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Updated: 05 नवम्बर, 2015 12:36 PM
विवेक शुक्ला
विवेक शुक्ला
  @vivek.shukla.1610
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ताज मोहम्मद खान को आप नहीं जानते. वे कांग्रेसी थे. वे फ्रंटियर सूबे (अब पाकिस्तान) में स्वीधनता आंदोलन से जुड़े हुए थे. पर, हमें पता है कि आप उनके पुत्र को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं. वे बॉलीवुड के सबसे बड़े स्टार हैं. नाम है शाहरूख खान. भारत 1947 में मजहब के नाम पर बंटा. मोहम्मद अली जिन्ना की अगुवाई में मुस्लिम लीग का पृथक इस्लामिक राष्ट्र का सपना 14 अगस्त,1947 को पूरा हो गया. यानी जो सपना 23 मार्च,1940 को मुस्लिम लीग के लाहौर के मिंटोपार्क में आयोजित तीन दिवसीय सम्मेलन में देखा गया था, वह करीब सात सालों में साकार हो गया.   

लेकिन, ताज मोहम्मद को जिन्ना का पाकिस्तान मंजूर नहीं था. इन्हें मुसलमान होने के बाद भी इस्लामिक मुल्क का नागरिक बनना नामंजूर था. बस, इसलिए वे 1947 में पाकिस्तान छोड़कर भारत आ गए. अब उसी ताज मोहम्मद के पुत्र शाहरुख खान को कुछ भाजपाई पाकिस्तान जाने की सलाह दे रहे हैं तो कुछ उनकी तुलना कर रहे हैं मुंबई में 26/11 के हमलों के मास्टरमाइँड हाफिज सईद से. हालिया दौर में जिस तरह का माहौल बना हुआ है, ऐसे में शाहरुख खान ने बस यह कह दिया था कि देश में टोलरेंस का स्तर घट रहा है. उनका इतना कहते ही उनके ऊपर सोशल मीडिया से लेकर कुछ किस्म के नेता हल्ला बोलने लगे.

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                                                          शाहरुख खान के माता-पिता

जिस शख्स के वालिद ने इस्लामिक पाकिस्तान को सेक्युलर भारत के लिए ठोकर मार दी हो उसे आप जलील करेंगे? ये तो सरासर नाइंसाफी है. जरा सोचिए ताज मोहम्मद और उन जैसे बाकी मुसलमानों की मानसिक स्थिति के बारे में जिससे इन्हें गुजरना पड़ा होगा जब इन्होंने भारत आने का फैसला लिया होगा. जब मुल्क मजहब के नाम पर विभाजित हो रहा था, तब ये उधर का रुख कर रहे थे जो धर्मनिरपेक्ष देश बनने जा रहा था. आमतौर पर यही माना जाता है कि देश बंटा तो भारत के विभिन्न सूबों से मुसलमानों ने पाकिस्तान का रुख कर लिया. हालांकि जितने सरहद के उस पार गए उससे ज्यादा यहीं रहे. उन्होंने इस्लामी राष्ट्र के बजाय धर्मनिरपेक्ष देश का नागरिक बनना पसंद किया. पर, पाकिस्तान के हिस्से के पंजाब और फ्रंटियर प्रांत से ताज मोहम्मद जैसे बड़ी तादाद में मुसलमानों ने तब भारत का रुख किया जब देश साम्प्रदायिकता की आग में झुलस रहा था. जाहिर है, ये कोई सामान्य बात नहीं थी.

पर अफसोस, कि विभाजन के इस पहलू को जाने-अनजाने में नजरअंदाज ही किया गया. देश के बंटवारे के बाद पंजाब के रावलपिंड़ी शहर में तैनात आला अफसर एच.सी.शौरी दिल्ली आ गए थे. वे यहां पर शरणार्थियों के पुनर्वास के लिए स्थापित किए गए सरकारी महकमे में रीहेबिलिटेशन कमिश्नर थे. उन्होंने करीब एक बार एक लेखक को बताया था कि बंटवारे के समय भारत आए मुसलमानों ने अपने लिए सस्ते घरों या दूसरी रियायतें की मांग नहीं की. वे यहां पर आने के बाद अपने कामकाज में लग गए. ये ज्यादातर फ्रंटियर से थे. फ्रंटियर में सरहदी गांधी खान अब्दुलगफ्फार खान का आम अवाम में जबरदस्त प्रभाव था. उनके चलते वहां पर मुस्लिम लीग कभी असरदार पार्टी नहीं बन पाई. वे पक्के गांधीवादी थे. भारत में उन्हें सीमांत गांधी कहकर पुकारा जाता है. उन्होंने कभी भारत का बंटवारा स्वीकार नहीं किया. उन्हीं के विचारों से प्रभावित बहुत से लोग भारत आए. इसी तरह से उस दौर में बहुत से हिन्दू और सिख पड़ोसी अफगानिस्तान चले गए थे.

खैर, शाहरुख खान को राष्ट्रभक्ति का पाठ पढ़ाने वालों उनकी पृष्ठभूमि तो जान लो.

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लेखक

विवेक शुक्ला विवेक शुक्ला @vivek.shukla.1610

लेखक एक पत्रकार हैं.

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