सोनिया और नीतीश-लालू की मीटिंग के बाद विपक्षी एकता की बाधाएं कितना कम हो सकेंगी
नीतीश कुमार (Nitish Kumar) 2024 की तैयारियों में जोर शोर से जुटे हुए हैं और लालू यादव (Lalu Yadav) को पूरा अपडेट भी दे रहे हैं. आगे की रणनीति सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) के साथ होने वाली मुलाकात में तय होनी है - लेकिन बात तो आगे तभी बढ़ेगी जब शर्तें कांग्रेस नेतृत्व को मंजूर होंगी.
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नीतीश कुमार (Nitish Kumar) अब 2024 को लेकर बड़े बड़े वादे भी करने लगे हैं, जबकि सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) से मुलाकात अभी हुई भी नहीं है. तेजस्वी यादव के मुताबिक, नीतीश कुमार और लालू यादव एक साथ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिलने वाले हैं.
ये प्रस्तावित मुलाकात ही विपक्षी एकजुटता की आगे की राह तय करने वाली होगी. तीनों नेताओं की मुलाकात में और कुछ हो न हो, विपक्षी एकता के प्रयासों की दशा और दिशा तो मालूम हो ही जाएगी.
सोनिया गांधी पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद से काफी परेशान रही होंगी क्योंकि ममता बनर्जी कांग्रेस को किनारे रख कर विपक्ष को एकजुट करने की कोशिश कर रही थीं. बाद में सब छोड़ कर कोलकाता में बैठ गयी थीं. जैसे महागठबंधन के मुख्यमंत्री की पिछली पारी में नीतीश कुमार 2017 में थक हार कर बैठ गये थे.
2015 के बिहार चुनाव में बीजेपी नेतृत्व को शिकस्त देने के बाद नीतीश कुमार ने प्रशांत किशोर के जरिये असम में कांग्रेस की मदद की कोशिश भी की थी. लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद असम में वो बिहार जैसा महागठबंधन नहीं खड़ा करा सके - और आखिरकार कांग्रेस को सत्ता से बेदखल हो जाना पड़ा.
दोबारा एनडीए ज्वाइन करने से पहले तक नीतीश कुमार का स्टैंड यही रहा कि सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते कांग्रेस ही विपक्ष का नेतृत्व करे. एक बार फिर नीतीश उसी रास्ते पर आगे बढ़ते नजर आ रहे हैं. नीतीश कुमार को देख कर निराश लग रहीं ममता बनर्जी में भी जोश भरा नजर आ रहा है. ममता बनर्जी के बयान से तो यही लगता है कि नीतीश कुमार ने टीएमसी को कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार करने के लिए राजी कर लिया है - और ये सोनिया गांधी के लिए बड़ी राहत दिलाने वाली बात है.
नीतीश कुमार के मिशन 2024 की खासियत जेडीयू नेता केसी त्यागी ने पहले ही बता दी थी - विपक्ष को एकजुट करने में किसी तरह की पॉलिटिकल अनटचेबिलिटी नहीं होने वाली है. ममता बनर्जी के भी साथ आने के पीछे ये महत्वपूर्ण फैक्टर समझा जा सकता है, लेकिन इतने भर से कोई बड़ी उम्मीद भी नहीं करनी चाहिये.
2024 के लिए विपक्ष के एकजुट होने की राह में देखें तो चुनौतियों का अंबार लगा है. कुछ तो मुश्किल ही हैं, नामुमकिन नहीं कह सकते - लेकिन कई तो नामुमकिन सी लगती हैं. पहले तो नीतीश कुमार को अपने प्रस्तावों पर सोनिया गांधी की मंजूरी लेनी होगी और फिर उन नेताओं को समझाने बुझाने का प्रयास करना होगा, जो ऐसे प्रस्तावों को अपनी राह का रोड़ा मान कर चल रहे होंगे. आम आदमी पार्टी के लिए अखिल भारतीय तैयारियों में जुटे अरविंद केजरीवाल से अप्रूवल लेना तो नीतीश कुमार के लिए सोनिया गांधी से भी ज्यादा मुश्किल हो सकता है.
