राष्ट्रवाद को आतंकवाद में पनाह लेने की मजबूरी कैसे आई
प्रज्ञा ठाकुर पर आतंकवादी बम विस्फोट में शामिल होने का आरोप न लगा होता, तो उन्होंने राष्ट्रनिर्माण का ऐसा कौन सा काम किया है, जिसके लिए वह खुद को राष्ट्रवादी कह रही हैं. आतंकवाद के आरोप से बरी हो जाना तो राष्ट्रवादी होने के लिए काफी नहीं माना जा सकता.
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टीवी पर दिनभर से देख रहा हूं, कि आंतकवाद की आरोपी प्रज्ञा ठाकुर खुद को राष्ट्रवादी बता रही हैं, साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी राष्ट्रवादी बता रही हैं. अपने बारे में तो किसी को कुछ भी कहने का हक है, लेकिन क्या देश के प्रधानमंत्री को आतंकवाद के एक आरोपी से राष्ट्रवाद के सर्टिफिकेट की जरूरत है? जिस तरह से बीजेपी या सरकार में से किसी ने प्रज्ञा के बयान पर ऐतराज नहीं किया, उससे तो यही लगता है कि उन्हें आतंकवाद के आरोपी से प्रधान सेवक को मिल रहे सर्टिफिकेट से तकलीफ नहीं है.
जाहिर सी बात है कि यहां तक पहुंचते-पहुंचते बहुत से लोगों के पेट में यह मरोड़ होने लगी होगी कि प्रज्ञा तो बेगुनाह हैं, उन्हें जबरन फंसाया गया है. तो इस पर इतना ही कहा जा सकता है कि, हो सकता है आगे चलकर यह बात सही साबित हो जाए और अदालत उन्हें छोड़ दे. इस मामले में जिस तरह से अभियोजन पक्ष बचाव पक्ष की भूमिका निभा रहा है, उसमें हम अभी से यह मानकर चल लें कि वे देर-सवेर छूट ही जाएंगी तो कोई हर्ज भी नहीं है. लेकिन क्या आतंकवाद के आरोप से मुक्त हो जाने से वे राष्ट्रवादी हो जाएंगीं?
अपने साथ-साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी राष्ट्रवादी बता रही हैं प्रज्ञा ठाकुर |
इस बात पर पक्की राय देने से पहले जरा आस-पास टटोल लेते हैं. आतंकवाद के मामलों में देश में हर साल दस-बीस लोग कई-कई साल जेल में बिताने के बाद बाइज्जत बरी हो जाते हैं. हालांकि इन लोगों के मामले में अभियोजन पक्ष बचाव पक्ष की भूमिका में नहीं आता. लेकिन इन लोगों की रिहाई के मौके पर अधिकतम इतना कहा जाता है कि बेगुनाह के जीवन के कई महत्वपूर्ण साल जेल में गुजर गए. समाज का एक बहुत छोटा तबका उन्हें पीडि़त और पुलिस वाले संदिग्ध की निगाह से देखते रहते हैं. लेकिन कोई यह नहीं कहता कि वे रिहा हुए लोग देश के महान राष्ट्रवादी हैं. इसकी एक ठोस वजह तो यह है कि ये लोग पीडि़त जरूर हैं, लेकिन उन्होंने सार्वजनिक जीवन में ऐसा कोई काम नहीं किया होता है, जो अपनी छाप छोड़े. ऐसे में उनमें से नायक निकालना कठिन है.
ठीक यही बात प्रज्ञा के बारे में भी लागू होती है. अगर उन पर आतंकवादी बम विस्फोट में शामिल होने का आरोप न लगा होता, तो उन्होंने राष्ट्रनिर्माण का ऐसा कौन सा काम किया है, जिसके लिए वह खुद को राष्ट्रवादी कह रही हैं. आतंकवाद के आरोप से बरी हो जाना तो राष्ट्रवादी होने के लिए काफी नहीं माना जा सकता. ऐसे में सवाल यह उठता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि आतंकवाद के आरोप से हर साल छूटने वाले भारतीयों के नाम अरबी और फारसी भाषा से शुरू होते हैं, जबकि प्रज्ञा और उनके सहआरोपियों के नाम संस्कृत भाषा से शुरू होते हैं. तो ऐसे में वे लोग जो प्रज्ञा को राष्ट्रवादी साबित करने पर आमादा हैं, उन्हें अरबी-फारसी भाषा के नाम वाले अभागों को भी प्रखर राष्ट्रवादी घोषित कर देना चाहिए.
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लेकिन वे ऐसा नहीं करेंगे. क्योंकि उनके राष्ट्रवाद का ताल्लुक न तो राष्ट्रहित से है और न देश के कल्याण से. उनके लिए राष्ट्रवाद एक ऐसा फतवा है, जो चहेतों को बांटा जाता है और इसके जरिए बाकियों को हांका जाता है. कभी यह राष्ट्रवाद एक गैर कानूनी हत्या करने वाले पुलिसवाले के जमानत पर रिहा होने पर उसके साथ तलवार भांज कर नाचता है. कभी ये राष्ट्रवाद गांधी के हत्यारोपी रहे एक शख्स का चित्र संसद में लगवाता है. और अंत में यह राष्ट्रवाद सार्वजनिक मंच को छोडक़र तकरीबन हर जगह गांधी के हत्यारे को भी राष्ट्रवाद घोषित करता है. हां, यह जज्बा जब छलककर सार्वजनिक दायरे में आ जाता है तो षडयंत्रकारी चुप्पी साध ली जाती है.
इस राष्ट्रवाद में विध्वंस और हिंसा के लिए बहुत ज्यादा जगह है, लेकिन देश की भलाई उसके लिए हमेशा एक उपेक्षित विषय है. लेकिन राष्ट्रवाद को यह समझना चाहिए कि वह अब न तो किसी अंडरग्राउंड या प्रतिबंधित संगठन के हाथ में और न ही उसे विपक्ष की आसान भूमिका मिली हुई है. गद्दी पर बैठकर अगर वह इसी तरह संस्थाओं को कमजोर करता रहा और उनकी साख गिराता रहा तो उसके लिए अपने हुड़दंगियों को संभालना भी मुश्किल हो जाएगा. बेहतर होगा कि यह राष्ट्रवाद अब राष्ट्रनिर्माण और देशहित की भूमिका में आने के बारे में सोचे. क्योंकि अगर देश रहेगा और देश खुशहाली की ओर आगे बढ़ेगा तो उन्हें आगे भी हुड़दंग करने का मौका मिलेगा.
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