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Updated: 10 दिसम्बर, 2020 02:50 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) का कांग्रेस (Congress) अध्यक्ष के रूप में सबसे लंबा कार्यकाल रहा है - और माना तो यहां तक जाता है कि पार्टी पर पकड़ की कौन कहे, हनक ऐसी रही कि वो पार्टी की सरकार को भी रिमोट कंट्रोल से चला चुकी हैं. सत्ता के गलियारों की हालिया किंवदंतियों के अलावा ऐसी काफी बातें पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू ने अपनी किताब 'द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर में भी ऐसे ही मजबूत इशारे किये हैं. अपनी खामोशियों के लिए विख्यात मनमोहन सिंह को ही संजय बारू ने एक्सीडेंटल PM के रूप में मुख्य किरदार के तौर पर पेश किया है.

फर्ज कीजिये 2004 के आम चुनाव में कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए को जीत दिलाने के बाद सोनिया गांधी ने अगर खुद प्रधानमंत्री न बनने का फैसला नहीं किया होता तो क्या और कैसा होता? क्या राहुल गांधी (Rahul Gandhi) और कांग्रेस की वर्तमान स्थिति को देख कर सोनिया गांधी को अपने फैसले पर अफसोस भी होता होगा?

सोनिया गांधी भी कहीं ज्योति बसु जैसा तो नहीं सोचतीं?

कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी के संदर्भ में भी कभी सरदार पटेल जैसा सवाल जरूर होना चाहिये था, लेकिन सार्वजनिक तौर कभी बड़ी शख्सियत ने पूछा ही नहीं. ऐसा इसलिए, क्योंकि, सोनिया गांधी और उनसे बहुत सरदार पटेल, दोनों के जीवन में ऐसे मोड़ आये जब वो देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी के बेहद करीब थे, तभी छींका ऐसा अचानक ही टूटा और किस्मत किसी और की जाग गयी. अगर वास्तव में ऐसा हुआ होता तो न जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री बने होते और न ही डॉक्टर मनमोहन सिंह. वैसे ऐसी फेहरिस्त में नाम तो मुलायम सिंह का भी शामिल होता है - क्योंकि लालू प्रसाद और शरद यादव के विरोध के चलते करीब आ चुकी प्रधानमंत्री की कुर्सी दूर जा छिटकी और इंद्र कुमार गुजराल तशरीफ ले बैठे.

कांग्रेस में सोनिया गांधी के मई, 2004 के फैसले को उनके सबसे बड़े त्याग के तौर पर देखा जाता है, हालांकि, उससे भी पहले त्याग की बड़ी मिसाल पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने पेश की थी. बरसों बाद ज्योति बसु ने तो अपने फैसले को लेकर अपने मन की बात कह दी थी, लेकिन सोनिया गांधी के मुंह से ऐसा सुनना अभी बाकी है.

sonia gandhi, narendra modiसोनिया गांधी, वायपेयी सरकार के दौरान विपक्ष की नेता रहीं, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौर में कांग्रेस के हाथ से वो भी छिटक गया है

सोनिया गांधी से ठीक सात साल पहले समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव भी प्रधानमंत्री बनते बनते रह गये थे और ये मलाल ताउम्र रहेगा. बरसों बाद एक बार पूछे जाने पर मुलायम सिंह यादव बोले भी, 'ये सच है कि प्रधानमंत्री बनना तय भी हो गया था. आखिरी वक्त में किसने विरोध किया, किसने नहीं बनने दिया - इस बात का कोई मतलब नहीं है.'

मुलायम सिंह के पास ये मौका तब आया जब 1997 में एचडी देवगौड़ा सरकार कांग्रेस तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी के समर्थन वापस लेने से गिर गयी. बकौल पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा, 'तब चंद्रबाबू नायडू आए और बोले ज्यादातर लोग मुलायम सिंह यादव के पक्ष में हैं लेकिन कुछ विरोध में भी हैं. अगले दिन आईके गुजराल का नाम समझौते के नाम के तौर पर घोषित किया गया.'

एचडी देवगौड़ा के मुताबिक, अपने जमाने पहलवान रहे मुलायम सिंह को प्रधानमंत्री बनाने के सवाल पर लालू प्रसाद और शरद यादव ने ऐतराज का ऐसा दांव चलाया कि समाजवादी नेता को मजबूरन अखाडे़ से लौट जाना पड़ा और फिर इंद्र कुमार गुजराल की सरकार में रक्षा मंत्री बन कर संतोष करना पड़ा.

