गुजरात चुनाव के बाद कोई इस ठहरे हुए पानी को निकाले, मुस्लिम महिलाओं की समस्या दूर होगी!
अहमदाबाद स्थित जामा मस्जिद के शाही इमाम शब्बीर अहमद की बातों को सुनकर लगता है कि वहां स्वतंत्र विचारों का सड़ा हुआ पानी ठहर-सा गया है. इस ठहरे हुए पानी के निकासी की व्यवस्था ख़ुद मुस्लिम समुदाय को करनी चाहिए क्योंकि यह महिलाओं के हक़ में खीची गई लकीर को छोटा कर रहा है.
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एक तरफ, ईरान में मुस्लिम महिलाओं ने अपनी खुदमुख्तारी के हक़ में हिजाब को लेकर चल रहे आंदोलन में ईरान में नैतिक पुलिस बल ख़त्म करके एक बड़ी जीत हासिल की है. इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती है. वही दूसरी तरफ, अहमदाबाद में जामा मस्जिद के शाही इमाम शब्बीर अहमद ने अपने बयान में कहा है कि मुस्लिम महिलाओं को टिकट देना इस्लाम के खिलाफ है. क्या चुनाव लड़ने के लिए कोई आदमी नहीं मिला? इससे धर्म को कमजोर करने की कोशिश हो रही है. मौजूदा गुजरात विधानसभा चुनाव में कुल आकड़े बताते हैं कि इस बार भी सभी दलों ने महिला उम्मीदवारों पर कम भरोसा जताया है. करीब 50 प्रतिशत महिला मतदाता होने के बावजूद महिला उम्मीदार मात्र 139 हैं. सतारूढ भाजपा ने 18, विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने 14, नई पार्टीयों में आम आदमी पार्टी ने 6, एमआईएमआई एम ने दो महिला जिसमे एक मुस्लिम और एक दलित समुदाय की महिला, बसपा ने 13 महिला उम्मीदार को टिकट दिया है और अन्य कमोबेश 56 निर्दलीय है. इन आकंड़ों कि माने तो मात्र एक या दो मुस्लिम महिलाएं चुनावी मैदान में हैं.
गुजरात विधानसभा चुनावों में अपने मताधिकार का इस्तेमाल करती एक मुस्लिम महिला
मात्र एक या दो मुस्लिम महिला प्रत्याशी के मौजूदगी से पुरुषवादी चौधराहट की दीवार हिलने लगी. असल में उनकी मौजूदगी ने इन महिलाओं ने मुस्लिम महिलाओं के खुदमुख्तारी के लिए एक लकीर खींच दी है, जो आने वाले समय में बदलाव की नई बयार बना सकती है. सनद रहे, हदीस का हवाला देते हुए यह बात फतवे के रूप में पहले भी आती रही है.
पाकिस्तान की पूर्व स्वर्गीय प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो व बंग्लादेश की प्रधानमंत्री खालिदा ज़िया को भी इसतरह के सख्त निर्देश मिलते रहे हैं. जिसका पालन उन्होंने कभी नहीं किया और तारीख में अपना नाम बेमिसाल खुदमुख्तार महिला के रूप में दर्ज करवाया. इसके पूर्व कुवैत के संसद ने 2005 में चुनाव कानून में संशोधन करके महिलाओं को पुरुषों के हक़ के बराबर राजनीतिक हक़ दिए हैं.
जिसके पीछे ढ़ाई दशक तक महिलाओं को राजनीतिक संघर्ष करना पड़ा था. उस वक़्त कतर, बहरीन, ओमान के बाद कुवैत अपनी महिलाओं को चुनाव में शिरकत करने का अधिकार देने वाला चौथा देश बन गया था. भारत में कमोबेश हर चुनाव में विशेषकर पंचायत चुनावों में, क्योंकि कई राज्यों ने पंचायत चुनाव में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित कर दी हैं.