सोनिया गांधी से कई मुद्दों पर सहमति बनाने में नीतीश कुमार से बड़ी भूमिका लालू यादव (Lalu Yadav) की हो सकती है. सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर लालू यादव के समर्थन को सोनिया गांधी अब तक ढोती आयी हैं. राहुल गांधी के दागी नेताओं को बचाने वाले ऑर्डिनेंस की कॉपी फाड़ डालने और कन्हैया कुमार को कांग्रेस में लेने को लेकर लालू यादव की नाराजगी अपनी जगह तो है ही, लेकिन बच्चों की बदमाशी समझ कर बड़े सब भुला भी सकते हैं - आखिर सब सवार भी तो एक ही नाव पर हैं!
कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी के साथ खास मुलाकात से पहले ही नीतीश कुमार दो ऐसी घोषणाएं कर चुके हैं जिन पर आपसी सहमति बेहद जरूरी लगती है. हो सकता है नीतीश कुमार ने ऐसा लालू यादव से विचार विमर्श के बाद ही किया हो, लेकिन सोनिया गांधी राजी नहीं हुईं तो कदम पीछे भी खींचने पड़ सकते हैं.
नीतीश कुमार के मिशन 2024 की राह में अभी बड़े पेंच हैं.
नीतीश कुमार की तरफ से लेटेस्ट घोषणा तो पिछड़े राज्यों के लिए स्पेशल स्टेटस को लेकर ही है. ये वो मुद्दा है जिसे नीतीश कुमार केंद्र सरकार के सामने हमेशा ही उठाते रहे हैं. एनडीए में दोबारा एंट्री लेने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने भी उठाया, लेकिन कभी कोई सुनवाई नहीं हुई.
अब अगर कुछ हाथ लगा तो पहला काम तो नीतीश कुमार वही करेंगे जो सबसे पुरानी मुराद हो. हो सकता है जल्दी ही वो देश भर में शराबबंदी लागू करने जैसा भी वादा कर डालें. बशर्ते वो देश को समझा सकें कि बिहार में शराबबंदी के फेल होने की वजह बीजेपी का साथ रहा, उनकी अपनी नाकामी नहीं थी.
नीतीश कुमार ने अपनी तरफ से अखिलेश यादव का नाम लेकर उत्तर प्रदेश के लिए जो घोषणा कर रखी है, उसमें सोनिया गांधी की मंजूरी बेहद जरूरी है - और आगे की राह भी उस पर फैसला होने के बाद ही दिखायी पड़ेगी.
2019 वाली गलती - और भूल सुधार की कोशिश
पटना में तात्कालिक भूल सुधार के बाद नीतीश कुमार ने पटना से ही सोनिया गांधी से बात कर ली थी - और दिल्ली पहुंचते ही सबसे पहले राहुल गांधी से मिले. विपक्ष के तमाम नेताओं से मिलते जुलते नीतीश कुमार सीधे अस्पताल पहुंचे और समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव से मिले. ये मुलायम सिंह यादव ही थे जिन्होंने 2015 में नीतीश कुमार को महागठबंधन का नेता घोषित किया था - और लालू यादव ने तब जहर का घूंट पीने की बात कही थी.
ये जून, 2015 का वाकया है, मुलायम सिंह यादव के बाद जब लालू यादव की बारी आयी तो बोले, "जनता को भरोसा दिलाता हूं कि बिहार की लड़ाई में मैं हर तरह का घूंट पीने को तैयार हूं... हम हर तरह का जहर पीने के लिए तैयार हैं."
अखिलेश यादव के साथ अस्पताल से बाहर निकलने पर नीतीश कुमार ने सीधे ऐलान कर दिया कि अखिलेश यादव ही उत्तर प्रदेश में महागठबंधन के नेता होंगे - और यही वो मुद्दा है जिस पर कांग्रेस की तरफ से अब तक रिएक्शन नहीं आया है. हो सकता है, राहुल गांधी से मुलाकात में नीतीश कुमार ने इस पर चर्चा की हो और सोनिया गांधी से मुलाकात से पहले सैद्धांतिक तौर पर सहमति बनी भी हो.
