शिवसेना का 50-50 फार्मूला मतलब बीजेपी से जितना ज्यादा मिल जाए
महाराष्ट्र में बीजेपी ना मुख्यमंत्री पद छोड़ेगी, ना गृह या वित्त विभाग. अगर शिवसेना आवाज न उठाए तो राजस्व, कृषि, नगर विकास भी बीजेपी अपने पास ही रख लेगी. इसलिये दबाव बनाना शिवसेना की जरुरत है.
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वैसे तो महाराष्ट्र में शिवसेना-बीजेपी गठबंधन की विजय हुई है. उन्हें पूर्ण बहुमत मिला है, चूंकि ये चुनाव पूर्व गठबंधन था, हम ये कह सकते हैं कि इस गठबंधन ने कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन को हराकर एक बार फिर सत्ता काबिज कर ली है. लेकिन इसके बावजूद विजेता गठबंधन की ओर से दो दृश्य नहीं दिखाई दिये. पहला जीत के बाद एक दूसरे को गले लगाकर पेठा (मिठाई) खिलाते हुए और साथ मिलकर राज्यपाल के सामने सरकार बनाने का दावा पेश करते हुए. पहली बार ऐसा हुआ होगा कि जीतने के बाद भी कोई सरकार बनाने के लिये समय ले रहा हो.
नतीजे ऐसे आये हैं कि महाराष्ट्र में हर पार्टी खुश हुई है. लेकिन बीजेपी के लिये खुश होने के साथ साथ चिंता भी थी. दरअसल बीजेपी की कोशिश ये थी किसी तरीके से 130 तक सीटे मिले या फिर 2014 का प्रदर्शन दोहराये, और बाकी बचीकुची सीटें निर्दलीय और अन्य दलों से लेकर बहुमत के आंकड़े के पांस पहुच जाये. ताकि शिवसेना के पास जाने की जरूरत ही ना पड़े. और फिर बाद में एक बड़े भाई की भूमिका दिखाते हुए बड़प्पन का अहसास करा कर शिवसेना को कुछ मंत्रिपद देकर मामला रफादफा कर दे. लेकिन बीजेपी की इस योजना को विदर्भ में ही झटका लगा और वो 105 पर ही सिकुड़ कर रह गई.
शिवसेना की कोशिश थी कि मोदी लहर पर विराजमान होकर, प्रशांत किशोर के मार्गदशन में अपना स्ट्राइक रेट सुधारे और फिर बीजेपी के पास बड़ी मांगें रखे. लेकिन बीजेपी के साथ शिवसेना की सीटें भी घटी. अब किस्मत ने दोनों को कहा है कि एक बार फिर एक दूसरे पर हावी हुए बिना गृहस्थी चलाओ.
शिवसेना इस बार कम से कम कुछ मांगने की स्थिति में है. 2014 में फडणवीस ने जो झोली में डाला वो लेकर उद्धव उनके साथ हो लिये थे. लेकिन इस बार उन्होंने अपने विधायकों को कह दिया है कि उन्हें कोई जल्दी नहीं है. साथ में यह भी कह दिया है कि कोई ये मत भूले कि पार्टी बदलने वालों को जनता अब पसंद नहीं करती है. शायद इशारा था उन अटकलों पर, कि जरूरत पड़े तो बीजेपी शिवसेना ही तोड़ सकती है. लेकिन ये स्थिति क्यों बनी है? क्या शिवसेना नई स्थिति का फायदा उठा रही है? नहीं ये पूरा सच नहीं है. दरअसल वो बीजेपी को उन्हीं का वचन याद दिला रही है. सत्ता का बंटवारा आधा-आधा. शिवसेना और बीजेपी दोनों को पता है कि लोकसभा और विधानसभा में बीजेपी ने सीटों का बंटवारा आधा आधा करने का वचन नहीं निभाया है. लोकसभा में बीजेपी को मिले अपार बहुमत के कारण वो शिवसेना चुप बैठी रही, लेकिन विधानसभा चुनाव में बात अलग है.
लोकसभा से विधानसभा चुनाव नतीजे तक शिवसेना की आवाज में ताकत तो आई है, लेकिन बीजेपी का हाथ अब भी ऊपर ही है.
