ये कैसी बातें करने लगे हम?
वह आलोचना अच्छी थी, क्योंकि वह किसी सकारत्मक मुद्दे से जुड़ी थी. इस आलोचना के आइने में गर्वीला भारत बार-बार अपना चेहरा देखता था और जरूरत के मुताबिक मेकअप करके आगे बढ़ता था. इस विमर्श में गोमांस, हिंदू-मुस्लिम झगड़े, घर वापसी, राजपोषित गुंडागर्दी उर्फ असहिष्णुता या मध्ययुग में वापसी वाले प्रतिगामी विचार नहीं थे.
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अभी बहुत दिन तो हुए नहीं, मुश्किल से तीन-चार साल ही तो हुए हैं, जब यह देश कभी जंतर-मंतर तो कभी रामलीला मैदान पर जोश में गरजता था. हफ्तों या महीनों तक भ्रष्टाचार हटाने और लोकपाल लाने के नारे लगाता था. देश के छोटे-छोटे कस्बों तक में ‘मैं भी अन्ना’ का नारा और कैंडल मार्च करता था. आज यह तो नहीं कहा जा सकता कि यह सब करने वालों की मंशा बहुत पवित्र थी और उनके छुपे हुए मंसूबे कुछ और नहीं थे, लेकिन इस बात को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि नौजवानों ने जो हुंकार भरी थी, उसमें बदलाव के सपने थे. एक ऐसा भारत बनाने का ख्वाब था, जिसका दुनिया में अहम मुकाम हो. नौजवान पीढ़ी इस काम में अपने नए शौक यानी सोशल मीडिया का जबरदस्त उपयोग कर रही थी.
उससे थोड़ा और पहले जाएं तो देश चमचमाते एयरपोर्ट, बेहतर होते रेलवे स्टेशन, जीने की आर्थिक आजादी देती नरेगा, प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना, सस्ती मोबाइल सेवा, आधार कार्ड की स्थापना के जरिए हर नागरिक का डाटा बैंक और ई-दुनिया से जुड़ने में जुटा था. यही देश 2008 में शुरू हुई मंदी से सबसे कुशलता से निकलने के बाद आर्थिक विकास की इबारत लिखने को बेताब था. ऐसा नहीं है कि इन सब बातों में सिर्फ हरा ही हरा हो, ढेर सारी आलोचना इस आख्यान के साथ चलती थी.
लेकिन वह आलोचना भी अच्छी थी, क्योंकि वह किसी सकारत्मक मुद्दे से जुड़ी थी. इस आलोचना के आइने में गर्वीला भारत बार-बार अपना चेहरा देखता था और जरूरत के मुताबिक मेकअप करके आगे बढ़ता था. इस विमर्श में गोमांस, हिंदू-मुस्लिम झगड़े, घर वापसी, राजपोषित गुंडागर्दी उर्फ असहिष्णुता या मध्ययुग में वापसी वाले प्रतिगामी विचार नहीं थे. इन मध्ययुगीन मुद्दों को तो भारत ने 15वीं-16वीं सदी के भक्तिकाल में ही देश निकाला देना शुरू कर दिया था. उसके बाद 18वीं सदी से शुरू हुए पुनर्जागरण ने एक बार फिर प्रगतिशील भारत की बात आगे बढ़ाई. 1857 की लड़ाई तो खैर अंग्रेजी दौर के भारत की सामूहिक चेतना का पहला नमूना थी ही. उसके बाद कांग्रेस बनी, बापू आए, नेहरू ने देश का नेतृत्व शुरू किया, संविधान बना, विकास की बातें और भारत निर्माण शुरू हुआ. करीब 400 साल की मेहनत के बाद भारत उस कठमुल्लापन को अपने समाज की मुख्यधारा से खदेड़ने में बहुत हद तक कामयाब रहा, जो आज भी हमारे पड़ोसी मुल्कों, खाड़ी देशों और अफ्रीका के बड़े हिस्से को चपेट में लिए है.