ये भी हो सकता है कि लालू यादव ने सोनिया गांधी से बात कर यूपी को लकर पहले ही अप्रूवल ले रखा हो. ऐसी छोटी सी झलक तेजस्वी यादव की बातों में देखी जा सकती है. तेजस्वी यादव ने का कहना है कि विपक्षी दलों के नेताओं से फोन पर लगातार बात होती आ रही है. और सभी लोग शिद्दत से इस काम में लगे हुए हैं. तेजस्वी यादव ने ये तो नहीं बताया कि किस किस से बात हुई है, लेकिन ये जरूर कहा है कि विपक्षी एकता की पहल में सभी ने सहमति जतायी है.
सबसे अहम बात जो तेजस्वी यादव ने कही है, वो है - इस बार 2019 वाली गलती नहीं दोहरानी है. तेजस्वी यादव कहते हैं कि 2019 में जो हुआ उसको लोग भुगत रहे हैं... रोजगार, दवाई, कमाई, पढ़ाई जैसे असल मुद्दों पर बात अब नहीं होती है.
अभी तो ये भी देखने में आया है कि लालू यादव और नीतीश लगातार लगातार एक दूसरे के टच में हैं. पटना छोड़ने से पहले भी वो लालू यादव से मिले थे. और दिल्ली से लौटते ही पूरी रिपोर्ट पेश की है - और अब तेजस्वी यादव के मुताबिक, दोनों नेता सोनिया गांधी से मिल कर आगे की रणनीति पर विचार विमर्श करने वाले हैं.
फिर तो ये भी देखना होगा कि 2019 वाली गलती पर अफसोस जताने के बाद भूल सुधार को लेकर कोई गंभीर कोशिश भी होती है क्या?
कहां कहां पेंच फंसेगा?
यूपी में बीजेपी और योगी आदित्यनाथ के खिलाफ अखिलेश यादव का नाम नीतीश कुमार के आगे बढ़ाये जाने से एक बात तो साफ है - पूरे देश में महागठबंधन का पैटर्न वैसा ही होगा. वैसे भी झारखंड और तमिलनाडु में तो कांग्रेस ने ऐसा समझौता पहले से ही कर रखा है. महाराष्ट्र में भी ऐसा ही प्रयोग हो चुका है. वो प्रयोग सफल भी कहा जाएगा, और फेल भी माना जाएगा.
ऐसे में सवाल ये है कि उन राज्यों में क्या पैटर्न होगा, जिन राज्यों में कांग्रेस का शासन है? या फिर कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल है?
1. जहां कांग्रेस को विपक्ष से ही टक्कर मिल रही है: राजस्थान और छत्तीसगढ़ पर तो कोई विवाद नहीं होना चाहिये - और मध्य प्रदेश में भी अभी कांग्रेस को विपक्षी खेमे से कोई टक्कर देने वाला नहीं लगता. अब तक हरियाणा का मामला भी ऐसा ही लगता रहा, लेकिन आगे का अभी नहीं मालूम. हरियाणा में कोशिश तो ममता बनर्जी ने भी अशोक तंवर को टीएमसी में लाकर की थी, लेकिन अरविंद केजरीवाल उनको भी ले उड़े.
और अरविंद केजरीवाल ने तो मेक इंडिया नंबर 1 यात्रा की शुरुआत भी उसी दिन की है, जिस दिन राहुल गांधी कन्याकुमारी से कश्मीर के लिए भारत जोड़ो यात्रा पर निकले थे - राज्यों में नेतृत्व को लेकर दावेदारी हरियाणा जैसी दूसरी जगह भी है.
