कृषि कानून निरस्त होने से चुनावी राज्यों में बदलेंगे सियासी समीकरण
किसान आंदोलन को खत्म करने की अपील के साथ पीएम नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने संसद के शीत सत्र में कृषि कानूनों को निरस्त करने की घोषणा कर दी. इन कृषि कानूनों (Farm Laws) के आने के बाद शुरू हुए किसान आंदोलन (Farmer Protest) ने पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में भाजपा के खिलाफ काफी उग्र माहौल बना दिया था.
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Repeal Of Farm Laws बीते एक साल से दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसान आंदोलन को खत्म करने की अपील के साथ पीएम मोदी ने संसद के शीत सत्र में कृषि कानूनों को निरस्त करने की घोषणा कर दी. 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद ये दूसरा ऐसा मौका है, जब केंद्र सरकार ने किसी कानून को पारित करने के बाद वापस लिया हो. इन कृषि कानूनों के आने के बाद शुरू हुए किसान आंदोलन ने पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में भाजपा के खिलाफ काफी उग्र माहौल बना दिया था. और, अगले साल की पहली तिमाही में होने वाले उत्तर प्रदेश, पंजाब समेत 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में कृषि कानूनों की वजह से भाजपा को नुकसान होने की आशंका जताई जा रही थी. गुरु पर्व के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कृषि कानूनों को निरस्त करने का फैसला आगामी विधानसभा चुनावों से पहले एक बड़ा मास्टरस्ट्रोक माना जा रहा है. इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या कृषि कानून निरस्त होने से चुनावी राज्यों में सियासी समीकरण बदलेंगे?
नरेंद्र मोदी का कृषि कानूनों को निरस्त करने का फैसला आगामी विधानसभा चुनावों से पहले एक बड़ा मास्टरस्ट्रोक माना जा रहा है.
पंजाब में किसके साथ गठबंधन करेगी भाजपा?
पीएम नरेंद्र मोदी ने कृषि कानूनों को देशवासियों से माफी मांगते हुए खत्म किया है. कहना गलत नहीं होगा कि नानक जयंती से पहले करतारपुर कॉरिडोर खोलने और गुरु पर्व पर कृषि कानूनों की वापसी के ऐलान के साथ पीएम नरेंद्र मोदी ने पंजाब में अब तक बनाए गए समीकरणों को कहीं न कहीं कमजोर किया है. कृषि कानूनों के पारित होने पर पंजाब में किसान आंदोलन का सबसे ज्यादा असर माना जा रहा था. आसान शब्दों में कहा जाए, तो पंजाब चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा किसान आंदोलन ही था. क्योंकि, कृषि कानूनों की वजह से भाजपा के कई नेताओं के साथ बदसलूकी के मामले पंजाब में ही सबसे ज्यादा हुए थे.
पंजाब में भाजपा के खिलाफ कुछ ऐसा माहौल था कि कृषि कानूनों की वजह से ही शिरोमणि अकाली दल ने भाजपा नीत एनडीए के साथ कई दशक पुराना गठबंधन खत्म कर दिया था. हालांकि, गठबंधन तोड़ने के बाद भी अकाली दल के खिलाफ कांग्रेस ने माहौल बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी. लेकिन, पंजाब में किसान आंदोलन का समर्थन कर रही कांग्रेस अपनी अंदरुनी कलह की वजह से बैकफुट पर थी. नवजोत सिंह सिद्धू ने कैप्टन अमरिंदर सिंह के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ था. जिसके चलते अमरिंदर सिंह को पंजाब के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा. कांग्रेस छोड़ने के बाद कैप्टन अमरिंदर सिंह ने नई पार्टी बनाने का फैसला किया था. वहीं, अब कृषि कानूनों की वापसी के बाद अब तक बनाए गए समीकरण बदलते हुए दिखाई दे रहे हैं.
पंजाब में विधानसभा चुनाव के मद्देनजर अकाली दल ने बसपा सुप्रीमो मायावती के साथ गठबंधन का ऐलान कर दिया था. लेकिन, इन तमाम प्रयासों के बाद भी अकाली दल राज्य में कुछ खास प्रभावी नजर नहीं आ रहा था. वहीं, कांग्रेस में मची कलह का फायदा आम आदमी पार्टी को मिलता दिख रहा था. इन सबके बीच कांग्रेस के पूर्व वरिष्ठ नेता कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भाजपा के साथ अपने सियासी संबंधों को सुधारने की एक बड़ी पहल की थी. अमरिंदर सिंह ने घोषणा की थी कि अगर भाजपा किसानों के हित में कोई फैसला करती है, तो वह गठबंधन करने को तैयार हैं. इतना ही नहीं कैप्टन ने भाजपा को राष्ट्रवादी पार्टी बताते हुए यहां तक कह दिया था कि किसान आंदोलन से पहले पंजाब में भाजपा का विरोध था ही नहीं.
