शशि थरूर ने कांग्रेस की भविष्यवाणी कर दी है, राहुल गांधी जो समझें
कांग्रेस (Congress) को लेकर शशि थरूर (Shashi Tharoor) की नयी चेतावनी नक्कारखाने में तूती की एक और आवाज है. ये भले लगता है कि वो राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को अलर्ट करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन सच है कि ये भविष्यवाणी है.
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कांग्रेस (Congress) में गांधी परिवार के आगे सीनियर नेताओं की पूछ भले न हो, लेकिन वो मौके बेमौके नेतृत्व को आगाह जरूर करते रहते हैं. ऐसी बातों का नतीजा भी एक तरह से तय ही होता है, जैसा कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखने वाले नेताओं के साथ हुआ. चिट्ठी के मीडिया में लीक होते ही CWC की मीटिंग बुलायी गयी, लेकिन चर्चा इस बात पर नहीं हुई कि चिट्ठी में लिखा क्या है या कौन से मसले उठाये गये हैं, बल्कि जोर इसी पर लगा कि चिट्ठी लिखने की इनकी हिम्मत कैसे हुई?
बहरहाल, चिट्ठी लिखे जाने का एक फायदा तो लग रहा है कि कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव प्रक्रिया शुरू हो गयी है - और 2021 में पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों से पहले राहुल गांधी की कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में दोबारा धूमधाम से ताजपोशी हो सकती है.
राहुल गांधी फिलहाल बिहार चुनाव में महागठबंधन के लिए वोट मांग रहे हैं - और वो भी तेजस्वी यादव को महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार वैसे ही मान चुके हैं जैसे बीजेपी नीतीश कुमार को बिहार में एनडीए का नेता.
कांग्रेस के सीनियर और काफी पढ़ने और लिखने वाले नेता शशि थरूर (Shashi Tharoor) ने कांग्रेस नेतृत्व का आगाह करते हुए कहा है कि पार्टी को बीजेपी की कार्बन कॉपी बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिये, वरना उसे खत्म होने में वक्त नहीं लगेगा - सवाल ये है कि क्या राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ऐसी बातों को अलर्ट की तरह लेंगे भी?
फोटो कॉपी ओरिजिनल तो हो नहीं सकती
अव्वल तो शशि थरूर ने कांग्रेस को लेकर कोई नयी बात नहीं कही है, लेकिन नये सिरे से और नये माहौल में महत्वपूर्ण जरूर लगती है. वो भी तब जबकि कांग्रेस नेतृत्व पार्टी को राष्ट्रीय राजनीति में खड़ा करने की एक बार फिर कोशिश में जुटा हुआ है.
कांग्रेस की कमान संभालने से पहले बिहार चुनाव राहुल गांधी के लिए एक महत्वपूर्ण सपोर्ट हो सकता है, बशर्ते कांग्रेस का विधानसभा चुनाव में प्रदर्शन नहीं भी सुधरे तो कम से कम 2015 वाले नंबर बरकरार रह जायें. राहुल गांधी के लिए इस बार बिहार चुनाव वैसे ही महत्वपूर्ण है जैसे 2017 में हुआ गुजरात विधानसभा चुनाव. तब चुनाव खत्म होने और नतीजे आने से पहले ही राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद संभाल लिया था - और 2019 के आम चुनाव के नतीजे आने तक कुर्सी पर बैठे रहे.
देखा जाये तो शशि थरूर ने राहुल गांधी का ध्यान उसी चीज की तरफ खींचा है जिस तरह के प्रयोग वो गुजरात चुनाव में कर रहे थे. गुजरात चुनाव से ही राहुल गांधी के सॉफ्ट हिंदुत्व के प्रयोगों की चर्चा होने लगी थी. फिर उनको जनेऊधारी हिंदू और करीब साल भर पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों तक शिव भक्त के रूप में स्थापित करने की कवायद चलती रही.
शशि थरूर राहुल गांधी को उसी चीज से आगाह करने की कोशिश कर रहे हैं - लोहा लोहे को काटता जरूर है, लेकिन ऐसा करने से पहले ये भी सोच लेना चाहिये कि कच्चा लोहा और पक्के लोहे में भी कुछ फर्क होता है. ये सही है कि दुश्मन को दुश्मन के लहजे में ही जवाब देना चाहिये, लेकिन हथियार तो दुश्मन के मुकाबले मजबूत होना चाहिये. ऐसा तो हो नहीं सकता कि दुश्मन जिस हथियार से वार कर रहा है उसी तरह का उससे थोड़ा कमजोर हथियार उसके खिलाफ कारगर भी हो पाएगा. अगर कोई ऐसा करता है तो नतीजे के लिए उसको इंतजार करने की जरूरत नहीं, पहले से ही पता होना चाहिये.
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शशि थरूर की एक नयी किताब आयी है - 'द बैटल ऑफ बिलांगिंग'. किताब को लेकर पीटीआई को दिये इंटरव्यू में शशि थरूर ने कांग्रेस और बीजेपी के फर्क और फ्यूचर को समझाने के लिए 'पेप्सी लाइट' और 'कोक जीरो' का उदाहरण दिया है. ये दोनों ही अपने सामान्य पेयों की तरह ही होते हैं, लेकिन लाइट और जीरो में कैलोरी कम होती है.