गोवा इस मामले में बढ़िया उदाहरण हो सकता है - और अभी अभी कांग्रेस के दुर्घटनाग्रस्त होने के बाद तो चर्चा के लिए सबसे महत्वपूर्ण भी है. ध्यान देने वाली बात ये है कि एक जोरदार झटके में सीधे 8 विधायकों को गवां देने के बाद भी कांग्रेस ही गोवा की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है. और ये स्थिति तब तक कायम रहेगी, जब तक ऐसे हादसे को रोका जा सकता है.
गोवा में तीन विधायकों के साथ अब भी कांग्रेस की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है. असल में आम आदमी पार्टी के दो ही विधायक हैं.
गोवा में कांग्रेस की जगह लेने के लिए आम आदमी पार्टी की हालिया चुनाव में लगातार दूसरी कोशिश रही है. कहने को तो ममता बनर्जी ने भी पूरी ताकत झोंक दी थी, लेकिन बात नहीं बनी - गोवा में ये पेंच तो फंसेगा ही कि बीजेपी के खिलाफ महागठबंधन का नेतृत्व कौन पार्टी करेगी?
ममता बनर्जी ने अगर दावा वापस भी ले लिया तो अरविंद केजरीवाल तो ये सवाल भी उठा सकते हैं कि अगर कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीत कर भी विधायकों को बीजेपी ही ज्वाइन कर लेना है तो ऐसे नेतृत्व का क्या फायदा? और कांग्रेस तो अब कसमें-वादों की भी दुहाई नहीं दे सकती.
अरविंद केजरीवाल भी अगर विपक्षी फोरम का हिस्सा बनने को तैयार हो जाते हैं तो ऐसे ही सवाल दिल्ली और पंजाब को लेकर भी उठेंगे. और अगर गुजरात, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक चुनाव के नतीजे आने के बाद आम आदमी पार्टी ने कुछ अच्छा कर लिया तो अरविंद केजरीवाल पेंच फंसाने में तो माहिर हैं ही.
2. जहां बीजेपी सत्ता पर काबिज होने की कोशिश में है: पश्चिम बंगाल, केरल और तेलंगाना ऐसे राज्य हैं जहां बीजेपी सत्ता हासिल करने के लिए बेताब है. फिलहाल तो सबसे ज्यादा जोर तेलंगाना पर ही है. 2021 में केरल में तो बीजेपी को एक कदम आगे और दो कदम पीछे करते ही देखा गया. मेट्रो मैन ई. श्रीधरन तो ऐसे ट्रैप में फंसे कि फजीहत के अलावा कुछ भी हाथ न लग सका.
आंध्र प्रदेश और ओडिशा जैसे राज्यों को लेकर भी टकराव की नौबत आ सकती है. दोनों ही राज्यों के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और जगनमोहन रेड्डी का अब तक प्रो-बीजेपी रुख ही देखने को मिला है. अगर जगनमोहन रेड्डी को मोटिवेट करने में नीतीश कुमार कामयाब भी होते हैं तो क्या सोनिया गांधी और राहुल गांधी को आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस का नेतृत्व मंजूर होगा?
2019 की जिन गलतियों की तरफ तेजस्वी यादव इशारा कर रहे हैं, आंध्र प्रदेश का मामला भी वैसा ही लगता है. 2019 में राहुल गांधी के सामने प्रस्ताव ये रखा गया था कि वो आंध्र प्रदेश में एन. चंद्रबाबू नायडू की पार्टी तेलुगु देशम, दिल्ली में आम आदमी पार्टी और पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस को चुनावी मैदान में नेतृत्व करने दें. ऐसा न होने की सूरत में भी चुनावी गठबंधन का प्रस्ताव भी रखा गया था - लेकिन राहुल गांधी ने स्थानीय नेताओं की आपत्ति के नाम पर प्रस्ताव खारिज कर दिया था.
अब अगर यूपी में अखिलेश यादव को महागठबंधन का नेता बनाने का नीतीश कुमार का प्रस्ताव सोनिया गांधी को मंजूर होता है, तो भी बात नहीं बनने वाली. क्या ये राहुल गांधी को भी मंजूर होगा? और हां, क्या ये प्रस्ताव प्रियंका गांधी वाड्रा को भी मंजूर होगा?
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