मुलायम सिंह यादव से करीब साल भर पहले 1996 में जब बीजेपी नेता अटल बिहारी वाजपेयी की 13 दिन की सरकार गिर गयी तो राष्ट्रीय मोर्चा सरकार बनाने के लिए आगे तो आया लेकिन उसके पास ऐसा कोई कद्दावर चेहरा नहीं था जो वाजपेयी के मुकाबले खड़ा हो सके. ऐसे में कुछ नेताओं ने तब के पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु के सामने प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव रखा, लेकिन वो ये कहते हुए मना कर दिये कि पार्टी ने उनको परमिशन नहीं दी है.

1984 की तरह सोनिया गांधी की अगुवाई में यूपीए को पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की तरह तो नहीं, लेकिन 335 सीटों के साथ बढ़िया बहुमत मिला था. उसमें भी कांग्रेस 145 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी रही, हालांकि, समाजवादी पार्टी, बीएसपी, केरला कांग्रेस और लेफ्ट फ्रंट ने बाहर से सपोर्ट किया था. विरोध में 138 सीटों के साथ बीजेपी और उसके साथ कुछ सहयोगी दल भी थे.

अटल बिहारी वाजपेयी के दोबारा प्रधानमंत्री बनने के पहले ही 1998 में सोनिया गांधी कांग्रेस की कमान अपने हाथ में ले चुकी थीं. 1999 के आम चुनाव में कांग्रेस कुछ खास नहीं कर पायी और उसे महज 114 सीटें ही मिल पायीं. वाजपेयी के शासन काल में सोनिया गांधी ने पूरे पांच साल विपक्ष की नेता की भूमिका निभायी.

काफी दिनों बाद ज्योति बसु ने माना कि वो सही नहीं था. वो 2000 तक मुख्यमंत्री रहे लेकिन खराब सेहत के चलते पद छोड़ना पड़ा और बुद्धदेव भट्टाचार्या उनके उत्तराधिकारी बने. 2010 में ज्योति बसु का निधन हो गया.

एक बार जब ज्योति बसु से प्रधानमंत्री पद ठुकराने को लेकर उनके फैसले के बारे में पूछा गया तो वो बस इतना ही बोले - वो ऐतिहासिक भूल थी.

सोनिया गांधी भी निश्चित तौर पर अपने फैसले के बारे में सोची ही होंगी. हो सकता है करीबियों से शेयर भी किया हो - लेकिन अभी तक ये बात सामने नहीं आयी है कि कहीं वो ज्योति बसु के विचार से इत्तेफाक तो नहीं रखतीं?

अगर सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनी होतीं!

सोनिया गांधी ने अपने पति और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के बाद काफी दिनों तक खुद को राजनीति से पूरी तरह अलग रखा. बाद में कांग्रेस नेताओं के कहने पर पार्टी के कामों में राय देना शुरू भी किया तो एक हद तक दूरी बना कर ही, हालांकि, सभी महत्वपूर्ण मामलों में एक तरह से वीटो सोनिया गांधी के पास ही हुआ करता था.

1998 में कांग्रेस की कमान संभालने के बाद बाहर के राजनीतिक विरोधियों की कौन कहे, पार्टी के भीतर ही उनके विदेशी मूले के होने को लेकर मुद्दा बनना शुरू हो गया. मई, 1999 में शरद पवार की अगुवाई में पीए संगमा और तारिक अनवर ने ये कहते हुए विरोध करना शुरू किया कि विदेशी मूल का कोई देश का प्रधानमंत्री कैसे बन सकता है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, सोनिया गांधी ने इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते ही 27 अप्रैल 1983 को इटली के दूतावास में अपना पासपोर्ट सरेंडर कर दिया था. तभी वो भारत की नागरिकता ले चुकी थीं.

सोनिया गांधी ने तब भी इस्तीफे की पेशकश की थी, लेकिन अभी की ही तरह तब भी कांग्रेस नेताओं ने आगे बढ़ कर सपोर्ट किया और विरोध करने वाले तीनों नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया - और फिर शरद पवार के नेतृत्व में एनसीपी का गठन हुआ. आगे चल कर शरद पवार को प्रधानमंत्री के रूप में तो नहीं, लेकिन बड़े राजनीतिक सहयोगी के तौर पर सोनिया गांधी का नेतृत्व स्वीकार करना ही पड़ा. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में वो केंद्रीय मंत्री भी रहे. एक बार फिर वो महाराष्ट्र में महाविकास आघाड़ी सरकार में कांग्रेस के साथ हैं.

