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Updated: 24 जून, 2022 08:46 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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शिवसेना में हुई बगावत (Shiv Sena Crisis) स्वतःस्फूर्त है या प्रायोजित? बहस जारी है. बहस का टॉपिक ये भी है कि पूरे प्रयोजन के पीछे है कौन? प्रायोजक कौन है? कोई एक है या किसी टीम वर्क का नतीजा है?

सवाल तो सीधे बीजेपी पर ही उठ रहे हैं, लेकिन उद्धव ठाकरे भी शक के दायरे से बाहर नहीं लगते. बहस के हर ऐंगल के पीछे अलग अलग लॉजिक है. बीजेपी का हाथ होने को लेकर अलग लॉजिक है. उद्धव ठाकरे की भूमिका को लेकर अलग लॉजिक है.

धीरे धीरे... बारी बारी से, उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) जिस तरह अपने पत्ते एक एक करके खोल रहे हैं, संदेह बढ़ता ही जाता है. खासकर जब संजय राउत अपने नेता की बातों को अपनी स्टाइल में एनडोर्स करते हैं. या अपने नेता के बयान पर ओपिनियन देते हैं.

उद्धव ठाकरे कहते हैं, वो इस्तीफा देने को तैयार हैं. संजय राउत समझाने आते हैं और कहते हैं, वो इस्तीफा नहीं देंगे. उद्धव ठाकरे विधायकों का भावपूर्ण आह्वान करते हैं, लौट आओ. आमने सामने बात करते हैं. तभी संजय राउत 24 घंटे का अल्टीमेटम जारी कर देते हैं. अगर लौट आये तो मुख्यमंत्री की कुर्सी और बंगला कौन कहे, गठबंधन तक तोड़ देंगे. मतलब, वैसे ही जैसे ढाई साल पहले बीजेपी के साथ गठबंधन तोड़ दिया था?

असल बात तो ये है कि उद्धव ठाकरे अपनी आखिरी बाजी भी चल चुके हैं. मुख्यमंत्री पद छोड़ने की पेशकश. शिवसेना अध्यक्ष का पद छोड़ने का प्रस्ताव भी दे चुके हैं. ठीक ऐसी ही बात शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे ने भी बीस साल पहले कही थी. असर ये हुआ कि बाल ठाकरे की बात सुनते ही उनके घर के बाहर शिवसैनिकों का हुजूम उमड़ पड़ा था. उद्धव ठाकरे के मामले में इतिहास नहीं दोहरा सका. बल्कि उनकी इमोशनल अपील के बाद चार और विधायक गुवाहाटी पहुंच गये. उनमें एक उद्धव ठाकरे के बेहद करीबी भी बताये गये. बाद में फिर तीन के पहुंचने की खबर आ गयी.

अब तो ऐसा लगता है, जैसे बस एक ही बात कहना बाकी रह गया लगता हो, 'अगर सारे विधायक एक साथ सामने आकर कहें तो वो बीजेपी ज्वाइन करने तक को तैयार हैं!'

शिवसेना संकट को नाम भले ही बगावत का दिया जाये, लेकिन ये तो महाराष्ट्र में पिछले ढाई साल से चल रहे सत्ता संघर्ष का ही नतीजा है. जैसे बीजेपी को पटखनी देकर गठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री बन गये, घात लगाकर मौके की ताक में बैठी बीजेपी ने 'खेला' कर दिया - और बीजेपी के खेल में उद्धव ठाकरे बुरी तरह फंस चुके हैं.

हाल के ही तेलंगाना दौरे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने परिवारवाद की राजनीति कर रही पार्टियों पर जोरदार हमला बोला था. पारिवारिक राजनीति की खामियां गिनाते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने लोगों से यहां तक अपील कर डाली कि वे ऐसी राजनीति को जड़ से ही उखाड़ कर फेंक दें.

मुद्दा ये नहीं है कि संकट शिवसेना का है. असल बात तो ये है कि शिवसेना के संकट के पीछे बड़ा हाथ बीजेपी का है - अब अगर शिवसेना में हुई बगावत पारिवारिक पार्टियों के लिए कोई अलर्ट है, तो ये समझना जरूरी हो गया है कि अगला नंबर किसका आने वाला है?