शशि थरूर का कहते हैं, 'मैं लंबे समय से यह कहता आया हूं कि पेप्सी लाइट का अनुसरण करते हुए भाजपा लाइट बनाने के किसी भी प्रयास का परिणाम कोक जीरो की तरह कांग्रेस जीरो होगा.'
सच कड़वा होता है. हकीकत को हजम करना भी बड़ा मुश्किल होता है. शशि थरूर की ये सलाहियत भी उसी कैटेगरी में आती है. जिस तरह से कांग्रेस नेतृत्व 23 नेताओं की चिट्ठियों के साथ पेश आया या फिर जब भी कांग्रेस का कोई नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निजी हमले न करने की सलाह देता है और उस पर बाकी सब के सब टूट पड़ते हैं - शशि थरूर के साथ भी वैसा ही होगा. आसानी से समझा जा सकता है.
फिर शशि थरूर अपनी तरफ से कांग्रेस नेतृत्व को आगाह करने की कोशिश कर रहे हैं, 'कांग्रेस किसी भी रूप और आकार में भाजपा की तरह नहीं है तथा हमें ऐसे किसी का भी कमजोर रूप बनने का प्रयास नहीं करना चाहिए जो कि हम नहीं हैं.'
समस्या खुद कांग्रेस ही है, बीजेपी नहीं
कुछ बहुत ही बुनियादी चीजें होती हैं. ये ही शाश्वत होती हैं. कभी पुरानी नहीं पड़तीं. किसी लकीर को छोटी करने के लिए उसे काटना जरूरी नहीं होता, बल्कि एक बड़ी लकीर खींच कर भी वैसा किया जा सकता है - शशि थरूर भी करीब करीब वही बातें कांग्रेस को समझाने की कोशिश कर रहे हैं. अफसोस की बात ये है कि बड़े बड़े दरबारों में छोटी छोटी चीजें समझने की परवाह करता कौन है.
पहले तो कांग्रेस नेतृत्व को लगता था कि उसे टक्कर देने वाला कोई न तो है, न कभी होगा. वरना, मणिशंकर अय्यर थोड़े ही नरेंद्र मोदी के लिए चाय पहुंचाने जैसे काम असाइन कर पाने के बारे में सोच पाते. सत्ता पक्ष की राजनीति की लत ऐसी होती है कि विपक्ष की राजनीति बहुत भारी पड़ती है. कांग्रेस के साथ भी ऐसा ही हो रहा है.
सत्ता हासिल करने की बेसब्री में कांग्रेस गलतियां पर गलतियां करती जाती है. वो हमेशा भूल जाती है कि अभी की कांग्रेस आजादी के दौर की कांग्रेस नहीं है. वो ये भी भूल जाती है कि फिलहाल कांग्रेस के पास इंदिरा गांधी जैसा कोई नेता नहीं है. हो सकता है, ऐसा कोई नेता हो भी लेकिन अगर वो गांधी परिवार का नहीं है तो उसके होने का भी कोई मतलब नहीं है. गांधी परिवार में भी अगर वो राहुल गांधी नही है तो उसके भी होने की कोई अहमियत नहीं है.
2004 और 2014 में सत्ता परिवर्तन की जो लहर पैदा हुई वो करीब करीब एक जैसी थी. करीब करीब दोनों बार ही लोगों को बदलाव की जरूरत महसूस हुई होगी. 2019 के चुनाव में सोनिया गांधी चुनाव में जीत के आत्मविश्वास से लबालब थीं. बोलीं भी, 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी भी अजेय माने जा रहे थे. 2019 में सोनिया गांधी नरेंद्र मोदी को लेकर भी शायद वैसा ही कुछ सोच रही थीं, लेकिन हुआ बिलकुल उलटा.
निश्चित तौर पर 2014 में लोग कांग्रेस के शासन से ऊबने लगे थे. भ्रष्टाचार के ऐसे ऐसे मामले सामने आ रहे थे कि लोग निराश होने लगे थे. ऐसे में नरेंद्र मोदी एक उम्मीद बन करा सामने आये. अच्छे दिनों का सपना दिखाये. लोगों तब वही चाहिये था, मिल गया और कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर बीजेपी को कुर्सी पर बिठा दिये.
अब कांग्रेस उस दिन का इंतजार कर रही है कि कब लोग बीजेपी से नाउम्मीद हों - और लगता है उसी इंतजार में जैसे तैसे वक्त गुजारने की कवायद चल रही है. जब फितरत और हसरत खुद पर भरोसे की जगह ज्योतिषीय छलावों के भरोसे रह जाये तो शशि थरूर जैसे बुद्धिजीवी नेताओं की बातों का कोई मतलब नहीं होता - अगर वो अपना कर्तव्य समझ कर सलाह दे रहे हैं तो उनको भी नेकी कर दरिया में डाल समझ कर भूल जाना चाहिये. असल बात तो यही है कि शशि थरूर ने राहुल और सोनिया गांधी को न तो आगाह किया है और न सलाह दी है - बड़ा सच तो ये है कि शशि थरूर ने कांग्रेस को लेकर ऐसी भविष्यवाणी की है जिसमें शक की गुंजाइश कम ही लगती है.
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