30 साल बाद सबसे ज्यादा उत्साह से बनी मोदी सरकार के शुरू में, कम से कम जुमलेबाजी में तो सब ठीक था, तब तो बुलेट ट्रेन, आधुनिक शहर, अच्छे दिन, स्वच्छ भारत, डिजिटल इंडिया, जन-धन जैसी बातें हो रही थीं. रेल को रफ्तार देने और रोड को सरपट बनाने की बातें थीं. एक साल तक तो प्रधानमंत्री को यूपीए के जमाने में अंतिम चरण में पहुंच गईं योजनाओं का उद्घाटन करने से ही फुरसत नहीं मिली. मंगलयान और वैष्णोदेवी तक ट्रेन की आमद कुछ ऐसी ही खुशनुमा तरक्की पसंद घटनाएं थीं. उस समय तक मीडिया भी आलोचना करने के बहुत मौके नहीं तलाशता था, क्योंकि सरकार को मनचाहा हनीमून पीरियड दिया जा रहा था.
लेकिन इस त्योहारी माहौल को सत्ताधारी पार्टी का ही एक धड़ा पचा नहीं पाया. उन्हें हमेशा कचोट उठती रही कि राम मंदिर, हिंदू राष्ट्र, धारा 370 जैसे उनकी सोच का हिस्सा बन चुके मुद्दे तो बहस से बाहर हो गए हैं. उनका अपना नेता दुनिया की सलामी ले रहा है, लेकिन उन विषयों पर न कुछ बोलता है, न कुछ करता है, असल में जो उसके मूल गुण माने जा रहे थे. मोदी जब खुद को विकास का वाहक बताकर चुनाव में उतरे तब भी यह कठमुल्ला धड़ा उनमें हिंदुत्व का पोस्टर ब्वाय देख रहा था. यह तो राम ही जानें कि मोदी अपने अंतरमन में खुद को विकासपुरुष मान रहे थे या पोस्टर ब्वाय.कशमकश बनी हुई थी, लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनाव की हार ने कशमकश को पार लगा दिया. मुक्तिबोध की भाषा उधार लें तो ‘दिमागी गुहा अंधकार का ओरांगउटांग’ इंसान का जिस्म फाड़कर बाहर निकल आया. यह ओरांगउटांग किस भाषा में बोल रहा है, कैसी गिरी हरकतें कर रहा है, वह पूरी दुनिया में उभरते भारत की बांहें मरोड़ रहा है. साहित्यकारों की पुरस्कार वापसी के जरिए सरकार दुनिया में हो रही निंदा के असर को घरेलू आवाज से समझ सकती थी. लेकिन इस भद्र विरोध का मखौल बनाया जा रहा है. उनके मंत्री उस औरंगजेब से खासे प्रभावित हो गए हैं, जिसका नाम हाल ही में एक रोड से हटाया गया. कहते हैं कि औरंगजेब, संगीतज्ञ होते हुए साहित्य, संगीत और कलाओं का विरोधी हो गया था. ऐसे में सांकेतिक विरोध करने के लिए पढ़े लिखे लोगों ने संगीत की अर्थी निकाली. लेकिन मंतव्य समझने के बजाय औरंगजेब ने कहा, ‘इसे इतने नीचे दफनाना की कोई सुर बाहर नहीं निकल सके.’ इतिहास गवाह है कि असहिष्णु स्वभाव वाला बादशाह आखिरी नामी मुगल बनकर रह गया. और चाणक्य जैसे विद्वान का भरे दरबार में उपहास करने के बाद नंद साम्राज्य के पतन की कहानी भी सबको पता है.
तो पता नहीं प्रधानमंत्री इस औरांगउटांग को पिंजरे में डालकर, फिर से सबका विकास के काम पर कब से वापस लौटते हैं. वैसे तो यह काम बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम के बाद से शुरू हो जाना चाहिए. लेकिन यह इतना आसान भी नहीं है. लेकिन देश अपने प्रधानमंत्री से यही उम्मीद कर रहा है कि वे बाकी बचे साढ़े तीन साल श्रेष्ठ भारत के निर्माण में खर्च करेंगे. जाहिर है, यह श्रेष्ठ भारत संविधान से बंधा होगा, न कि किसी विचारधारा से. और इस भारत का रास्ता बेहतर सामाजिक संवाद से जाएगा, देखते हैं यह कब शुरू होता है.
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