क्या परिवारवाद की राजनीति पर तलवार लटक रही है?

हिंदुत्व की राजनीति के खांचे में शिवसेना भले ही ढाई दशक तक बीजेपी की हमसफर रही हो, लेकिन तलाक के ढाई साल बाद ही वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के परिवारवाद की राजनीति के खिलाफ मुहिम की चपेट में आ चुकी है.

uddhav thackeray, narendra modiप्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की परिवारवाद की राजनीति के खिलाफ मुहिम के ताजा शिकार उद्धव ठाकरे हैं - अगला नंबर किसका है?

आप चाहें तो महाराष्ट्र के मौजूदा राजनीतिक संकट को बीजेपी के कांग्रेस मुक्त अभियान और ऑपरेशन लोटस का कॉकटेल वर्जन या किसी कॉम्बो एक्शन के तौर समझने की कोशिश कर सकते हैं. ध्यान रहे कांग्रेस मुक्त अभियान नाम जरूर दिया गया, लेकिन रणनीति कांग्रेस को गांधी परिवार से मुक्ति दिलाने की ही रही.

कांग्रेस तो गांधी परिवार मुक्त होने की कगार पर आ ही चुकी है, लगता है धीरे धीरे सबकी बारी आने वाली है. अभी पिछले ही महीने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के खिलाफ लोगों से परिवारवाद की राजनीति के खिलाफ आगे आने की अपील की थी, लेकिन लगता है पहले शिवसेना ही चपेट में आ गयी.

कांग्रेस के गांधी परिवार मुक्त होने के संकेत तो राहुल गांधी से प्रवर्तन निदेशालय की पूछताछ में मिल ही चुकी है. राहुल गांधी से पांच दिन तक पूछताछ हो चुकी है और ईडी को अब सोनिया गांधी के स्वस्थ होने का इंतजार है - तब तक राहुल गांधी की संभावित गिरफ्तारी की आशंका भी होल्ड पर मान कर चलना चाहिये.

पारिवारिक राजनीति का बेहतरीन नमूना है शिवसेना: जिस फेमिली पॉलिटिक्स पर बीजेपी की नजर है, शिवसेना तो सबसे सटीक उदाहरण है. अगर ऐसा न होता तो आज उद्धव ठाकरे की जगह कोई और नहीं तो राज ठाकरे तो शिवसेना के अध्यक्ष होते ही. आखिर राज ठाकरे ने शिवसेना छोड़ी भी तो इसीलिए क्योंकि बाल ठाकरे ने अपनी राजनीतिक विरासत उद्धव ठाकरे को सौंप दी थी.

जब राज ठाकरे ने मस्जिदों के लाउडस्पीकर के खिलाफ हनुमान चालीसा अभियान चलाया तो पाया गया कि शिवसैनिक भी मन ही मन सपोर्ट में खड़े पाये गये. अगर एकनाथ शिंदे भी आज बाल ठाकरे के हिंदुत्व की बातें कर रहे हैं तो भी शिवसैनिक उनके साथ खड़े नजर आ रहे हैं. अगर ऐसा कुछ नहीं होता तो एकनाथ शिंदे के इलाके ठाणे में शिवसैनिक सड़कों पर नजर आ रहे होते.

आज एकनाथ शिंदे बगावत पर उतर आये हैं तो उसके पीछे एक वजह आदित्य ठाकरे के मुकाबले कम अहमियत मिलना भी है. एकनाथ शिंदे को लगने लगा था कि आदित्य ठाकरे को न सिर्फ अहमियत दी जा रही है, बल्कि वो उनके मामलों में भी दखल देने लगे हैं. फिर तो अलग से कोई रास्ता चुनना ही था, मौका मिला और सदल बल निकल पड़े. अब शिवसेना में कोहराम मचा हुआ है.

अगर एकनाथ शिंदे चुपचाप पड़े होते तो जल्दी उनको आदित्य ठाकरे को नेता मान लेना पड़ता, उनका नंबर आना तो नामुमकिन ही था. अब तो सूत्रों के हवाले से आयी कुछ मीडिया रिपोर्ट से मालूम होता है कि एकनाथ शिंदे की टीम शिवसेना के चुनाव निशान 'तीर-धनुष' पर भी दावा ठोकने की तैयारी कर रहा है.

