भारत में मुस्लिम पीएम की बात करने वाले हमेशा 'कलाम' को क्यों भूल जाते हैं?
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम (APJ Abdul Kalam) भारत के उस असली सेकुलरिज्म और कौमी एकता के परिचायक थे. जिसे आज मुस्लिमों (Muslim) में असुरक्षा की भावना भड़काकर खत्म करने की कोशिश की जा रही है. लेकिन, भारत में मुस्लिम पीएम (Muslim PM) की बात करने वाले कलाम का जिक्र नहीं करना चाहते हैं.
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सोशल मीडिया पर 'मुस्लिम पीएम' हॉट ट्रेंड टॉपिक बना हुआ है. दरअसल, वरिष्ठ पत्रकार प्रीतिश नंदी ने एक ट्वीट कर लिखा था कि 'एक भारतीय मूल की महिला अमेरिकी उपराष्ट्रपति है. एक भारतीय मूल के शख्स के पास ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनने का मौका है. लेकिन, क्या कभी भारत में पैदा हुआ मुस्लिम दोबारा देश का प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बन पाएगा? क्या आप हर सात भारतीयों में से एक को उच्च राजनीतिक पद के लिए अपात्र बना सकते हैं? मैं यहां एक साधारण सा सवाल पूछ रहा हूं. क्या ऐसी पदों के लिए योग्यता की कोई भूमिका नहीं रह जाती है? या हम जाति, लिंग, आस्था और क्षेत्रीय पहचान के विचारों के आगे झुकते रहेंगे?'
प्रीतिश नंदी के इस ट्वीट पर स्वतंत्र पत्रकार और एक्टिविस्ट राणा अयूब ने भी इस पर अपनी राय देते हुए लिखा कि 'भारतीय इतिहास में पहली बार एक भी मुस्लिम सत्ता पक्ष का सांसद नहीं है. सत्तारूढ़ दल की ओर से एक पूर्व उपराष्ट्रपति को उनके मुस्लिम होने की वजह से अपमानित किया जा रहा है. प्रधानमंत्री तो दूर की बात है.' फिलहाल मुस्लिम पीएम सोशल मीडिया ट्रेंड बना हुआ है. और, इस पर अलग-अलग प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं. लेकिन, प्रीतिश नंदी द्वारा की गई तुलना से लेकर राणा अयूब की टिप्पणी तक में कुछ अहम खामियां हैं. और, यहां अहम सवाल ये है कि मुस्लिम पीएम की बात करने वाले हमेशा 'कलाम' का जिक्र क्यों भूल जाते हैं?
एपीजे अब्दुल कलाम का जिक्र उन सभी एजेंडों को खत्म कर देता है, जो मुस्लिमों के नाम पर चलाए जा सकते हैं.
अचानक से क्यों याद आए मुस्लिम?
प्रीतिश नंदी को भारत में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव के बीच अचानक से मुस्लिमों की याद आना उनके एजेंडा को स्पष्ट करने के लिए काफी है. दरअसल, बीते कुछ सालों में या यूं कहें कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही भारत में मुस्लिम समुदाय के बीच असुरक्षा की भावना को बढ़ाने का काम लगातार जारी है. एआईएमआईएम चीफ असदुद्दीन ओवैसी जैसे नेताओं से लेकर राणा अयूब जैसे एक्टिविस्ट छोटी सी घटना में भी मुस्लिम विरोधी एंगल खोजकर भारतीय मुसलमानों में इस असुरक्षा की भावना को और मजबूत करने में लगे हुए हैं. जबकि, भारत में ही एपीजे अब्दुल कलाम जैसे राष्ट्रपति भी हुए हैं. जो लोकप्रियता के मामले में हिंदुओं के साथ मुस्लिमों के लिए भी प्रेरणा थे. लेकिन, मुस्लिमों के ध्रुवीकरण का एजेंडा चलाने वालों के लिए 'कलाम' का जिक्र करना दुष्प्रभावी हो जाएगा. आसान शब्दों में कहा जाए, तो इनका एजेंडा ही फेल हो जाएगा.
