सोनिया सच का सामना करें, ममता को 'आज' का नेता मान लें और राहुल को 'कल' का
राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को कुछ साल के लिए होल्ड कर सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) अगर ममता बनर्जी (Mamata Banrejee) को विपक्ष की तरफ से नेता मान लें तो कांग्रेस का कल्याण ही होगा - वरना, कांग्रेस ही नहीं रहेगी तो राहुल गांधी का क्या होगा?
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सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) जितनी जल्दी सच का सामना कर लें, कांग्रेस का भी कल्याण होगा और राहुल गांधी का भी - क्योंकि ममता बनर्जी देश की राजनीति में आज हैं तो राहुल गांधी कल. कल से आशय यहां भविष्य से ही है क्योंकि राहुल गांधी के आज से बेहतर बीता हुआ कल ही था.
राहुल गांधी (Rahul Gandhi) का अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 2009 के आमचुनाव में ही देखने को मिला है - जब यूपी में वो कांग्रेस की सीटें बढ़ा कर समाजवादी पार्टी और बीएसपी के करीब ला खड़ा किये थे. बाद में तो हार का ही ठप्पा लगता गया - और ये सिलसिला हाल के विधानसभा चुनावों में भी थम नहीं सका.
सोनिया गांधी ने एक समझदारी जरूर दिखायी कि G-23 की तरफ से कोई कड़ी टिप्पणी आने से पहले ही विधानसभा चुनावों में हार पर अपनी बात कह दी. सोनिया गांधी ने विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की बहुत ही बुरी हार को अप्रत्याशित बताया है. समझा जाये तो सोनिया गांधी को ऐसी उम्मीद नहीं थी. तमिलनाडु में तो कांग्रेस का प्रदर्शन कोई बुरा नहीं लगता, लेकिन केरल में अपनी सरकार बनाने की उम्मीद जरूर रही होगी. केरल में सत्ता परिवर्तन की उम्मीद थी और कांग्रेस को लग रहा होगा कि बीजेपी को तो वो पछाड़ ही देगी.
असम में राहुल गांधी से भी ज्यादा तो प्रियंका गांधी वाड्रा ने मेहनत की, लेकिन सारा एक्सपेरिमेंट फेल रहा. मुश्किल ये है कि राहुल गांधी की तरह प्रियंका गांधी वाड्रा पर भी अब नाकामी का ठप्पा बढ़ता जा रहा है. प्रियंका गांधी के लिए इससे भी बड़ी नाकामी क्या होगी कि पूर्वी उत्तर प्रदेश की प्रभारी होते हुए भी वो अमेठी में राहुल गांधी की हार नहीं टाल सकीं. अगर राहुल गांधी भी ममता बनर्जी की तरह एक ही सीट से चुनाव लड़ने की जिद किये होते तो क्या हाल होता. ममता बनर्जी ने तो पार्टी को जिताने के लिए ही खुद की हार का सबसे बड़ा जोखिम उठाया था. वरना, पहली बार में ही सोमनाथ मुखर्जी जैसे दिग्गज को शिकस्त देने वाली ममता बनर्जी भला नंदीग्राम में अपनी हार का सबसे बड़ा रिस्क क्यों लेतीं?
ममता बनर्जी (Mamata Banrejee) ने नंदीग्राम हार कर एक पैर से बंगाल ही नहीं जीता है, दोनों पैरों से दिल्ली जीतने की तरफ भी जल्दी ही रफ्तार भरने की तैयारी कर रही होंगी. देखा जाये तो ममता बनर्जी भी उसी मोड़ पर आ खड़ी हुई हैं, जिस पर 2015 में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खड़े थे - और राष्ट्रीय स्तर पर वो भी तब नये सिरे से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चैलेंज करने की तैयारी कर रहे थे.
लेकिन ममता बनर्जी और नीतीश कुमार की राजनीति में बड़ा ही बुनियादी फर्क है - नीतीश कुमार वो मुकाम आरजेडी नेता लालू प्रसाद यादव से हाथ मिलाने के बाद ही हासिल कर पाये थे, लेकिन ममता बनर्जी ने उन्हीं मोदी और अमित शाह को अकेले शिकस्त दी है.
ममता बनर्जी का साथ जिसे छोड़ना था, पहले ही छोड़ चुका है. फिलहाल तो ममता बनर्जी को नीतीश कुमार जैसा टेंशन कतई नहीं है, जैसा वो लालू प्रसाद और महागठबंधन छोड़ने से 10-20 बार पहले जरूर सोचे होंगे. अब ममता बनर्जी को वही छोड़ सकता है जिसे खुद कोई बड़ा लालच न हो या फिर कोई उसे दिला पाये.