अभी ऐसा तो नहीं कह सकते कि ये सब अचानक हो जाएगा, वक्त तो लगेगा ही. 2017 के यूपी चुनाव से पहले समाजवादी पार्टी के झगड़े में भी ये मोड़ तब आया था जब पार्टी सिंबल का मामला चुनाव आयोग पहुंचा. तब अखिलेश यादव के दावों पर कोई आपत्ति दर्ज कराता तो वो थे मुलायम सिंह यादव. शिवपाल यादव को भी इंतजार रहा कि बड़े भैया जरूर ऐसा कुछ करेंगे कि वो भी अपने हक से वंचित न हों, लेकिन खेल तो पहले ही हो चुका था. मालूम हुआ मुलायम सिंह यादव की तरफ से कोई आपत्ति दर्ज ही नहीं करायी गयी और साइकिल चुनाव निशान पर मालिकाना हक अखिलेश यादव को मिल गया.

चुनाव निशान की ओनरशिप तय करते वक्त चुनाव आयोग बहुत सारी चीजों पर गौर करता है. मसलन, सर्वमान्य नेता कौन है? चुने हुए प्रतिनिधियों का नंबर किसे साथ खड़ा है? राजनीतिक दल की संपत्तियों का अधिकार किसके पास है? जब चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी में तोड़फोड़ मची थी तो विशेषज्ञों की ऐसी ही राय देखी गयी थी, लेकिन इन सारी चीजों को देखते हुए फैसला होने में तो काफी वक्त लगेगा - फिर एकनाथ शिंदे के शिवसेना के चुनाव निशान पर दावा करने से फायदा क्या होगा?

एकनाथ शिंदे को सबसे बड़ा फायदा ये होगा कि विवाद की स्थिति में चुनाव आयोग सिंबल को होल्ड कर देगा. नतीजा ये होगा कि आयोग के किसी नतीजे तक पहुंचने से पहले कोई चुनाव हुआ तो कोई भी पक्ष चुनाव निशान का इस्तेमाल नहीं कर पाएगा.

क्या थी परिवारवाद की राजनीति के खिलाफ मोदी की अपील: असल में 2024 में बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चैलेंज करने की एक मुहिम तेलंगाना से भी चली है - और मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव एक गैर-बीजेपी गैर-यूपीए मोर्चा खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं. केसीआर अपने मिशन के लिए चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की भी सेवाएं ले रहे हैं. ये बात अलग है कि प्रशांत किशोर खुद ये राय रखते हैं कि कांग्रेस के बगैर कोई भी विपक्षी मोर्चा खड़ा हो ही नहीं सकता.

तेलंगाना में विधानसभा चुनाव तो 2023 में होने हैं, लेकिन राजनीतिक माहौल अभी से ही जोर पकड़ने लगा है. केसीआर की मुश्किल ये है कि वो प्रधानमंत्री मोदी के निशाने पर तो हैं ही, कांग्रेस नेता राहुल गांधी भी उनको घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ते.

मई के आखिर में हैदराबाद पहुंचे प्रधानमंत्री मोदी का कहना था, 'आज 21वीं सदी के भारत के लिए परिवारवाद से मुक्ति, परिवारवादी पार्टियों से मुक्ति एक संकल्प भी है.'

परिवारवाद की राजनीति की खामियां गिनाते हुए, प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि ये सिर्फ कोई राजनीतिक समस्या नहीं है, बल्कि ये देश के लोकतंत्र और युवाओं की सबसे बड़ी दुश्मन है. बोले, 'तेलंगाना के लोग देख रहे हैं कि जब एक परिवार को समर्पित पार्टी सत्ता में आती हैं, तो कैसे उस परिवार के सदस्य भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा चेहरा बन जाते हैं.

मोदी की समझाइश रही कि परिवारवाद की राजनीति में नेता अपने सिर्फ अपने विकास पर जोर देते हैं, अपने परिवार के लोगों की तिजोरियां भरते हैं. मोदी ने समझाया, 'जहां-जहां परिवारवादी पार्टियां हटी हैं, वहां वहां विकास के रास्ते भी खुले हैं... अब इस अभियान को आगे बढ़ने की जिम्मेदारी तेलंगाना के मेरे भाइयों बहनों की है.'

