शिवसेना में उत्पात की विरासत
आदित्य ठाकरे के मुंबई में नाइटलाइफ़ के समर्थन में उतरने के बाद लगा था कि वंशवाद ही सही, लेकिन शिवसेना की ये नई पीढ़ी अपने साथ नए विचार और नई स्फूर्ति लेकर आई है. लेकिन सिर्फ कुछ दिनों में ही ये स्पष्ट हो गया कि कहानी ज्यों की त्यों है...
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शिवसेना ने आज BCCI, मुंबई के ऑफिस में घुस कर जम कर हंगामा किया. शायद शिव-सैनिक पिछली बार की तरह काली स्याही ले जाना भूल गए, नहीं तो आज फिर से पूरी दुनिया को भारत का काला चेहरा देखने को मिलता, वैसे ही जैसे पिछले हफ्ते सुधीन्द्र कुलकर्णी का हुआ था.
गुलाम अली का कॉन्सर्ट कैंसिल करने के बाद शिवसेना एक बार फिर से अपनी पुरानी राजनीति पर उतर आई है. भाजपा जो उसकी सत्ता की साझीदार होने के साथ साथ सबसे बड़ी प्रतिस्पर्धी भी है, पशोपेश में है. गौ-मांस की राजनीति के साथ भाजपा अपने हिन्दुत्ववादी एजेंडे को लेकर काफी आगे निकल गई तो शिवसेना पीछे क्यों रहे, अपने पाकिस्तान विरोध के नारे को रिन्यू कर वो एक बार फिर से रेस के मैदान में है. शिवसेना के नेताओं के पास महाराष्ट्र के किसानों की आत्म- हत्या, दालों के बढ़ते भाव, आम आदमी और ख़ास तौर से मुम्बईकर की परेशानियोँ के लिए प्रदर्शन करने का समय नहीं है. आश्चर्यजनक रूप से उनकी राजनीति आम आदमी की रोज़मर्रा परेशानियों से हमेशा दूर ही रहती है. ऐसा लगता है जैसे शिवसेना सिर्फ विरोध की ही राजनीति जानती है, चाहे भले ही सरकार उन की ही क्यों न हो.
आदित्य ठाकरे के मुंबई में नाइटलाइफ़ के समर्थन में उतरने के बाद लगा था कि वंशवाद ही सही, लेकिन शिवसेना की ये नई पीढ़ी, अपने साथ नए विचार और नयी स्फूर्ति लेकर आई है. लेकिन सिर्फ कुछ दिनों में ही ये स्पष्ट हो गया की कहानी ज्यों की त्यों है. शिवसैनिक पहले भी क्रिकेट की पिच ही खोद रहे थे और तीन पीढ़ियाँ गुजरने के बाद भी उनके क्रिकेट की पिच को खोदने की परम्परा बदस्तूर ज़ारी है.
लेकिन ये कहानी सिर्फ शिवसेना की ही नहीं है, भाजपा में भी यही कहानी है, जहां मोदी विकास, डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया, फेसबुक, ट्विटर की बात करते हैं, वहीँ भाजपा के अंतर्निहित संघी संस्कार सर चढ़ कर उत्पात मचाने लगते हैं और देश सब कुछ भूल कर 'गाय' के बारे में सोचने लग जाता है. कल तो मैंने भाजपा के एक नेता को यहाँ तक कहते सुना कि 'हिंदुत्व' में 'विकास' अंतर्निहित है, मतलब अब विकास भूल जाएँ और हिंदुत्व को अपनाएँ, बाकी सब अपने आप हो जाएगा. उधर, सपा के सुप्रीमो मुलायाम सिंह ने भी अखिलेश यादव के लड़कियों को लैपटॉप बांटने वाले कदम को ग़लत बताया था. कांग्रेस में भी राहुल गांधी ने माना था कि उनकी पार्टी कहीं न कहीं नयी पीढ़ी से जुड़ने में असफल रही और यही उनकी हार का कारण बना, उन्होंने यहाँ तक कहा था कि युवाओं से कैसे जुड़ें, ये हमें आम आदमी पार्टी से सीखना चाहिए. आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार कल को सफल होगी या असफल, ये तो आने वाला वक़्त ही बताएगा लेकिन मेरी समझ में ये नहीं आता कि इस देश की पुरानी राजनीतिक पार्टियां जिनके पीछे इतना मज़बूत जन-संगठन खड़ा है, इस बात क्यों नहीं समझ रहीं कि उनकी पुरानी राजनीति के दिन अब लद गए हैं.
क्या शिवसेना और उन की ही तरह की अन्य पार्टियों के नेताओं ने ये कभी सोचा है कि उनकी इस तरह की हरकतें अब युवाओं की कल्पनाओं को पकड़ने में एकदम असफल साबित होंगी, कि उनके पुराने जंग लगे फार्मूले बेकार होते जा रहे हैं और कुछ दिनों में वो पूरी तरह काम करना बंद कर देंगे.
देश बदल रहा है. देश का युवा गली, मोहल्ले, शहर, राज्य, जाति, धर्म और भाषा की सीमा से निकल कर एक ग्लोबल सिटीजन बनना चाह रहा है. वो अपने आस पास की दुनिया से बेखबर नहीं है और इनफॉर्मेशन के इस दौर में उसे भरमाना पहले जैसा आसान भी नहीं है. युवा निरंतर बदलाव चाह रहा है और वो बहुत ही व्यक्तिगत सोच और सपने रखता है. वो आप के खोखले राष्ट्रवाद, राज्यवाद, जातिवाद, भाषावाद, हिन्दूवाद, मुस्लिमवाद के नारों में फंसने नहीं वाला. आप की धर्म की राजनीति, गाय की राजनीति, पाकिस्तान विरोध की राजनीति आपको हेडलाइंस तो दिला ले जायेगी लेकिन वोट कभी नहीं दिला पाएगी.
मोदी जी ये बात जानते थे, तभी उन्होंने गोधरा की यादें मिटाने में एडी-चोटी का जोर लगा दिया और युवाओं को विकास, गुजरात मोडल, अच्छे दिनों का झुनझुना दिखाया लेकिन अब उन्ही के कुछ नेताओं ने ऐन बिहार चुनाव से पहले सब गुड गोबर कर दिया. गाय- गोबर भी कह सकते हैं.
विकास की जगह गाय को मुद्दा उठाना बीजेपी को कितना भारी पडा है, ये तो आने वाले समय बता ही देगा.
आम आदमी पार्टी की सफलता या असफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वो युवा आकांक्षाओं को पूरा कर पाते हैं या नहीं, लेकिन जब रातों रात आ कर एक पार्टी दिल्ली की कुर्सी पर काबिज़ होती है तो बाकी पार्टियां इस बात से ये सीख सकती हैं कि अब उन को बदलने की ज़रुरत है, उन्हें अपनी असुरक्षा की भावना से बाहर आ कर नए प्रयोग करने की ज़रुरत है, युवा से जुड़ने की ज़रुरत है, उनके सपनों को समझने को ज़रुरत है, और अपनी पार्टी की कमान युवा पीढ़ी को सौंपने की ज़रुरत है.
सच मानिए, हम भी रुके हुए सड़े पानी जैसी बदबूदार राजनीति देख और सुन कर बुरी तरह पक चुके हैं.
(और बधाई हो, ये आर्टिकल लिखते लिखते इंजीनियर राशिद का चेहरा काली स्याही से रंगा चुका है)
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