1999 में पहली बार सोनिया गांधी लोक सभा का चुनाव भी लड़ीं - अमेठी और बेल्लारी से. दोनों सीटों पर जीत भी दर्ज करायीं. बेल्लारी में सोनिया गांधी ने बीजेपी नेता सुषमा स्वराज को शिकस्त दी थी.

जब 2004 में बीजेपी को शिकस्त देकर कांग्रेस ने चुनाव जीता तो सबकी यही राय बनी कि सोनिया गांधी ही प्रधानमंत्री बनेंगी - और तभी सुषमा स्वराज विरोध में खड़ी हो गयीं. सुषमा की अगुवाई में बीजेपी ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल को मुद्दा बनाते हुए जोरदार विरोध दर्ज कराया.

और फिर अचानक सोनिया गांधी ने अपना फैसला सुना दिया कि वो प्रधानमंत्री नहीं बनने जा रही हैं. सोनिया गांधी का फैसला सुनते ही कांग्रेस कार्यकर्ता अलग शोर मचाने लगे और सोनिया गांधी से फैसला बदलने का आग्रह करने लगे.

सोनिया गांधी का फैसला घोषित होने के बाद कांग्रेस के सीनियर नेता प्रणब मुखर्जी एक बार फिर प्रधानमंत्री पद के दावेदार बन कर उभरे. उससे पहले वो 1984 में रेस में सबसे आगे थे, लेकिन तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी. बाकियों की तरह प्रणब मुखर्जी को भी प्रधानमंत्री की कुर्सी बेहद करीब होकर भी दूर छिटक जाती रही.

सोनिया गांधी ने जैसे खुद प्रधानमंत्री न बनने का फैसला सुनाया वैसे ही मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने का फैसला कर भी सबको चौंकाया. मनमोहन सिंह को प्रणब मुखर्जी ने ही पीवी नरसिम्हा राव सरकार में रिजर्व बैंक का गवर्नर बनाया था, लेकिन प्रणब मुखर्जी को तब तक मनमोहन सिंह का नेतृत्व स्वीकार करना पड़ा जब तक वो राष्ट्रपति भवन नहीं पहुंचे. पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को बेहतरीन प्रधानमंत्री के रूप में देखा गया जो देश को कभी नहीं मिला!

मनमोहन सिंह के लिए ज्यादा सही ये कहना होगा कि बीजेपी ने उनके प्रधानमंत्री बनने का रास्ता साफ किया, बनिस्बत कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के. वैसे मनमोहन सिंह में वो सारी खूबियां रहीं जो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को अपने पार्टी के प्रधानमंत्री में चाहिये थीं - और पूरे 10 साल वो उस पर सौ फीसदी खरे उतरे भी.

सवाल ये है कि क्या सोनिया गांधी खुद प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठना चाहतीं तो कोई रोक पाता?

आम चुनाव हार चुकी बीजेपी भला सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनने से कैसे रोक पाती? विरोध करने वाले शरद पवार भी ठंडे पड़ चुके थे और उनको भी सत्ता के लिए कांग्रेस के सपोर्ट की जरूरत थी. तब लालू प्रसाद यादव डंके की चोट पर सोनिया गांधी के विदेशी मूल को मुद्दा बनाने वालों को उसी अंदाज में प्रतिकार करते रहे.

किसी भी चीज को देखने के नजरिये की बात और है, लेकिन हकीकत तो यही है कि सोनिया गांधी ने बारी बारी से बीजेपी के दो दिग्गज नेताओं अटल बिहारी वाजपेयी और फिर लालकृष्ण आडवाणी दोनों को शिकस्त दी है. 2004 में वाजपेयी को, जो तब पांच साल से प्रधानमंत्री थे और बेहद लोकप्रिय थे - और फिर 2009 में भी बीजेपी के लौह पुरुष रहे लालकृष्ण आडवाणी को भी तो सोनिया गांधी ने चुनावी शिकस्त दी ही थी.