अगला नंबर किसका होगा

एक विदेशी कार्यक्रम में राहुल गांधी ने परिवारवाद की राजनीति को भारतीय राजनीति का हकीकत माना था और दूसरे क्षेत्रों का उदाहरण देते हुए बचाव भी किया था. सच तो ये है कि कांग्रेस और शिवसेना ही नहीं महाराष्ट्र की राजनीति में एनसीपी भी तो वैसी ही राजनीति करती आ रही है. शरद पवार के बाद अगर एनसीपी में किसी का नंबर आता है, तो वो उनकी बेटी सुप्रिया सुले या भतीजे अजित पवार का ही आता है.

वास्तविकता तो ये है कि उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूरब से लेकर पश्चिम तक हर इलाके में परिवारवाद की राजनीति का ही तो बोलबाला है. क्या जम्मू-कश्मीर में अब्दुल्ला परिवार और मुफ्ती परिवार कोई अलग राजनीति करते हैं?

ये मुलायम सिंह यादव या लालू यादव ही नहीं हैं, ममता बनर्जी और मायावती की राजनीति भी तो उसी रास्ते पर आगे बढ़ रही है. ममता बनर्जी के बाद तृणमूल कांग्रेस में अभिषेक बनर्जी को बिठा दिया गया है, ठीक वैसे ही मायावती धीरे धीरे आकाश आनंद को स्थापित करने में जुटी हैं. तमिलनाडु में मुख्यमंत्री एमके स्टालिन भी तो अपने पिता एम. करुणानिधि की ही डीएमके की राजनीतिक विरासत संभाल रहे हैं.

नीतीश कुमार जरूर इस मामले में अपवाद हैं, लेकिन बीजेपी को जिन क्षेत्रीय दलों का सपोर्ट मिलता रहा है या अभी मिल रहा है, वे भी तो परिवारवाद की ही राजनीति करती हैं. बीजेपी भले परिवारवाद की राजनीति के खिलाफ मुहिम चलाये, लेकिन वो भी आगे बढ़ने के लिए उन सीढ़ियों का ही इस्तेमाल करती है. शिवसेना की ही तरह अकाली दल का बादल परिवार भी तो है.

अभी राष्ट्रपति चुनाव में ही बीजेपी के साथ खड़े हुए नवीन पटनायक भी तो अपने पिता बीजू पटनायक की विरासत संभालने के लिए ही राजनीति में आये. जब कामकाज संभाला तो उड़िया भाषा भी नहीं बोल पाते थे - और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी भी तो अपने पिता वाईएसआर रेड्डी की बदौलत राजनीति चमका पाये हैं. ये बात अलग है कि ऐसा करने के लिए पहली लड़ाई उनको गांधी परिवार से ही लड़नी पड़ी थी - और जगनमोहन रेड्डी को दिल्ली दरबार में यही समझाने की कोशिश की जाती रही कि कांग्रेस नेतृत्व परिवारवाद को प्रश्रय देने के पक्ष में नहीं है.

अभी तक बीजेपी नेतृत्व विरासत की राजनीति संभालने वालों को एक ही लाइन पर संबोधित करता रहा है. जैसे राहुल गांधी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी युवराज कहा करते थे, 2020 के बिहार चुनाव में लालू यादव के बेटे तेजस्वी यादव को जंगलराज का युवराज कह कर बुलाया था. ठीक वैसे ही पश्चिम बंगाल चुनाव में बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी को राजकुमार कह कर संबोधित करते थे.

अभी तो उद्धव ठाकरे की राजनीति और आदित्य ठाकरे का भविष्य दांव पर लगा हुआ है, लेकिन जल्दी ही देश के दूसरे राज्यों में भी ऐसे ही नजारे देखने को मिलने वाले हैं. ये भी जरूरी नहीं कि ये सब किसी बीजेपी विरोधी पार्टी को सत्ता के हटाने के लिए ये सब हो रहा हो - मान कर चलना चाहिये कि बीजेपी के राजनीतिक विरोधी पार्टियों में ऐसी तोड़पोड़ आम बात होने वाली है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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