धर्मनिरपेक्षता का राग अलापने वाले नेताओं ने ही बाबरी मस्जिद की आग को हवा दी
पीएम नरसिंम्हा राव ने बाबरी मस्जिद को गिराने के मामले की जांच के लिए हाईकोर्ट जज आरएमएस लिब्राहन की अध्यक्षता में एक कमीशन का गठन किया. कमीशन को अपनी जांच रिपोर्ट 30 दिनों के भीतर ही देनी थी. लेकिन लिब्राहन आयोग ने एक आधे-अधूरे रिपोर्ट को जमा करने में 17 साल लगाए.
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किसी देश के लोकतांत्रिक संस्थान उसका सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होते हैं. उदारहण के तौर पर संविधान को ही ले लीजिए. ये एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की व्याख्या करता है. लेकिन क्या एनडीए सरकार ने धर्मनिरपेक्ष संस्थाओं को बढ़ावा दिया है? लगभग हर सरकारी आयोजनों में हिंदुत्व का शोर सुनाई देता है. किसी निजी या पारिवारिक समारोह में इस तरह के आचरणों को बढ़ावा देना कोई गलत बात नहीं है लेकिन सरकारी कार्यक्रमों में हिंदुत्व का उद्घोष धर्मनिरपेक्षता को कमजोर करती है.
हालांकि धार्मिक कर्मकांडों में कोई बुराई भी नहीं है. धर्म के जरिए कई लोग मानसिक शांति पाते हैं, मुश्किल परिस्थितियों से लड़ने की शक्ति पाते हैं. लेकिन सरकारी संस्थानों, कानून और न्याय व्यवस्था को इन सबसे ऊपर रखना चाहिए. जैसे कोर्ट को ही देख लें. धार्मिक मामलों में भी कोर्ट कानून का रास्ता अख्तियार करती है. लेकिन कानून के दायरे के बाहर ये एक धार्मिक मुद्दा ही होता है.
मुस्लिम पर्सनल लॉ के जरिए इस बात को हम भली-भांति समझ सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक को धार्मिक मुद्दे पर नहीं बल्कि कानूनी के स्तर पर रिजेक्ट किया. किसी धार्मिक मुद्दे में ये एक धर्मनिरपेक्ष दखल है. अत: कह सकते हैं कि न्याय का रास्ता भले ही धर्म के जरिए गुजरता हो लेकिन साथ ही जरुरत पड़ने पर धर्मनिरपेक्षता का भी सहारा लेता है. इसलिए सेक्यूलरिज्म का मतलब का धर्म का विरोध नहीं होता. जब सामाजिक और अन्य विश्वासों का गलत प्रयोग किया जाता है या गलत अर्थ लगा लिया जाता है तभी दिक्कत शुरु होती है.
जैसे किसी कबिलाई इलाके में डायन प्रथा के चलन के कारण निर्दोष औरतों को सजा भुगतनी पड़ती है. जैसे 2002 के गुजरात दंगों के समय मुसलमानों का कत्लेआम सिर्फ एक गलतफहमी के कारण कर दिया गया था. गलतफहमी ये हो गई थी कि गोधरा के फालिया एरिया के सिग्नल पर ट्रेन के कोच में सफर कर रहे कार सेवकों की हत्या मुस्लिमों ने कर दी थी. घटना की सच्चाई जानने के लिए गठित की गई कमिटि का हिस्सा मैं भी था. मैंने जब ट्रेन के उस कोच का मुआयना किया तो पाया कि कोच के सारे दरवाजे और खिड़कियां अंदर से बंद थीं. कोच में आग अंदर से ही लगी थी और कुछ मुसलमान दरवाजा तोड़कर अंदर गए थे. जिसका नतीजा कई मौतें थीं.
इसके बाद गुलबर्ग सोसाइटी में रहने वाले पूर्व सांसद एहसान जाफरी ने पुलिस से अपने घरवालों और सोसाइटी में रहने वाले लोगों के लिए सुरक्षा की मांग की थी. लेकिन पुलिस उनकी सुरक्षा के लिए नहीं आई और सोसाइटी में रहने वाले सभी लोगों की निर्मम हत्या कर दी गई. हत्या के आरोपियों पर साधारण आरोप लगाए गए. नतीजा न्याय की धज्जियां उड़ गई और सेक्यूलरिज्म पानी-पानी हो गया. इस तरह की हिंसा अब रुटीन बन गई है. जब भी धर्म या जाति की बात आती है तो इस तरह की हिंसा अब रूटीन बन गई है.
स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे ज्वलंत मुद्दा है
स्वतंत्र भारत में सबसे विनाशकारी मुद्दा बाबरी मस्जिद विवाद है. जिसका हल कोसों दूर है. 1948 में, कांग्रेस के दो नेताओं ने सोशलिस्ट आंदोलन की तरफ रूख कर लिया था. आचार्य नरेंद्र देव जिनका इरादा अयोध्या के करीब फ़ैज़ाबाद क्षेत्र में चुनाव लड़ने का था. और दूसरे आचार्य कृपलानी जिनका इरादा फ़ैज़ाबाद से चुनाव लड़ने का था. इस बात से कांग्रेस नेता और उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री जी.बी. पंत चिंतित हो गए. इसके बाद पंत ने बाबरी मस्जिद के आसपास भजन और गीतों के आयोजन को बंद करा दिया. नतीजतन, आस-पास के एक मुस्लिम कब्रिस्तान को उखाड़ फेंका गया था और पास के ही छोटे मोती मस्जिद को भी तहस-नहस कर दिया गया. 22-23 दिसंबर 1948 की रात, बाबरी मस्जिद में रामलला की मूर्ति को रख दिया गया था. इसके बाद भयानक घटनाओं का सिलसिला शुरू हो गया.
