती समाज. उसके मोहल्ले वाले, यहां तक कि उसके घर वाले भी मुहं मोड़ लें.
इरोम को एक बार इस बात की भी समीक्षा करनी चाहिए कि जो मुद्दा उन्होंने उठाया है उसे अंजाम तक पहुंचाना कितना व्यावहारिक है. AFSPA का मसला भी कुछ कुछ वैसा ही है जैसा फांसी की सजा को लेकर मुहिम चलायी जाती है. याकूब मेमन की फांसी के वक्त जो कुछ हुआ सबके सामने है. इरोम को भी एक बार अपने मिशन को लेकर नये सिरे से सोचना चाहिये.
क्रांति अकेले भी शुरू की जाती है और उसके बाद कारवां भी बनता जाता है - लेकिन उसकी पहली शर्त यही होती है कि अवाम उससे पूरी तरह इत्तेफाक रखता हो. अगर वाकई मणिपुर के लोग ऐसा चाहते तो इबोबी सिंह अब तक न टिके होते और केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी को सूबे में एंट्री नहीं मिल पाती.
इरोम को हैपी होली ही नहीं उनके उज्ज्वल भविष्य के लिए शुभकामानाएं भी मिलनी चाहिये. इरोम को इसकी बहुत जरूरत है. उन्होंने हिम्मत नहीं छोड़ी है, लेकिन अब आंसुओं पर उतना काबू नहीं रहता. इरोम भी इंसान हैं - और एक महिला भी. मणिपुर के मैती समाज को भी ये बातें पूरी संवेदना के साथ समझनी होगी. वरना मणिपुर के 90 वोटों का जख्म इरोम शायद ही भुला पायें.
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