आज तक के सीधी बात बात में कांग्रेस के सीनियर होने के साथ साथ फिलहाल सोनिया गांधी के करीबी हो चुके कमलनाथ से मौजूदा दौर का महत्वपूर्ण सवाल पूछा गया - आपको क्या लगता है कि ममता बनर्जी को विपक्ष का नेतृत्व करने के लिए लीडरशिप देनी चाहिए?
सवाल के जवाब में कमलनाथ ने जो कुछ कहा वो 2015 में कांग्रेस नेताओं के बयान से काफी अलग लगा. तब तो ये हाल था कि नीतीश कुमार के प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को लेकर पूछे जाने पर लालू प्रसाद कहते थे - कोई शक है क्या? सार्वजनिक तौर पर ही सही लेकिन लालू प्रसाद ऐसा ही कहा करते थे, लेकिन जब भी ऐसे सवाल कांग्रेस नेताओं के सामने आते - नेता कोई भी हो, सबका जवाब एक ही होता कि प्रधानमंत्री पद के दावेदार तो राहुल गांधी ही होंगे.
गौर करने वाली बात ये है कि कमलनाथ ने वैसी जिद नहीं पकड़ी है और जो संकेत दिया है, उसमें काफी गंभीर इशारे भी लगते हैं - फिर भी जब तक कोई बात औपचारिक तौर पर नहीं बतायी जाती ये सवाल तो बना ही रहेगा कि ममता बनर्जी को लेकर सोनिया गांधी क्या सोच रही हैं?
कांग्रेस के पास अब ऑप्शन नहीं है
सीधी बात कार्यक्रम में कमलनाथ ने कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव को लेकर भी अपडेट दिया. कमलनाथ ने बताया कि चुनाव प्रक्रिया जारी है और सब कुछ होने में ज्यादा वक्त नहीं लगना चाहिये. वैसे भी कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव विधानसभा चुनावों तक के लिए ही टाला गया था. तब तो यही बताया गया था कि मई में कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव का काम होगा.
ममता बनर्जी को विपक्ष का नेता मान लेने में कांग्रेस और राहुल गांधी दोनो की ही भलाई है!
ये फैसला भी उन्हीं बैठकों में लिया गया था जिनमें कमलनाथ काफी सक्रिय नजर आये थे. खबर ये आ रही थी कि सोनिया गांधी को लगने लगा था कि कांग्रेस के असंतुष्ट और बागी नेता कहीं राहुल गांधी दोबारा ताजपोशी में कोई अड़ंगा न डाल दें. बताया गया कि कमलनाथ की ही पहल पर सोनिया गांधी की तरफ से कांग्रेस में G-23 नेताओं के साथ एक बैठक तय हुई. वे नेता पहुंचे भी, लेकिन बैठक से निकल कर गुलाम नबी आजाद ने जो कुछ कहा वो सुन कर तो यही लगा कि सारी कवायद बेकार गयी. बाद में तो गुलाम नबी आजाद ने जम्मू-कश्मीर की जमीन से कांग्रेस के बागियों की जमघट के जरिये कांग्रेस नेतृत्व को कड़े संदेश ही भिजवाये थे.
देश के मौजूदा राजनीतिक हालात और उसमें कांग्रेस की हैसियत को देखें तो सोनिया गांधी के सामने गिने चुने विकल्प ही बचे हैं. पहले तो कांग्रेस को बनाये रखने या अस्तित्व बचाये रखने के लिए जरूरी हो गया है कि एक फुलटाइम अध्यक्ष का इंतजाम किया जाये.
ये भी नहीं भूलना चाहिये कि अभी तक राहुल गांधी ने अपनी तरफ से कोई ठोस आश्वासन नहीं दिया है कि वो फिर से कांग्रेस अध्यक्ष बनने के लिए तैयार हैं. हालांकि, विधानसभा चुनावों से पहले कांग्रेस की तरफ से यही समझाने की कोशिश हो रही थी कि राहुल गांधी ही फिर से कमान संभालेंगे, भले ही ऐसी खबरें कांग्रेस के सूत्रों की तरफ से लीक की जा रही हों.