उस समय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने पंत को रामलला की मूर्ति को हटाने के लिए चिट्ठी लिखी. लेकिन पंत ने उनकी बात नहीं मानी. वहीं 1986 में पीएम राजीव गांधी भी इसी तरह हिंदुत्व और मुसलमानों के बीच फंस गए थे. बाबरी मस्जिद मामले में पीएम ने ये सुनिश्चित किया था कि फैजाबाद कोर्ट में मामले की सुनवाई शनिवार को हो ताकि मुसलिम लोग इस बात से बेखबर रहें. कांग्रेस समर्थक एक जज ने मस्जिद के ताले को तोड़ने का आदेश दिया. इलाके के डीएम और एसपी ने आश्वासन दिया था कि किसी तरह की कोई गड़बड़ नहीं होगी. वो जज बाद में बीजेपी से सांसद बने. एक प्रधानमंत्री के अवसरवादी फैसले ने नफरत का जहर बो दिया.
राजीव गांधी ने इस आग को हवा ही दी थी
इसके बाद लालकृष्ण आडवानी ने रथ यात्रा के जरिए राम मंदिर के मुद्दे की आग में घी डाल दिया. इस रथ यात्रा को लालू यादव ने रोका था. अंत में 1992 में मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा. कोर्ट ने कार सेवकों को राज्य अतिथि का दर्जा दिया. तब के प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने मस्जिद की दीवार कम करने, उनपर लगे लोहे के छड़ों को हटावा कर हिंदुओं की भावनाओं को और मजबूत कर दिया. इसके साथ ही पीएम ने मस्जिद के ठीक बगल में बन रही राम कथा पार्क की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया, जिसकी दीवार 4 फीट से ऊपर बन गई. और जिसकी वजह से कार सेवक बाबरी मस्जिद के ऊपर चढ़ पाने में सफल हो गए.
लाखों की संख्या में जमा हुए कारसेवकों पर सुरक्षाकर्मियों को गोली नहीं मारने का आदेश दिया गया था. 6 दिसम्बर 1992 को कार सेवकों ने 16वीं सदी में बने बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया. पुलिस खड़ी तमाशा देखती रही. सरकार को लग रहा था कि कार सेवक इस इमारत को ध्वस्त नहीं कर पाएंगे. सुप्रीम कोर्ट भी आंख में पट्टी बांधे खड़ी रही और खानापुर्ति के लिए यूपी के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को एक दिन के लिए हिरासत में ले लिया. अयोध्या में एक अस्थायी राम मंदिर बनाया गया था. राम चबुतरा और सीता की रसोई को नष्ट कर दिया गया था.
सभी ने अपनी रोटियां सेंकी
पीएम नरसिंम्हा राव ने बाबरी मस्जिद को गिराने के मामले की जांच के लिए हाईकोर्ट जज आरएमएस लिब्राहन की अध्यक्षता में एक कमीशन का गठन किया. कमीशन को अपनी जांच रिपोर्ट 30 दिनों के भीतर ही देनी थी. लेकिन लिब्राहन आयोग ने एक आधे-अधूरे रिपोर्ट को जमा करने में 17 साल लगाए. सीआईडी के आईजी हरिदास राव के सामने 9 घंटे का वीडियो टेप और 48 ऑडियो कैसेट जमा किए गए. इससे साजिश का खुलासा हुआ. ये और बात है कि लिब्राहन आयोग के पास ये सारे सबूत मौजूद थे. और जब हमलोगों ने उन ऑडियो और वीडियो टेप की मांग की तो हमें कहा गया कि वो सुरक्षित सेफ में रखे गए हैं. इसके बाद वो टेप गायब हो गए.
देश में लगातार बढ़ती सांप्रदायिकता के मद्देनजर इतनी लंबी कहानी सुनाना जरूरी था. जिसमें 2002 में नरेंद्र मोदी के गुजरात मुख्यमंत्रित्व काल में हुए मुस्लिमों के नरसंहार पर भी बात होनी जरुरी थी. अयोध्या कांड के बाद गुजरात की घटना ने धर्मनिरपेक्षता को गंभीर रूप से प्रभावित किया है.
2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के अपराधियों के खिलाफ की गई लीपापोती की कार्रवाई ने साबित कर दिया है कि सांप्रदायिक लड़ाई आज भी यथास्थिति में है. इसका निष्कर्ष ये निकालता है कि सांप्रदायिक संघर्षों को अक्सर धर्मनिरपेक्ष राजनेता ही हवा देते हैं. फिर चाहे वो जीबी पंत हों, राजीव गांधी या फिर पी.वी. नरसिंह राव. सांप्रदायिक सद्भाव और धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखने के लिए, हमें इन भयानक घटनाओं से सबक सीखना चाहिए.
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