शिवपाल और अखिलेश की मुलाकात में घर वापसी जैसी बात क्यों नहीं?
शिवपाल यादव (Shivpal Yadav) की जो हालत हो रखी थी, अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) के साथ मुलाकात में चुनावी गठबंधन (Poll Alliance) हो जाने से निश्चित तौर पर उसमें सुधार आएगा - लेकिन क्या ये रिश्ता चुनाव बाद भी चलता रहेगा, फिलहाल बड़ा सवाल यही है.
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अखिलेश यादव और शिवपाल यादव (Shivpal Yadav) में पूरे पांच साल बाद मुलाकात हुई, बात भी हुई - और 45 मिनट में डील भी पक्की हो गयी. हालांकि, ये डील पक्की करायी है किरणमय नंदा ने. समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने खुद ही ट्वीट कर प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) के साथ चुनावी गठबंधन (Poll Alliance) की जानकारी दी है.
किरणमय नंदा भी अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी में करीब करीब वही हैसियत और रुतबा रखने लगे हैं जो मुलायम सिंह के दौर में अमर सिंह को हासिल रहा. किरणमय नंदा समाजवादी पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष हैं, जबकि अमर सिंह महासचिव हुआ करते थे.
चाचा से मुलाकात के बाद अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) ने जो ट्वीट किया है, उसका लहजा भी पेशेवराना ही लगता है, पारिवारिक तो कतई नहीं - और तस्वीर में जो हाव-भाव दोनों नेताओं ने स्वाभाविक तौर पर प्रकट किया है - वो भी काफी औपचारिक लगता है. जैसे तल्खी और अकड़ दोनों तरफ से बरकरार हो.
बहरहाल, चुनावी गठबंधन तो हो गया, आगे किसे कितना फायदा हो सकता है - अब देखने और समझने वाली बात भी यही है. बेशक शिवपाल यादव साथ आकर भी अखिलेश यादव को कोई खास फायदा न पहुंचा पायें, लेकिन ये तो है ही कि छोटे छोटे नुकसान बचाये ही जा सकते हैं.
कैसी रही 45 मिनट की मुलाकात
समाजवादी पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन के मकसद से मिलने के लिए लोग अखिलेश यादव के पास ही आते रहे हैं, फिर भी ये जरूरी नहीं होता कि डील फाइनल हो ही जाये. कई मीटिंग के बाद भी मालूम होता है कि बात आगे बढ़ ही नहीं रही है - लेकिन शिवपाल यादव के साथ एक ही मुलाकात में सौदा पक्का हो गया.
ट्विटर वाली तस्वीर क्या कहती है: बाकी सभी मुलाकातों से अखिलेश यादव और शिवपाल यादव की मुलाकात बिलकुल अलग रही. होना भी ऐसा ही चाहिये. आखिर रिश्ता भी तो कुछ कहलाता ही है.
शिवपाल यादव के केस में आदर भाव की खास बात ये भी रही कि अखिलेश यादव खुद चाचा के घर मिलने गये थे. अखिलेश यादव ने शिवपाल यादव के पांव छुए तो चाचा ने भतीजे को गले लगा लिया - और बताते हैं कि भावुक भी हो गये थे. ये भी स्वाभाविक है.
मान कर चलना चाहिये कि भावुक होना निहायत ही निजी और पारिवारिक रिश्तों के दायरे में रहा होगा - हालांकि, मुलाकात के बाद अखिलेश यादव का ट्वीट ऐसी किसी भी समझ का सपोर्ट नहीं करता.
क्या अखिलेश यादव को साइकिल की चाबी मिल गयी है?
ये तस्वीर भी वैसे ही संदेश देती है जैसी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लखनऊ दौरे में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कंधे पर हाथ रखे देखा गया था. अखिलेश यादव की ट्वीट की हुई तस्वीर भी अलग तरह के ही इशारे करती है.
तस्वीर में शिवपाल यादव एक सीढ़ी ऊपर खड़े हैं. अखिलेश यादव फर्श पर खडे़ देखे जा सकते हैं. चूंकि अखिलेश यादव घर से निकल कर बाहर जाने वाले हैं, इसलिए सारी सीढ़ियां उतर चुके हैं, लेकिन शिवपाल यादव नीचे नहीं उतरते.
