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Updated: 26 मई, 2016 12:40 PM
डा. दिलीप अग्निहोत्री
डा. दिलीप अग्निहोत्री
  @dileep.agnihotry
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राजनीति में अक्सर दिलचस्प रिश्ते बनते हैं. इसमें दुहाई दिल की दी जाती है, लेकिन दल दर्द और पद लिप्सा के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता. एक समय था जब बेनी प्रसाद वर्मा सपा में अमर सिंह के बढ़ते प्रभाव से बहुत नाराज हुए थे. अंततः इसी मसले पर उन्होंने सपा छोड़ दी थी. दूसरी तरफ अमर सिंह को लग रहा था कि सपा में उनकी उपेक्षा हो रही है. रामगोपाल यादव और आजम खां जैसे दिग्गज उन्हें बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे. उस समय अमर सिंह को सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव के सहारे की बड़ी जरूरत थी, लेकिन ऐसा लगा कि मुलायम सिंह रामगोपाल और आजम खां पर रोक नहीं लगाना चाहते. दोनों नेताओं ने अमर सिंह के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था. उस दौरान अमर सिंह भावुक हुआ करते थे. वह बीमार थे. विदेश में उनका ऑपरेशन हुआ. उन्होंने अपने को बीमार बना लिया. अमर सिंह के इस भावुक कथन के बावजूद मुलायम सिंह कठोर बने रहे. रामगोपाल और आजम लगातार मुखर रहे. मुलायम की खामोशी जब अमर को हद से ज्यादा अखरने लगी तो वह भी सपा से दूर हो गए.

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सियासी रिश्तों का संयोग देखिए बेनी प्रसाद वर्मा और अमर सिंह की सपा में वापसी एक साथ हुई, इतना ही नहीं राज्यसभा की सदस्यता से उनका स्वागत किया गया. कभी सपा में अमर सिंह के बढ़ते कद से बेनी खफा थे, अब बराबरी पर हुई वापसी से संतुष्ट हैं. वैसे इसके अलावा इनके सामने कोई विकल्प नहीं था. सियासत में पद ही संतुष्टि देते हैं.

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बेनी प्रसाद वर्मा सपा में अमर सिंह के बढ़ते प्रभाव से नाराज थे और इसी वजह से उन्होंने सपा छोड़ दी थी

जाहिर तौर पर सपा की सियासत का यह दिलचस्प अध्याय है. सभी संबंधित किरदार वही हैं, केवल भूमिका बदल गयी है. बेनी प्रसाद वर्मा को अब अमर सिंह के साथ चलने में कोई कठिनाई नहीं है. एक समय था जब उन्होनें अमर सिंह को समाजवादी मानने से इन्कार कर दिया था. रामगोपाल यादव और आजम खां भी अपनी जगह पर हैं. फर्क यह हुआ कि पहले खूब डायलॉग बोलते थे, अब मूक भूमिका में हैं. जिस बैठक में अमर सिंह को राज्यसभा भेजने का फैसला हो रहा था उसमें आजम खां देर में पहुंचे और जल्दी निकल गए. मतलब छोटा सा रोल था, जितना विरोध कर सकते थे किया. जब महसूस हुआ कि अब पहले जैसी बात नहीं रही, तो बैठक छोड़कर बाहर आ गए.

चार वर्षों में पहली बार आजम खां को अनुभव हुआ कि उनकी हनक कमजोर पड़ गयी है. पहले वह मुद्दा उछालते थे और मुलायम सिंह यादव ही नहीं मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को भी उसका समर्थन करना पड़ता था. यह स्थिति राज्यसभा के पिछले चुनाव तक कायम थी. बताया जाता है कि दो वर्ष पहले मुलायम सिंह ने अमर सिंह को राज्यसभा में भेजने का मन बना लिया था लेकिन आजम खां अड़ गए थे. मुलायम को फैसला बदलना पड़ा. तब वह चाह कर भी अमर सिंह को राज्यसभा नहीं भेज सके थे.

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 इस बार आजम खां को नहीं दी गई उतनी अहमियत

आजम खां के तेवर आज भी कमजोर नहीं हैं लेकिन मुलायम सिंह पहले जैसी भूमिका में नही थे. इस बार वह आजम खान की बात को अहमियत देने को तैयार नहीं थे. आजम ने हालात समझ लिए. बताया जाता है कि आजम ने इसीलिए अमर सिंह के मामले को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाया. वह जानते हैं कि अमर सिंह के साथ जयप्रदा की भी वापसी होगी. जयप्रदा के संबंध में आजम खां ने जो कहा था, उसके बाद शायद दोनों का एक-दूसरे से आंख मिलाना भी मुनासिब न हो, लेकिन राजनीति में कुछ भी हो सकता है.