अमेरिका और ब्रिटेन से तुलना गलत क्यों हैं?
इस बात में कोई दो राय नहीं है कि प्रीतिश नंदी ने एक अहम सवाल उठाया है. लेकिन, प्रीतिश नंदी अपनी बात में इस चीज का जिक्र करना भूल जाते हैं कि अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों में अल्पसंख्यक मंत्रालय जैसी कोई व्यवस्था नहीं है. इतना ही नहीं, अमेरिका और ब्रिटेन में धर्म के आधार पर अल्पसंख्यकों को किसी तरह के विशेषाधिकार नहीं दिए जाते हैं. आसान शब्दों में कहा जाए, तो लोकतंत्र में किसी भी शख्स को अपनी योग्यता के जरिये सर्वोच्च पद पर पहुंचने का मौका दिया जाता है. नाकि, मुस्लिम होने की वजह से राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री जैसे पदों पर बैठाने की मांग की जाती हो. वैसे, एपीजे अब्दुल कलाम एक गरीब परिवार से आने वाले मुस्लिम थे. लेकिन, कलाम अपनी योग्यता के दम पर राष्ट्रपति पद तक पहुंचे. और, कांग्रेस तक ने उनका समर्थन किया था.
क्या भारत के मुस्लिमों के पास सच में मौका नही है?
भारत एक लोकतांत्रिक देश है. और, प्रधानमंत्री जैसा पद जनता की ओर से चुने गए सांसदों की राय से होता है. हालांकि, राष्ट्रपति पद के लिए ऐसी बाध्यता नहीं है. लेकिन, यहां भी सांसदों और विधायकों के वोटों से ही जीत-हार होती है. भारत के लिहाज से देखा जाए, तो इन दोनों ही पदों पर सत्तारूढ़ दल का कब्जा रहता है. वैसे, अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय के अलावा भारत में सिख, बौद्ध, पारसी, जैन और ईसाई भी इसी श्रेणी में आते हैं. क्या मुस्लिम समुदाय से इतर इन अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री जैसे उच्च राजनीतिक पदों पर जाने का मौका नहीं मिलना चाहिए. खैर, अगर प्रीतिश नंदी सचमुच में समानता की बात कर रहे होते, तो वह अन्य अल्पसंख्यकों की भी बात करते. नाकि, केवल मुस्लिमों की. भारत में अब तक 3 मुस्लिम राष्ट्रपति हो चुके हैं. लेकिन, बौद्ध, पारसी, जैन या ईसाई क्यों नहीं बने? इस पर सवाल नहीं किया जाता है?
भरोसा बनने से ज्यादा टूट क्यों रहा है?
2018 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुस्लिमों की धार्मिक भावनाओं का ख्याल रखते हुए ही कहा था कि 'हम चाहते हैं, मुसलमानों के एक हाथ में कंप्यूटर और दूसरे हाथ में कुरान हो.' लेकिन, इस बयान के 4 साल गुजर जाने के बाद भी मुस्लिम समुदाय के एक वर्ग में शायद ही बदलाव देखने को मिला है. जबकि, इसके उलट इस्लामिक कट्टरता बढ़ने के साथ भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाए जाने का विजन जरूर सामने आने लगा है. यहां तक कि एपीजे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बनाए जाने पर कई कट्टरपंथियों ने उन्हें मुस्लिम मानने से ही मना कर दिया था.
वैसे, पीएफआई जैसे कट्टरपंथी संगठन मुस्लिमों में हिंदुओं के प्रति नफरत का जहर भर रहे हैं. आसान शब्दों में कहा जाए, तो समाज में भरोसा कायम होने की जगह टूटता जा रहा है. जबकि, एपीजे अब्दुल कलाम जैसे शख्स भारत के सेकुलरिज्म और कौमी एकता का दूसरा नाम बन चुके थे. वैसे, भारत में मुस्लिमों के पास अपनी योग्यता को साबित करते हुए किसी भी उच्च राजनीतिक पद तक पहुंचने की आजादी है. बस 'कलाम' को दिमाग में रखना होगा.
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