...और इस तरह वोट देकर भी किसी को वोट नहीं दे रहे लोग
पिछले कुछ सालों के चुनावों को देखने से एक पैटर्न दिखाई देता है. बहुत से लोग अपने मताधिकार का प्रयोग सिर्फ यह बताने के लिए कर रहे हैं कि उन्हें आप पसंद नहीं हैं.
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रविवार के दिन भाजपा को एक बड़ा झटका लगा है. जयललिता की मौत के बाद खाली हुई तमिलनाडु की आरके नगर सीट पर भाजपा बुरी तरह से हार गई है. झटका सिर्फ इसलिए नहीं कि वह इस सीट पर हार गई और टीटीवी दिनाकरन ने जीत हासिल की, बल्कि इसलिए भी क्योंकि भाजपा को नोटा (NOTA) से भी कम वोट मिले हैं. इससे यह साफ होता है कि जितने लोग भाजपा को पसंद करते हैं, उसे अधिक लोग ऐसे हैं जिन्हें न सिर्फ भाजपा, बल्कि कोई भी राजनीतिक पार्टी पसंद नहीं है. कभी नोटा पर अधिक ध्यान नहीं जाता था, लेकिन अब नोटा ही खबरों की सुर्खियां बनने लगा है. इससे पहले गुजरात चुनाव में भी नोटा ने खबरों में जगह बना ली थी. पिछले कुछ सालों के चुनावों को देखने से एक पैटर्न दिखाई देता है कि बहुत से लोग अपने मताधिकार का प्रयोग सिर्फ यह बताने के लिए कर रहे हैं कि उन्हें आप पसंद नहीं हैं.
कभी नोटा पर अधिक ध्यान नहीं जाता था, लेकिन अब नोटा ही खबरों की सुर्खियां बनने लगा है.
क्या रहा आरके नगर का हाल?
आरके नगर के चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार कारू नागराजन को सिर्फ 1,417 वोट मिले, जबकि 2,373 मतदाताओं ने नोटा का विकल्प चुना. भाजपा की इस हार से यह तो साफ है कि उनके लिए यह राह आसान नहीं होने वाली है. इस सीट पर दिनाकरन ने भी ऐतिहासिक जीत हासिल की है. दिनाकरन ने जयललिता का भी रिकॉर्ड तोड़ दिया. इस सीट पर 2016 में जयललिता 39,545 वोटों से जीती थीं, लेकिन 21 दिसंबर को हुए मतदान में दिनाकरन आरके नगर सीट पर 40,707 वोटों से जीते और अन्नाद्रमुक के ई. मधुसूदनन को हरा दिया.
गुजरात चुनाव में भी नोटा ने किया था खेल
गुजरात चुनाव में करीब 5.5 लाख मतदाताओं ने नोटा का विकल्प चुना था. इस हिसाब से कुल मतदाताओं में से 1.8 फीसदी लोगों ने नोटा को चुना. गुजरात चुनाव में भाजपा की सीटें कम होने का एक बड़ा कारण नोटा भी रहा. जिन सीटों पर भाजपा हारी, उनमें 13 ऐसी सीटें थीं, जिन पर हार के अंतर से अधिक वोट नोटा को मिले. ये 13 सीटें- कपराड़ा, मानसा, डांग, देवदार, छोटा उदयपुर, वानकानेर, मोडासा, तलाजा, घानेरा, सोजित्रा, लूणावाणा, दासादा और मोरवा हदक हैं.
हिमाचल प्रदेश में बसपा से अधिक नोटा को वोट
गुजरात चुनाव से पहले हिमाचल प्रदेश का चुनाव हुआ था, जिसमें बसपा को नोटा से भी कम वोट मिले थे. इस चुनाव में बसपा को कुल 17,335 वोट मिले थे, जबकि 32,656 लोगों ने नोटा का विकल्प चुना था. जो हाल हिमाचल प्रदेश में बसपा का था, कुछ वैसा ही हाल अब भाजपा का तमिलनाडु की आरके नगर सीट पर हुआ है.
नरेंद्र मोदी को भी डरा चुका है नोटा
करीब 8-9 साल की लड़ाई के नोटा (NOTA- NONE OF THE ABOVE) को चुनावों में शुरू किया गया. पहली बार 2014 के लोकसभा चुनाव में इसका इस्तेमाल किया गया था. इस दौरान पीएम मोदी वडोदरा सीट से भी उम्मीदवार थे, जहां पर 18,053 वोट नोटा पर पड़े थे. पूरे गुजरात में 4,54,880 लोगों ने नोटा का बटन दबाया था. लोकसभा चुनाव में बिहार में 5,81,011 लोगों ने नोटा का विकल्प चुना था.
राजनीति पार्टियां दबाव में
बात भले ही आरके नगर की हो या फिर गुजरात चुनाव की या 2014 के लोकसभा चुनाव की, जनता का राजनीतिक पार्टियों के प्रति रवैया चिंता का विषय है. राजनीतिक पार्टियां एक तरह के दबाव में हैं. पहले अगर लोगों को कोई भी उम्मीदवार पसंद नहीं होता था तो वह वोट ही देने नहीं जाते थे, लेकिन अब लोग अपने अधिकार का प्रयोग नोटा के रूप में कर रहे हैं और राजनीतिक पार्टियों के प्रति अपनी नाराजगी व्यक्त कर रहे हैं. लोग यह दिखा रहे हैं कि वह अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए वोट तो देंगे, लेकिन उसका फायदा किसी भी पार्टी को नहीं मिलेगा. भले ही नोटा से किसी की जीत-हार पर कोई फर्क न पड़ रहा हो, लेकिन इससे वह तस्वीर साफ हो रही है जो दिखाती है कि लोगों के मन में राजनीतिक पार्टियों के नेताओं की क्या छवि है.
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