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मुलायम सिंह इस बार अमर सिंह के मामले में कठोर हो चुके थे. वैसे भी लुका-छिपी का खेल बहुत हो चुका था. पिछले कई वर्षों से वह सपा के मंच पर आ रहे थे. अमर सिंह से इस विषय में सवाल होते थे. उनका जवाब होता था कि वह समाजवादी नहीं वरन् मुलायमवादी हैं. इस कथन से वह अपने अंदाज में बेनी प्रसाद वर्मा, आजम खां, रामगोपाल यादव आदि विरोधियों पर भी तंज कसते थे. ये लोग अमर सिंह पर समाजवादी न होने का आरोप लगाते थे. इसीलिए अमर सिंह ने कहा कि वह मुलायमवादी हैं. अर्थात जहां मुलायम होंगे, घूमफिर कर वह भी वहीं पहुंच जाएंगे. ये बात अलग है कि यह मुलायमवाद भी सियासी ही था. अन्यथा अमर सिंह विधानसभा चुनाव में मुलायम की पार्टी को नुकसान पहुंचाने में जयप्रदा के साथ अपनी पूरी ताकत न लगा देते. इतना ही नहीं अमर ने यह भी कहा था कि वह जीते जी कभी न तो सपा में जाएंगे न मुलायम से टिकट मांगेंगे. लेकिन वक्त बलवान होता है. कभी मुलायम की जड़ खोदने में ताकत लगा दी थी आज मुलायमवादी हैं. इसी प्रकार बेनी प्रसाद वर्मा ने भी मुलायम के विरोध में कसर नहीं छोड़ी थी, अब साथ है.

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 अमर सिंह का कहना है कि वह मुलायमवादी हैं

इस प्रकरण में दो बातें विचारणीय है. यह कि बेनी प्रसाद वर्मा, अमर सिंह, आजमखां, रामगोपाल यादव सभी बयानवीर हैं. ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि अब कौन बाजी मारेगा. दूसरा यह कि अब मुलायम सिंह की मेहरबानी किस पर अधिक होगी. रामगोपाल यादव पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं लेकिन प्रदेश से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ तक ऐसा कोई विषय नहीं जिस पर आजम खां बयान जारी न करें. वह अपनी बात सीधे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से प्रारंभ करते हैं. फिर जरूरत पड़ी तो संयुक्त राष्ट्र संघ तक चले जाते हैं. कई बार लगता है कि सपा में राष्ट्रीय अध्यक्ष और राष्ट्रीय प्रवक्ता के लिए कुछ करने को बचा ही नहीं है. आजम खां अकेले ही कसर पूरी कर देते हैं, अब इस मामले में उनका सीधा मुकाबला बेनी प्रसाद वर्मा और अमर सिंह से होगा. क्योंकि ये नेता भी किसी विषय पर बिना बोले रह नहीं सकते.

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लेकिन इस बार मुलायम सिंह यादव ने अमर सिंह को ही सर्वाधिक तरजीह दी है. पार्टी के कोर ग्रुप को इसका बखूबी एहसास भी हो गया है. बेनी प्रसाद वर्मा की वापसी और उन्हें राज्यसभा में भेजने का कोई विरोध नहीं था. इसके विपरीत अमर सिंह को रोकने के लिए बेनी प्रसाद वर्मा, आजम और रामगोपाल ने जोर लगाया था, लेकिन मुलायम ने इनके विरोध को सिरे से खारिज किया है. इसका मतलब है कि वह इन तीनों नेताओं की सीमा निर्धारित करना चाहते हैं. यह बताना चाहते हैं कि विधायकों की जीत में इनका योगदान बहुत सीमित रहा है. इन विधायकों के बल पर किसे राज्यसभा भेजना है, इसका फैसला मुलायम ही लेंगे. इस फैसले ने सपा में अमर सिंह के विरोधियों को निराश किया है. समाजवादी पार्टी में इस मुलायमवादी नेता का महत्व बढ़ेगा.

लेखक

डा. दिलीप अग्निहोत्री डा. दिलीप अग्निहोत्री @dileep.agnihotry

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं

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