भारत में हुए 'पारिवारिक तख्तापलट' की अगली कड़ी ही है समाजवादी 'दंगल'
जब 2012 में मुलायम सिंह अपने बेटे अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाने के बारे में सोचा होगा तो उन्हें तनिक भी यह अहसास नहीं होगा कि कभी उनकी ऐसी दुर्गति होगी. हालांकि, ऐसा पहली बार नहीं जब सत्ता के लिए परिवारों में कत्लेआम हुआ हो.
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पिछले कुछ दिनों से समाजवादी पार्टी में 'वार' और 'पलटवार' का दौर जारी है. कभी देश के रक्षा मंत्री रहे मुलायम सिंह यादव अपनी ही पार्टी की रक्षा करने में असहाय नज़र आते दिख रहे हैं. पहले समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने पार्टी में मचे घमासान के बीच, 30 दिसम्बर को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव रामगोपाल यादव को 6 साल के लिए पार्टी से निष्कासित कर दिया और फिर अगले दिन ही दोनों को पार्टी में वापस ले लिया.
सपा की सियासत अगले पांच साल के लिए यूपी का भविष्य तय कर सकती है |
फिर सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने रामगोपाल यादव द्वारा पहली जनवरी को बुलाए गए पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन को अवैध घोषित कर दिया. वहीं मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बड़ा कदम उठाते हुए नरेश उत्तम को यूपी का सपा अध्यक्ष घोषित कर दिया. रामगोपाल यादव के राष्ट्रीय अधिवेशन को अवैध करार देते हुए मुलायम सिंह यादव ने पांच जनवरी को राष्ट्रीय अधिवेशन भी बुलाया है साथ ही उन्होंने किरनमय नंदा और नरेश अग्रवाल को सपा से निष्कासित कर दिया.
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समाजवादियों का यह झगड़ा मुग़लों की याद दिलाता है...
अगर हम समाजवादी झगड़े का सार निकालें तो एक ही बात सामने आती है- यह बाप-बेटे या चाचा-भतीजे के बीच की लड़ाई नहीं है. यह बस सत्ता की लड़ाई है, कुर्सी की लड़ाई है. पार्टी में जारी पारिवारिक घमासान मुग़लों की याद दिलाता है. पार्टी में बाप से बेटे की बग़ावत, पार्टी के अंदर साज़िश और एक दूसरे के खिलाफ़ षड्यंत्र से मुग़ल साम्राज्य की याद ताज़ा हो जाती है.
मुगल सल्तनत में औरंगजेब ने बादशाह की कुर्सी की खातिर कत्लेआम करने से भी गुरेज नहीं किया था. बाप को जेल में भेजा और भाइयों को हमेशा के लिए मौत की नींद सुला दिया था. कुर्सी के लिए शाहजहां के दोनों बेटों दारा शिकोह और औरंगजेब के बीच खूनी लड़ाई हुई और आखिरकार दिल्ली का तख्त औरंगजेब ने अपने हिस्से में कर लिया था. जंग जीतने के बाद औरंगजेब ने हुकूमत की शुरुआत करते ही अपने बाप शाहजहां को आगरा किले की जेल में कैद कर दिया था और शाहजहां ने इसी किले में दम तोड़ा था.
भारतीय इतिहास में ऐसा पहली बार नहीं...
हालाँकि, समाजवादी पार्टी में सत्ता के खातिर यह घमासान पहली बार नही हो रहा है. भारतीय इतिहास में सत्ता के खातिर पहले भी ऐसे उदाहरण हमें देखने को मिले हैं.
सपा की लड़ाई अब खतरनाक मोड़ ले चुकी है |
साल 1995 में चंद्रबाबू नायडू ने रातों-रात अपने ससुर एनटी रामाराव की सरकार का तख्तापलट करते हुए मुख्यमंत्री की कुर्सी हथिया ली थी. एनटी रामाराव यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर सके और कुछ दिनों बाद ही इस दुनिया को अलविदा कह गए थे.
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कुछ ऐसा ही मिलता जुलता वाक्या तमिलनाडु में भी देखने को मिला था जब करुणानिधि को हर वक्त अपने दोनों बेटों- स्टालिन और एमके अड़ागिरी की लड़ाई से जूझते रहना पड़ता था. जब करुणानिधि ने स्टालिन के सिर पर हाथ रखा तो यह अड़ागिरी को बर्दाश्त नहीं हुआ. करुणानिधि के खून-पसीने से सींच कर बनाई गई द्रमुक पार्टी को हथियाने की अड़ागिरी ने कोई कसर नहीं छोड़ी. आखिरकार साल 2014 में अड़ागिरी को पार्टी से सस्पेंड कर इस आग को शांत किया गया.
जब 2012 में मुलायम सिंह अपने बेटे अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाने के बारे में सोचा होगा तो उन्हें तनिक भी यह अहसास नहीं होगा कि कभी उनकी ऐसी दुर्गति होगी. शिवपाल यादव इस निर्णय का ज़ोरदार विरोध भी किया था, क्योंकि उन्हें इसका अहसास था कि अखिलेश के मुख्यमंत्री बनते ही उनकी महात्वाकांक्षा भी हमेशा के लिए दफन हो जाएगी.
फिलहाल यह समाजवादी 'दंगल' ज़ारी है और यह टकराव आनेवाले उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव नतीजे को ही प्रभावित नहीं करेगा, बल्कि लंबे दौर के लिए राज्य और देश की राजनीति की तस्वीर भी बदल सकता है.
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