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Updated: 12 सितम्बर, 2016 08:23 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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मोहम्मद शहाबुद्दीन के लिए जेल की सलाखें बहुत पहले ही कमजोर पड़ चुकी थीं. नीतीश कुमार भी ये बात तभी समझ चुके होंगे जिस वक्त लालू से दोबारा हाथ मिलाया - और जब शहाबुद्दीन के आरजेडी कार्यकारिणी में शामिल किये जाने की खबर पहुंची होगी तो पक्के तौर पर मान लिया होगा. काउंट डाउन शुरू हो चुका है.

शहाबुद्दीन के जमानत पर रिहा होने के बाद तमाम आशंकाएं जताई जा रही हैं. एक बार फिर से जंगलराज के खतरे मंडराने लगे हैं. इन खतरों के साये तले भुजंग से बेअसर नीतीश कैसे चंदन बने रह पाते हैं, असली चुनौती यही है.

टारगेट नीतीश

जहां तक शहाबुद्दीन द्वारा नीतीश को टारगेट करने की बात है तो वैसा हमला तो रघुवंश प्रसाद सिंह ने भी किया है. शहाबुद्दीन का तो हक बनता है - क्योंकि माना यही जाता रहा कि नीतीश की वजह से ही शहाबुद्दीन 11 साल तक जेल में रह पाये. इन 11 साल में भी जेल की जिस सेल में शहाबुद्दीन रहे वहां लगातार छापे पड़ते रहे - और इन छापों में शहाबुद्दीन के कई मोबाइल फोन जब्त कर लिए गए. शहाबुद्दीन से मिलने आने वालों को सहूलियत देने के आरोप में कई अफसर सस्पेंड भी किए गए - ये बात अलग रही कि मिलने वालों में नीतीश सरकार के मंत्री तक भी शामिल होते थे.

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शहाबुद्दीन जितना पढ़ा लिखा अपराधी यूपी-बिहार में तो कोई और नजर नहीं आता. शहाबुद्दीन ने राजनीति शात्र में एमए और पीएचडी की - और अपराध शास्त्र में हद दर्जे का हुनर निखारा है. फिर अपराध को राजनीति से जोड़ कर दोनों का डेडली कॉकटेल बना लिया - मुस्लिम समुदाय से होना मददगार साबित हुआ जो लालू प्रसाद के एम-वाई फैक्टर में आसानी से फिट हो गया.

2005 में शहाबुद्दीन की गिरफ्तारी तो तब हुई थी जब बिहार में राष्ट्रपति शासन लगा था - लेकिन नीतीश कुमार की सरकार आने पर शहाबुद्दीन पर धीरे धीरे शिकंजा कसता गया. जेल में भी शहाबुद्दीन पर कड़ी निगरानी रखी जाती और वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये मुकदमों की सुनवाई होती थी. जब शहाबुद्दीन के चुनाव लड़ने पर पाबंदी लग गई तो उन्होंने पत्नी हिना शहाब को मैदान में उतारा, लेकिन शिकस्त झेलनी पड़ी.

लेकिन जब 2013 में नीतीश कुमार बीजेपी से अलग हो गये और फिर लालू प्रसाद से हाथ मिला लिया - फिर तो धीरे धीरे ही सही शहाबुद्दीन के अच्छे दिन आने शुरू हो गये.

शहाबुद्दीन पर अपहरण और हत्या के 39 हैं जिनमें से 38 में पहले ही उन्हें जमानत मिल चुकी है. 39वां केस राजीव रौशन का था जो अपने दो सगे भाइयों की हत्या का चश्मद्दीद गवाह था.

वैसे तो सीनियर एडवोकेट प्रशांत भूषण ने कहा है कि वो शहाबुद्दीन को मिली जमानत के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल करेंगे. नीतीश सरकार की भूमिका पर सवाल उठाते हुए प्रशांत भूषण ने कहा कि इस दिशा में बिहार सरकार को खुद पहल करनी चाहिए थी.

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तेजस्वी के आगे कितनी मनमानी चल पाएगी...

माना जाता रहा कि नीतीश सरकार की सख्ती के चलते ही शहाबुद्दीन को जमानत नहीं मिल पा रही थी - इसलिए, स्वाभाविक है, नीतीश के नरम पड़ जाने के कारण ही शहाबुद्दीन को जमानत नसीब हुई - और नीतीश इस हेल्दी इल्जाम से खुद को बचा भी नहीं सकते.

शराबबंदी को लेकर भी शहाबुद्दीन ने नीतीश पर हमला बोला है. ऐसा हमला तो रघुवंश प्रसाद ने भी बोला था, ये बात अलग है कि उन्होंने ऐसा तब किया जब नीतीश शराबबंदी की मांग करते हुए बिहार से बाहर निकल पड़े.