ज्यादा कुछ नहीं तो ये एक सीमा रेखा की झलक तो दिखा ही रहा है. वैसे तो अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री रहते शिवपाल यादव उनके कैबिनेट सहयोगी रह चुके हैं, लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव से पहले चले झगड़े में मुलायम सिंह यादव की तरफ से बेटे को बार बार आगाह करते देखा गया था - पार्टी टूट जाएगी. पार्टी तो नहीं टूटी, शिवपाल यादव जरूर टूट गये - और सत्ता से बेदखल होने का भी कोई मतलब है तो अखिलेश यादव का हाल भी बेहतर तो नहीं ही कहा जाएगा.
ट्विटर पर जो लिखा उसके मायने: चाचा से मिलने के बाद चुनावी गठबंधन की जानकारी अखिलेश यादव ने ट्विटर पर दी है, लेकिन संबोधन का अंदाज बिलकुल पेशेवराना है, पारिवारिक तो कतई नहीं कहा जाएगा.
अखिलेश यादव ने ट्विटर पर लिखा है - "प्रसपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जी से मुलाकात हुई और गठबंधन की बात तय हुई. क्षेत्रीय दलों को साथ लेने की नीति सपा को निरंतर मजबूत कर रही है और सपा और अन्य सहयोगियों को ऐतिहासिक जीत की ओर ले जा रही है.'
कह सकते हैं कि अखिलेश यादव ने शिवपाल यादव के अलग राजनीतिक अस्तिव को स्वीकार किया है - और एक गठबंधन पार्टनर वाली इज्जत बख्शी है, लेकिन उन सारी बातों को काफी पीछे छोड़ दिया है जो दोनों को अपने जड़ों से जोड़ती हैं.
मुलाकात का नफा-नुकसान क्या हो सकता है
किसी तरह का नुकसान बचा लेना भी फायदे की कैटेगरी में ही आता है. अखिलेश यादव की तरफ से सोचें तो शिवपाल यादव के साथ गठबंधन का पहला मकसद यही लगता है - चाचा के साथ चुनावी गठबंधन करके अखिलेश यादव ने ये सुनिश्चित करने की कोशिश की है कि समाजवादी पार्टी का यादव ओबीसी वोट बंटने न पाये. नतीजे जैसे भी आयें, कोशिश तो फिलहाल यही लगती है.
शिवपाल यादव की भूमिका बदल जाएगी: हाल फिलहाल अखिलेश यादव सार्वजनिक मंचों से ये कहते सुने गये थे कि चाचा का पूरा सम्मान होगा - और ये दावा भी कि राजनीतिक लड़ाई में चाचा-भतीजा साथ साथ होंगे. हुआ तो वही है.
शिवपाल यादव भी अब अक्सर कहने लगे थे कि समाजवादी पार्टी के साथ जाने में उनको कोई दिक्कत नहीं है. 2007 में जब मायावती मुख्यमंत्री बनीं तो मुलायम सिंह यादव ने शिवपाल यादव को विपक्ष का नेता बनाया था. जैसे अखिलेश यादव ने फिलहाल ये जिम्मेदारी राम गोविंद चौधरी के सौंपी हुई है.
2017 के विधानसभा चुनावों के पहले हुए पारिवारिक झगड़े के बाद शिवपाल यादव ने अलग रास्ता अख्तियार कर लिया - और फिर 2018 में प्रगतिशील समाजवादी पार्टी भी बना ली. 2019 के आम चुनाव में शिवपाल यादव ने अपने उम्मीदवार भी उतारे थे - और समझा गया कि नुकसान अखिलेश यादव को ही हुआ.
देखा जाये तो चुनावों में पिछले पांच साल के दौरान अखिलेश यादव के लिए शिवपाल यादव की भूमिका वोटकटवा की ही रही है, लेकिन अब ये बदल सकती है और मुमकिन है वो अपने समर्थकों के वो वोट भी ट्रांसफर कराने वाली भूमिका में आ जाये.
