दो सुप्रीम फैसलों पर विपक्ष का फ़ख़्र करना बेमानी है!
एक शेर याद आ गया माननीय चीफ जस्टिस ऑफ़ इंडिया के लिए, शेर कुछ यूं है कि 'तू खुदा तो नहीं पर खुदा से क्या कम है, तेरी मर्जी से ख़ुशी तेरी मर्जी से गम हैं !
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एक फैसला था अदानी मामले में कमिटी बनाने का जिसे अपनी रिपोर्ट दो महीने में सबमिट करनी है साथ ही सेवी भी हिंडनबर्ग रिपोर्ट और मार्केट वायलेशन समेत दोनों आरोपों पर पहले से ही जांच कर रही है और वह अपना काम जारी रखेगी. हां, सेवी को भी अपनी रिपोर्ट दो महीने में ही सबमिट करनी है. क्या शीर्ष न्यायालय का हस्तक्षेप ज़रूरी था? और फिर कमिटी कमिटी के खेल का क्या हश्र होता है, सभी वाकिफ हैं. कंट्रोलर की हैसियत से सेवी अस्थिरता को बखूबी हैंडल कर ही रही थी और कर भी रही है. शेयर बाजार की अपनी चाल है, यदि किसी शेयर की कीमत अधिक है, तो बाजार उसे पता कर ही लेता है और फिर करेक्शन अवश्यंभावी है. बाजार ही दंड देता है और अदानी के मामले में बाजार ने अदानी पर 10-12 लाख करोड़ का दंड ठोका भी तभी तो एक वक्त दुनिया के धनियों में तीसरे नंबर पर काबिज होने के बाद वे टॉप तीस के क्लब से बाहर कर दिए गए.
गौतम अदानी को लेकर सुप्रीम कोर्ट क्या कहती है इसपर पूरे देश की नजर है
सेबी (SEBI) के प्रयासों का ही नतीजा है कि बाजार पैनिक से बाहर निकल कर अदानी के विभिन्न शेयरों को गर्त से बाहर निकाल कर उनके वास्तविक धरातल पर ला रहा है और तदनुसार अदानी की रैंकिंग भी सुधर रही है. निःसंदेह सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ़ इंडिया शानदार ढंग से काम कर रही थी. सुप्रीम कोर्ट की दखलंदाजी गैर जरूरी है, बाजार विरोधी है. भला तो क्या होगा बल्कि नियामक के कामकाज की एक मजबूत प्रक्रिया कमज़ोर ही होगी.
गौतम अदानी को खूब पता था इन घटनाक्रमों का, आखिर सच उनसे बेहतर हिंडनबर्ग थोड़े ना जानता है ! तभी तो उन्होंने शीर्ष अदालत द्वारा समिति की नियुक्ति का स्वागत करते हुए उम्मीद जताई कि समयावधि में सच्चाई बाहर आ जायेगी. विपक्ष के आरोपों को देखें तो स्पष्ट है अदानी को इस्तेमाल किया जा रहा है मोदी पे निशाना लगाने के लिए.
शॉर्ट सेलिंग के कुत्सित मकसद के लिये आई हिंडनबर्ग रिपोर्ट शायद उतना नहीं हिलाती जितना उसे देश के विपक्षी नेताओं ने उछाल कर हिला दिया. हिंदुस्तान की राजनीति में हर काल खंड में किसी न किसी पूंजीपति को तरजीह मिलती रही है. गाँधी के दौर में बिड़ला और बजाज थे, कभी बेचारे टाटा बिड़ला कोसे जाते थे कि टाटा बिड़ला की सरकार है और आज अंबानी अडानी हैं.
विपक्ष कामयाब हो भी जाता 'मोदी अदानी' की रट लगाकर यदि वह बता पाता अदानी की वजह से मोदी के किसी पर्सनल फायदे को, उनके परिवार को पहुंचे फायदे को. जहां तक पोलिटिकल चंदे की बात है तो शाश्वत यही है कि उगते सूरज को सभी सलाम करते हैं. जब कांग्रेस सत्ता में रहती थी, उसे खूब चंदा मिलता था और आज जब बीजेपी है तो उसे मिलता है.
तृणमूल तो सिर्फ बंगाल की पार्टी है लेकिन उसे कांग्रेस को पूरे देश में मिले चंदे से भी ज्यादा मिल जाता है क्योंकि वह बंगाल में सत्ता पर काबिज है, सिर्फ यही तथ्य चुनावी बांड के मार्फ़त चंदे दिए जाने के तरीके का खुलासा कर देता है. हाँ, कब किसने कितना दिया, उतना भर अब सीक्रेट है, और बवाल भी शायद उसी लिए है.
यदि विपक्ष के खासकर कांग्रेस के आरोपों में दम होता तो क्यों नहीं वह क्राउड फ़ंडिंग के जरिये पैसे एकत्र कर लेती ; नहीं कर पा रही है और यही उसकी नाकामयाबी है कि आज की समझदार जनता अपनी समस्याओं के लिए मोदी के अदानी के साथ के किसी गठजोड़(Nexus) के आरोपों को स्वीकार नहीं कर रही है.