रघुवंश प्रसाद को लोग लालू प्रसाद की जबान बताते हैं - और शहाबुद्दीन तो दुलरुवा हैं ही, जगजाहिर है. नीतीश को भी मालूम है कि सब लालू के ही इशारे पर चलता है, लेकिन गठबंधन की राजनीति में इतने साइड इफेक्ट तो झेलने ही पड़ेंगे.

ये तो होना ही था

इसी साल अप्रैल में लालू प्रसाद की ओर से आरजेडी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्यों की सूची जारी हुई तो उसमें शहाबुद्दीन को भी शामिल किया गया. साफ था कि लालू के लिए मुस्लिम वोट बैंक को इग्नोर करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था. ठीक वैसे ही जैसे परिवार की एकता को खतरे में डाल कर यूपी में मुलायम सिंह यादव अपनी पार्टी में कौमी एकता दल को शामिल कर माफिया डॉन मुख्तार अंसारी की एंट्री का रास्ता आसान बना रहे हैं. विपक्ष ने शहाबुद्दीन की एंट्री को लेकर तब भी सवाल खड़े किये थे. तब राबड़ी देवी ने आगे बढ़ कर पार्टी का बचाव किया था - और बीजेपी आलाकमान अमित शाह की ओर उंगली उठाई थी.

उसी दौरान सिवान में पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या में शहाबुद्दीन का नाम उछला - क्योंकि उस मामले में जिसे गिरफ्तार किया गया वो शहाबुद्दीन का करीबी बताया गया.

तब डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव ने बीजेपी नेता सुशील मोदी को चुनौती दी कि अगर इस राजदेव रंजन मर्डर केस में शहाबुद्दीन का नाम नहीं आया तो क्या वो माफी मांगेंगे?

सबसे बड़ी चंदन चुनौती

वैसे बिहार में लालू राज और यूपी में समाजवादी पार्टी के शासन की सीधे पर कोई तुलना नहीं हो सकती, लेकिन मुलायम सिह की पिछली सरकारों में समाजवादी पार्टी कार्यकर्ताओं की हरकतें और हल्ला बोल जैसे एक्ट ज्यादा न सही थोड़ा बहुत अक्स तो दिखा ही देते हैं. जिस तरह से यूपी में अखिलेश यादव ने सत्ता संभालने के बाद समाजवादी पार्टी की छवि बदलने की कोशिश की है, उसी तरह बिहार में डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव भी आरजेडी की छवि पर लगे दाग धोने की लगातार कोशिश कर रहे हैं. हो सकता है खुद लालू भी बच्चों के राजनीतिक भविष्य को देखते हुए जंगलराज की तोहमत से ऊबने लगे हों - लेकिन तेजस्वी तो ऐसा कतई नहीं चाहते, ऐसा उनके बयानों से लगता है.

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आरजेडी की छवि को लेकर तेजस्वी की सतर्कता और सक्रियता ही नीतीश कुमार के लिए राहत की बात है - और यही वजह है कि लगता है कि नीतीश कुमार को शहाबुद्दीन के बाहर आने से अलग से कोई नई मुश्किल नहीं आने वाली है.

बाकी बातें अपनी जगह हैं. एक बात तो साफ है - आम लोगों से ज्यादा फजीहत तो पुलिस और प्रशासनिक अफसरों की होने वाली है. शहाबुद्दीन के इलाके में उसकी मर्जी के बगैर शायद ही वे कोई काम कर पायें. अगर किसी ने हीरो बनने की कोशिश की तो फौरन एक्शन से लेकर देर सबेर खामियाजा भुगतने के लिए तैयार रहना होगा.

पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या की सीबीआई जांच की घोषणा और शहाबुद्दीन का नाम उछला तो जेल पर छापेमारी के बाद उन्हें भागलपुर शिफ्ट करा कर नीतीश सरकार ने अपना पीछा छुड़ा लिया था.

फर्ज कीजिए फिर ऐसी स्थिति आती है तो नीतीश कैसे निपटेंगे. गया में हत्या की घटना पर नीतीश ने कहा था कि अपराधी बच कर कहां जाएगा? रॉकी यादव को पुलिस ने गिरफ्तार कर जेल भी भेज दिया.

ईश्वर न करे अगर ऐसा कोई वाकया सिवान में फिर से होता है तो नीतीश कैसे हैंडल करते हैं? देखना होगा, अब भुजंग का चंदन पर कोई असर होता है या नहीं. नीतीश के सामने अगर कोई चुनौती खड़ी हुई है तो बस इतनी ही.

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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