किसे ज्यादा जरूरत थी: नफे-नुकसान के हिसाब से सोचें तो ऐसे समझौतों में थोड़ी ही सही लेकिन म्युचुअल फायदे की संभावना जरूर होती है. जरूरत के हिसाब से देखें तो पूरे पांच साल शिवपाल यादव सिर्फ इस्तेमाल होते रहे - हासिल के नाम पर बीजेपी सरकार की तरफ से शिवपाल को वो बंगला मिला जरूर था जो कभी मायावती के पास हुआ करता था.
आम चुनाव में भी शिवपाल ने हाथ पांव मारे ही थे, जिसमें खुद का फायदा तो होने से रहा - अखिलेश यादव का ही वोट कटा था. आगे से ऐसा नहीं होगा, बाकियों को न सही दोनों को कम से कम ये तो लगता ही होगा.
ये गठबंधन कब तक चलेगा: चुनावी गठबंधनों के हिसाब से देखा जाये तो अखिलेश यादव का बहुत ही बुरा अनुभव रहा है. यही वजह है कि कांग्रेस और बीएसपी से गठबंधन टूटने के बाद अखिलेश यादव ने बड़े दलों के साथ चुनावी गठबंधन से तौबा करने का फैसला किया - और इससे छोटे दलों के लिए गठबंधन का रास्ता साफ हो गया. शिवपाल यादव को भी इसी कैटेगरी में एंट्री मिली है.
अब अगर सवाल ये है कि दोनों में गठबंधन के सहारे की ज्यादा जरूरत किसे रही होगी. जाहिर है अखिलेश यादव को भी जरूरत तो थी ही, लेकिन शिवपाल यादव के सामने तो राजनीतिक अस्तित्व बचाने जरूरत आ पड़ी थी - क्योंकि वो किसी भी पैमाने में फिट नहीं हो पा रहे थे. अब पिछले पांच साल जैसा हाल तो नहीं ही रहेगा.
'चाबी' मिल गयी क्या
अखिलेश यादव को लगता है कि साइकिल अकेले रफ्तार नहीं पकड़ पा रही है. पांच साल पहले यही सोच कर अखिलेश यादव ने साइकिल की रफ्तार बढ़ाने के लिए कांग्रेस के हाथ का सहारा लिया था, लेकिन कुछ भी हाथ न लगने पर समाजवादी नेता ने अपना ही हाथ पीछे खींच लिया.
पहले राहुल गांधी और फिर 2019 में मायावती के साथ खट्टे अनुभव के बाद अखिलेश यादव ने पहले ही बोल दिया था कि वो सिर्फ छोटे दलों के साथ ही चुनावी गठबंधन करेंगे - और अब उसी रास्ते पर धीरे धीरे आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं.
गठबंधन के लिए मिलने वालों में भीम आर्मी वाले चंद्रशेखर आजाद की ही तरह आम आदमी पार्टी सांसद संजय सिंह भी रहे, लेकिन मामला किसी नतीजे तक नहीं पहुंच सका. अब तो आम आदमी पार्टी की तरह से सभी सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा हो चुकी है - और मान कर चलना चाहिये कि भीम आर्मी भी 403 सीटों पर चुनाव लड़ने के अपने पहले के फैसले पर कायम रहेगी - यानी दोनों में से किसी को भी अखिलेश यादव ने गठबंधन के लायक नहीं समझा है.
शिवपाल यादव से पहले अखिलेश यादव आरएलडी वाले जयंत चौधरी और बीजेपी के पुराने साथी ओम प्रकाश राजभर के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन किया है - और प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) के साथ तीसरा प्रमुख गठबंधन हुआ है.
पांच साल बाद चुनावी गठबंधन करके जो शिवपाल यादव को मिल रहा है - क्या समाजवादी पार्टी में ही बने रहते तो भी इतना ही मिलता? बेशक चुनावों में गठबंधन साथी नहीं होते, लेकिन पार्टी में कद और दबदबा तो ज्यादा ही रहता. अगर रामगोपाल यादव से तुलना करें तो भी ज्यादा ही रहता. लालच बुरी बला है - ये राजनीति में नहीं चलता, लेकिन राजनीतिक फैसलों के चलते ऐसे नफा-नुकसान तो झेलने ही पड़ते हैं.
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