वन लाइनर कहें तो आरोप पोलिटिकल है और आज किसी भी मुद्दे का पोलिटिकल होना या बनाना ही लोगों को रास नहीं आता. अब बात करें मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के बारे में सुप्रीम कोर्ट के ताजातरीन फैसले की. तो एक शेर याद आ गया माननीय चीफ जस्टिस ऑफ़ इंडिया के लिए, 'तू खुदा तो नहीं पर खुदा से क्या कम है, तेरी मर्जी से ख़ुशी तेरी मर्जी से गम हैं!
ये फैसला कार्यपालिका यानी सरकार और विधायिका यानी संसद के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण है. इस फैसले के गंभीर नतीजे हो सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट इस बिना पर कानून नहीं बना सकती कि जब तक संसद कानून बनाता है तब तक उसका बनाया कानून लागू होगा; खासकर तब जबकि ऐसा कानून बनाना, संविधान के मुताबिक, जरूरी नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की बेंच के आदेश, कि जब तक संसद, चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के बारे में कानून नहीं बनाता, तब तक प्रधानमंत्री, लोकसभा में विरोधी दल या विपक्ष के सबसे बड़े दल के नेता और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की एक कमेटी राष्ट्रपति को सलाह देगी कि इन पदों पर किनको नियुक्त किया जाए, का क्या औचित्य है?
क्या अब तक आयुक्तों की नियुक्ति का अधिकार कार्यपालिका के पास होना गैरकानूनी है? और यदि ऐसा था तो अब तक टॉप अदालत क्यों आंखें मूंदे बैठी थी? इस फैसले से पहले तक की व्यवस्था अनुच्छेद 324 के अनुरूप है जो कहता है कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाले मंत्रिपरिषद की सलाह से मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करेंगे और अगर संसद इस बारे में कोई (Any) कानून बनाता है तो ये काम उसके अंतर्गत होगा.
दरअसल मंत्रिपरिषद मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की जो प्रक्रिया अपनाता है, वह अपने आप में कानून है. और इसीलिए उच्चतम न्यायालय की तब तक के लिए जब तक संसद कानून नहीं बाना देता वाली शर्त ही असंवैधानिक लगती है क्योंकि नियुक्ति के लिए संसद से पारित किसी कानून की अनिवार्यता संविधान ने स्थापित नहीं की है.
चूंकि शीर्ष अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत फैसला दिया है इस तर्क के साथ कि चूंकि संसद का पास किया हुआ कोई कानून नहीं है, इसलिए कोर्ट आदेश दे रहा है, जो कानून बनने तक प्रभावी रहेगा. यही विरोधाभास है. क्या सुप्रीम कोर्ट ऐसा आदेश दे सकता है कि संसद कैसा कानून कब पारित करे?
तथ्य तो यही है संविधान में शक्तियों के अलग अलग होने की व्यवस्था ऐसी है कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश तभी लागू होगा, जब या तो संसद संबंधित कानून पास करे या फिर अध्यादेश आए या फिर राष्ट्रपति आदेश जारी करें. दरअसल शीर्ष अदालत ने सीमा लांघी है.
क्या सुप्रीम कोर्ट संसद बनना चाहता है या कानून बनाने वाली संस्था बनना चाहता है? चूंकि जनता जजों को नहीं चुनती, इसलिए जो हुआ, क्या लोकतंत्र के सिद्धांत के विपरीत नहीं हो रहा? सुप्रीम कोर्ट कैसे चीफ जस्टिस को कार्यपालिका की शक्तियां दे सकता है ? संविधान तो ऐसा नहीं कहता. और फिर किसी जज के होने भर से कोई व्यवस्था सुधर जाएगी, कैसे मान लिया जाए?
जज भी तो पक्षपाती विचार रख सकते हैं. तभी तो आज कल जब देखो तब जज स्वयं को मामले से अलग कर लेते हैं. 'पंच परमेश्वर' की अवधारणा कब की खत्म हो चुकी है. बात जो महत्वपूर्ण है चुनाव आयोग की कमियों और खामियों पर चर्चायें तमाम दल सुविधानुसार अवसर के अनुसार करते रहे हैं,
लेकिन आज तक कभी किसी सरकार ने या किसी सांसद ने चुनाव आयोग की नियुक्ति में जजों को शामिल करने या इसके लिए कोई और व्यवस्था के लिए कोई विधेयक प्रस्तुत नहीं किया है. एक तरफ सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति की कॉलिजियम प्रणाली खुद गंभीर विवादों में है.
जजों की नियुक्ति का अधिकार पहले राष्ट्रपति के पास था, जिसे 1993 से जजों ने खुद अपने हाथ में ले लिया. इस मामले में जज न तो सरकार की कोई भूमिका चाहते हैं और न ही संसद की. कितना हास्यास्पद है उन्हें लगता है कि चुनाव आयोग की नियुक्ति कमेटी में आकर वे चुनाव आयोग को सुधार देंगे.
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