मुस्लिम महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को लेकर बातचीत दबी जुबान में होती रहती है. समाधान के रूप में यह रास्ता निकलता है कि चुनाव लड़ने से पहले मुस्लिम महिलाएं यह सुनिश्चित करें कि वह सामाजिक नियमों का उल्लंघन नहीं करेंगी, वोट मांगते वक़्त भीड़ से फ़ासला बना कर रखेंगी और चुनाव जीतने के बाद राजनीतिक जिम्मेदारियां अपने पतियों को सौंपकर ख़ुद घरेलू मोर्चे पर लौंट जाएंगी.
गोया, पंचायत पति, प्रधान पति जैसे उदाहरण का इंजाद भी इसी फार्मूले से निकला होगा. इससे दो बाते तो स्पष्ट है कि मुस्लिम समाज में औरतों के चुनाव लड़ने को लेकर कोई प्रतिबंध नहीं है. डर महिलाओं के सामाजिक नियमों के चौहद्दी के टूटने या धवस्त होने का अधिक है. सवाल है यह कि दुनिया तेजी से बदल रही है. सत्ता-संतुलन बनाए रखने के लिए ज़रूरी है कि राजनीति में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी / उनकी भागीदारी से स्वास्थ्य, शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं के हितों के अनुसार बदलाव हो.
महिलाएं ग्राम सभा में स्वास्थ्य, शिक्षा, काम के बदले अनाज सम्बंधी सवाल अधिकारियों से पूछने लगी है. कहीं-कही महिला पंच / प्रधान ने सराहनीय काम भी किए है जिसका लाभ वहां के लोगों को हुआ है. दुनिया भर में मुस्लिम महिलाओं के हक़ में नए-नए कानून सामने आ रहे हैं. लेकिन अहमदाबाद के मौलाना की बातों को सुनकर लगता है कि वहां दकयानिसू विचारों का सड़ा हुआ पानी ठहर-सा गया है. इस ठहरे हुए सड़े पानी की निकासी व्यवस्था ख़ुद मुस्लिम समुदाय करे तो बेहतर होगा.
मुस्लिम महिलाएं और लड़कियां शिक्षा और रोजगार के मामले में दूसरों से बहुत पिछड़ी हुई हैं. यह एक अकाट्य सच्चाई है. धीरे-धीरे मध्यम वर्ग के शहरी मुस्लिम लड़कियों में न सिर्फ़ शिक्षा बल्कि रोजगार को लेकर भी गहरे सामाजिक, सांस्कृतिक और मनोसामाजिक परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं . इस बदले हुए महौल में मुस्लिम महिलाओं का चुनाव में राजनीतिक भागीदारी रोकने के इसतरह के बयान देना, अपने-अपने दायरे में बदलाव के बयार को रोकने की साज़िश है, जिसके लिए प्रतिरोध की आवाज़ ख़ुद मुस्लिम महिलाओं के तरफ़ से आनी चाहिए.
जैसे दिल्ली के जामा मस्जिद में अकेली मुस्लिम महिलाओं के आने-जाने पर रोक लगाए जाने पर, प्रतिरोध देखने को मिला था. मुस्लिम महिलाओं को यह समझना होगा कि इसतरह के दकयानूस ख्यालों के भूल-भूलैया में फंसकर, वह अपना ही नहीं भविष्य में आने वाली कई महिलाओं के भविष्य को अंधेरे में ढ़केल रही हैं.
आज पुरानी मान्यताओं को तोड़ कर नई प्रथा बनानी ज़्यादा ज़रूरी है. जैसा कभी पहली मुस्लिम शासिका रजिया सुलतान ने किया था. उनके लिए वह समय आ गया कि वह बेमानी फतवों की राजनीति करने वालों के विरुद्ध आवाज़ उठाएं ताकि गांव, मोहल्ले, राज्य और देश के राजनीति में उनकी ख़ुद मुख्तारी की आवाज़े बुलंद हों.
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