खैर, कांग्रेस ने पंजाब में चरणजीत सिंह चन्नी को पहला दलित सीएम बनाकर जो मास्टरस्ट्रोक खेला था, उस पर नवजोत सिंह सिद्धू समेत पंजाब के कई कांग्रेस नेता ही सवाल खड़े कर रहे हैं. किसान आंदोलन के खत्म होने के बाद नवजोत सिंह सिद्धू के पास अब कांग्रेस सरकार के सीएम चरणजीत सिंह चन्नी के खिलाफ ही मोर्चा खोलने का इकलौता विकल्प बचेगा. जो कांग्रेस को नुकसान ही पहुंचाता दिख रहा है. हो सकता है कि किसान आंदोलन के खत्म होने के साथ अकाली दल फिर से भाजपा के साथ गठबंधन करने की कोशिश करे. लेकिन, इसकी वजह से बसपा सुप्रीमो मायावती के साथ किया गया उसका गठबंधन खतरे में आ जाएगा. और, अकाली दल ऐसा कोई भी फैसला लेने से पहले कृषि कानूनों के निरस्त होने का असर देखना चाहेगी.
वहीं, कैप्टन अमरिंदर सिंह की बात की जाए, तो पंजाब में किसान आंदोलन को हवा देने और दिल्ली तक पहुंचाने में पूर्व सीएम ने अहम भूमिका निभाई थी. आसान शब्दों में कहा जाए, तो अमरिंदर सिंह की किसान संगठनों में मजबूत पकड़ है. कैप्टन अमरिंदर सिंह ने पंजाब को लेकर ड्रग्स, हथियार जैसी चिंताएं जताई हैं, जो एक सीमान्त राज्य होने की वजह से वाजिब नजर आती हैं. अमरिंदर सिंह के गठबंधन में अकाली दल से अलग हुए सुखदेव सिंह ढींढसा और रणजीत ब्रह्मपुरा के गुट के साथ कांग्रेस के असंतुष्टों और उनके करीबियों के शामिल होने की संभावना है. जो सीधे तौर पर कांग्रेस को नुकसान पहुंचाएगा. अगर भाजपा को साथ लेकर कैप्टन अमरिंदर सिंह थोड़ा सा भी माहौल बनाने में कामयाब हो जाते हैं, तो पंजाब में एक बड़ा उलटफेर सामने आ सकता है.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अब विपक्ष की रणनीति क्या होगी?
2014 के बाद से ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा का मजबूत जनाधार रहा है. अपने इसी दबदबे के चलते 2017 के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अपने प्रदर्शन को उत्तर प्रदेश में फिर से दोहराया था. लेकिन, किसान आंदोलन की वजह से भाजपा के खिलाफ उपजे व्यापक विरोध से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पार्टी काफी हद तक बैकफुट पर थी. किसान आंदोलन का चेहरा बन चुके राकेश टिकैत भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आते हैं. जिसके चलते पश्चिमी यूपी में भाजपा के लिए मुश्किलें लगातार बढ़ती जा रही थीं. मेघालय के गवर्नर सत्यपाल मलिक और भाजपा सांसद वरुण गांधी ने भी किसान आंदोलन का समर्थन कर पार्टी को कठघरे में खड़ा कर दिया था. वहीं, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा के खिलाफ बने इस माहौल का लाभ उठाने के लिए आरएलडी नेता जयंत चौधरी ने सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के साथ गठबंधन का दांव खेला था. माना जा रहा था कि मुस्लिमों, जाटों के सहारे इस क्षेत्र की सियासत में फिर से कोई बड़ा बदलाव आ सकता है. लेकिन, कृषि कानूनों के रद्द होने के साथ ही भाजपा अब पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आक्रामक होगी.
हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के एजेंडे पर चलते हुए भाजपा ने जिस तरह से पिछले सभी चुनावों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर अपनी पकड़ को मजबूत रखा था. कृषि कानूनों के खत्म होने के साथ उसकी वापसी की संभावनाएं काफी बढ़ गई हैं. एक अहम बात ये भी है कि कृषि कानूनों के रद्द होने के बाद आरएलडी, सपा, कांग्रेस, बसपा समेत सभी विपक्षी दलों में इस फैसले का श्रेय लेने की होड़ भी मचेगी. जो कहीं न कहीं बनाए गए समीकरणों को अपने आप ही बिगाड़ने की ओर बढ़ा देगी. अभी तक मजबूत नजर आ रही सपा, आरएलडी जैसी पार्टियां खुद को किसानों का सबसे बड़ा खैरख्वाह साबित करने के चक्कर में एकदूसरे का ही नुकसान करने पर आमादा हो सकती हैं. वहीं, भाजपा के लिए ऐसे हालात यूपी चुनाव के लिहाज से सबसे मुफीद कहे जा सकते हैं. क्योंकि, वोटों का जितना ज्यादा बिखराव होगा, भाजपा को उतना ही फायदा होगा.
उत्तराखंड में कुछ सीटों पर पड़ेगा फर्क
उत्तराखंड में भी उत्तर प्रदेश के साथ ही विधानसभा चुनाव होने हैं. उत्तराखंड कुछ सीटों पर किसान आंदोलन का प्रभाव माना जा रहा था. पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लगती इन विधानसभा सीटों पर बड़ा उलटफेर होने की संभावना थी. इस स्थिति में केंद्र सरकार के कृषि कानून वापसी लेने से समीकरण बदलने की संभावना है. किसान संगठनों के साथ तालमेल भाजपा को फायदा पहुंचा सकता है.
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