सोनिया गांधी ने राजकाज की बारीकियां इंदिरा गांधी से सीखी थी - और राजीव गांघी की कामयाबी में भी सोनिया गांधी का महत्वपूर्ण योगदान माना जाना चाहिये. ये ठीक है कि राजीव गांधी के करीबियों ने ही उनके खिलाफ साजिश रची और वो घिरते गये, लेकिन ये तो माना ही जा सकता है कि उनको सोनिया गांधी से भी महत्वपूर्ण सलाह मिलती ही होगी. वैसे सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार रहे अहमद पटेल, राजीव गांधी के भी तीन संसदीय सचिवों में से एक हुआ करते थे. संजय गांधी की मौत के बाद मेनका गांधी ने पति की जगह लेने की खूब कोशिश की, लेकिन वो इसलिए चूक गयीं क्योंकि इंदिरा गांधी को सोनिया गांधी जैसा भरोसा कभी नहीं दे पायी थीं. बाद में तो राजीव गांधी के खिलाफ मेनका गांधी चुनाव मैदान में भी उतरीं और सोनिया गांधी ने पूरी ताकत से चुनाव प्रचार भी किया.

ये तो सबको मालूम है कि संजय गांधी अगर हादसे के शिकार नहीं हुए होते तो राजीव गांधी राजनीति में कदम तक न रखते. सोनिया गांधी भी राजीव गांधी के राजनीति में जाने के पक्ष में नहीं थीं.

sonia gandhi, rahul gandhiसोनिया गांधी क्या राहुल गांधी और कांग्रेस को और बेहतर भविष्य दे पातीं?

राजनीति के मामले में देखा जाये तो राजीव गांधी की भी उतनी ही दिलचस्पी रही जितनी राहुल गांधी की लगती है - लेकिन फिर क्या वजह है कि राजीव गांधी सफल रहे और राहुल गांधी अब तक फेल होते रहे हैं.

ये ठीक है कि राहुल गांधी का पाला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे अनुभवी जमीनी नेता से पड़ा है जो देश में सबसे ज्यादा लोकप्रिय हैं, लेकिन ये क्यों भूलना चाहिये कि राजीव गांधी के विरोध में जब विश्वनाथ प्रताप सिंह लोगों के बीच पहुंचे तो लोकप्रियता के सारे रिकॉर्ड तोड़ रहे थे - "राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है!"

कुछ देर के लिए मान लेते हैं कि सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री न बनने का फैसला नहीं किया होता - तो भी क्या 2014 में कांग्रेस को सत्ता से इस कदर बेदखल होना पड़ता कि वो 10 साल सत्ता में रहने के बाद नियमों के तहत विपक्ष के नेता पद के भी लायक नहीं होती?

क्या ऐसा नहीं लगता कि मनमोहन सिंह की जगह सोनिया गांधी होतीं तो उनके मुकाबले कहीं ज्यादा मजबूत प्रधानमंत्री होतीं?

ऐसी स्थिति में दो बातें तो निश्चित तौर पर होतीं. एक तो मनमोहन सिंह की तरह सोनिया गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष की बात बात पर मंजूरी की राह नहीं देखनी पड़ती. और दूसरी बात, सोनिया गांधी भी वैसे कामों से परहेज करतीं जो वो मनमोहन सिंह से करा लेती होंगी - क्योंकि दूसरे से कोई काम करा लेने और खुद वही काम करने में फर्क होता है. अक्सर जो काम दूसरे से कराया जा सकता है, खुद के लिए कदम बढ़ाना भी भारी पड़ता है.

9 दिसंबर, 1946 को भारत से हजारों किलोमीटर दूर इटली में जन्म लेने वाली सोनिया गांधी 74 साल की हो चुकी हैं - और राहुल गांधी के 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस की हार की जिम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद फिर से कमान अपने हाथ में ले रखी हैं. सोनिया गांधी, राहुल गांधी और कांग्रेस को लेकर कुछ सवाल ऐसे जरूर हैं जिनके जवाब, संभव है आने वाले दिनों में मिले - संभव है न भी मिले.

1. सोनिया गांधी का 2004 में फैसला कुछ और होता तो देश पर उसका क्या असर पड़ता?

2. सोनिया गांधी का फैसला कुछ और होता तो कांग्रेस पर उसका क्या असर पड़ा होता?

3. क्या कांग्रेस की मौजूदा स्थिति ऐसी ही होती - या कुछ बेहतर होती या फिर मौजूदा स्थिति से भी बुरी हो सकती थी?

4. कांग्रेस की मौजूदा हालत के लिए कौन सबसे ज्यादा जिम्मेदार है - सोनिया गांधी या राहुल गांधी?

5. क्या सोनिया गांधी के मन में ये ख्याल कभी नहीं आता होगा कि अगर 2004 में उनका फैसला कुछ और होता तो राहुल गांधी आज शायद ये दिन नहीं देखने पड़ रहे होते?

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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