दरअसल उद्धव ठाकरे अस्तित्व में रहने की राजनीति करते रहे हैं. उन्हें पता है कि समय बदल गया है. उनके पास बालासाहब का करिश्मा और शक्ति नहीं है. लेकिन सामंजस्य की राजनीति वो सहज तरीके से कर सकते हैं. बीजेपी के साथ उन्होंने 2014 के बाद यही राजनीति की है. एक तरफ तो बीजेपी को उन्होंने खूब खरी-खोटी सुनाई लेकिन दूसरी तरफ सत्ता से कभी बाहर भी नहीं निकले. इस बार भी उन्हें पता है कि नई बीजेपी (मोदी, शाह की) उन्हें कभी मुख्यमंत्री पद नहीं देगी. खासकर तब जब दोनों के बीच सीटों का फासला 50 का है. 1995 में पहली बार शिवसेना-बीजेपी की सरकार बनी थी, लेकिन उस फार्मूले के तहत अब सरकार बनना मुश्किल है. क्योंकि तब दोनों के बीच जीती हुई सीटों का अंतर महज 7 से 8 सीटों का था. समझौता हुआ था कि सबसे ज्यादा सीटें पाने वाली पार्टी को मुख्यमंत्री पद मिलेगा, तो दुसरे को उपमुख्यमंत्री पद और साथ में गृह, वित्त जैसे अहम विभाग. आज की स्थिति में बीजेपी ना मुख्यमंत्री पद छोड़ेगी, ना गृह या वित्त विभाग. अगर शिवसेना आवाज न उठाए तो बाकी अहम विभाग जैसे राजस्व, कृषि, नगर विकास भी बीजेपी अपने पास ही रख लेगी. इसलिये दबाव बनाना शिवसेना की जरुरत है.
दूसरी अहम बात आदित्य की. पहले ठाकरे जो विधानभवन में आयेंगे. ऐसे में उद्धव की मंशा होगी कि आदित्य का नया अवतार कुछ अच्छे दमखम वाला नजर आए. उन्हें भलीभांति पता है कि बीजेपी अपना वचन समय और जरुरत पड़े तो ही पूरा करती है. लेकिन बीजेपी से अपना वचन हाथ मरोड़ कर पूरा ना करवा पाना शिवसेना की छवि के लिए नुकसानदेह भी हो रहा है.
उद्धव चाहेंगे कि आदित्य के रूप में पहला ठाकरे विधान भवन पहुंचे, तो जरा शान से.
मजे की बात तो यह है कि 2014 में एनसीपी ने शिवसेना की सत्ता में हिस्सेदारी का खेल बिगाड़ दिया था. याद होगा कि बीजेपी को बाहर से बिना मांगे समर्थन का ऐलान कर एनसीपी ने शिवसेना की ताकत छीन ली थी. इस बार भी बिना पूछे सत्ता के बाहर रहने का ऐलान कर एनसीपी ने फिर शिवसेना को बीजेपी से बात करने पर मजबूर कर दिया है. लेकिन दूसरी तरफ शिवसेना को साथ लेकर सरकार बनाने के लिये बीजेपी भी मजबूर है. सरकार बन भी जायेगी. लेकिन दोनों सहयोगियों के बीच अविश्वास की जबर्दस्त खाई है. अगर 1995 की स्थिति नहीं है तो 2014 की भी स्थिति नहीं है. पिछले पांच साल की तरह बीजेपी भी अपने दम पर सरकार आसानी से नहीं चला पायेगी. मजबूत बनकर उभरे विपक्ष को अच्छा मौका रहेगा. उसे अपना वर्चस्व बनाये रखने का मौका भी मिल सकता है. लेकिन इसके बावजूद एक बात समझ में नहीं आती, कि अगर निभाना नहीं था तो सत्ता में आधी हिस्सेदारी का वादा बीजेपी ने किया ही क्यों?, और मालूम था कि बीजेपी वादा आधा ही पूरा करेगी तो शिवसेना ने भी मुख्यमंत्री पद का सपना देखा ही क्यों?
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