मान भी लेते हैं की कांग्रेस के अध्यक्ष की चुनाव प्रक्रिया चल रही है तो उसके नतीजे भी देर सबेर आ ही जाएंगे. ये भी मान लेते हैं कि कांग्रेस फिर से राहुल गांधी को ही चुन भी लेती है तो वो फुलटाइम अध्यक्ष भी बन जाएंगे - और ये भी मान लेते हैं कि कांग्रेस में सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखने वाले नेताओं की अपेक्षा के अनुरूप राहुल गांधी बतौर अध्यक्ष काम करते हुए दिखेंगे भी, लेकिन इससे क्या और कितना कुछ हो पाएगा.
क्या राहुल गांधी को फिर से कांग्रेस चुनाव जीत कर बना हुआ अध्यक्ष घोषित कर दे तो आने वालें चुनावों के नतीजों में फर्क आ जाएगा?
राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा दोनों का इम्तिहान अगले ही साल होने वाला है - जब 2022 में ही यूपी और पंजाब से लेकर गुजरात और हिमाचल प्रदेश तक की विधानसभाओं के लिए चुनाव होने हैं.
गुजरात और हिमाचल भूल भी जायें तो पंजाब की भी कोई टेंशन नहीं है. पंजाब में जीत हो या हार, जो भी होना होगा मौजूदा मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह पर ही निर्भर करेगा. सुरक्षा पेटी के तौर पर अमरिंदर सिंह ने पहले से ही प्रशांत किशोर को बांध ही लिया है - एक रुपये की तनख्वाह पर. वैसे प्रशांत किशोर का कहना है कि पश्चिम बंगाल के बाद वो इलेक्शन कैंपेन का काम नहीं करेंगे.
कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा इम्तिहान यूपी चुनाव होगा - हालांकि, उसे पहले से ही प्रियंका गांधी के सिर पर डाल कर प्रोजेक्ट किया जा रहा है, ताकि किसी भी नुकसान के लिए ठीकरा उनके सिर फोड़ कर राहुल गांधी को एक और हार से बचा लिया जाये.
क्या सोनिया गांधी ने कभी सोचा होगा - अगर कांग्रेस ही नहीं रहेगी तो राहुल गांधी को कौन पूछेगा? अगर राहुल गांधी के नाम में गांधी नहीं जुड़ा होता तो क्या वो ममता बनर्जी और शरद पवार की तरह कांग्रेस से अलग होकर अपनी पार्टी बनाकर मुख्यधारा की राजनीति में कहीं टिक पाते?
ममता बनर्जी या अब भी शरद पवार
कुछ दिन पहले शिवसेना की तरफ से शरद पवार को लेकर एक अभियान चलाया जा रहा था - शरद पवार को यूपीए का चेयरमैन बनाये जाने को लेकर. भले ही ये पूरे शिवसेना के मन की बात न हो, लेकिन संजय राउत के प्रवक्ता होने के नाते ऐसे बयान को महत्वपूर्ण तो माना ही जा सकता है.
बातों बातों में ही संजय राउत ने ये भी बता डाला था कि यूपीए तो अब किसी एनजीओ जैसा हो गया है - और एक सवाल ये भी कि मौजूदा दौर के सारे क्षेत्रीय और मजबूत नेता तो यूपीए से बाहर ही हैं. शुरू से ही यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी ही हैं. हालांकि, माना जा रहा है कि कांग्रेस अध्यक्ष की जिम्मेदारी किसी और को सौंप देने के बाद वो यूपीए के नेतृत्व से भी खुद को अलग कर लेना चाहेंगी - और शिवसेना की तरफ यही सोच कर शरद पवार के नाम पर जनमत जुटाने का काम होने लगा था.
असल में शरद पवार को यूपीए का अध्यक्ष बनाये जाने के पीछे एक ही मकसद है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को चैलेंज करने के लिए खड़ा करना. ये शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे ही हैं जो सोनिया गांधी की बुलायी मीटिंग में ममता बनर्जी से पूछे थे - दीदी, डरना है या लड़ना है?
पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजों से बदले माहौल में देश की राजनीति में ममता बनर्जी का कद तो बढ़ ही गया है - आज की बात करें तो मोदी विरोध की राजनीति में ममता बनर्जी के आगे कोई नजर नहीं आ रहा है - हां, राहुल गांधी अब खुद को ऐसा मान कर चल रहे हैं तो मान लेना चाहिये कि ये महज उनके मन की ही बात है.
ऐसे ही राजनीतिक माहौल में कमलनाथ से किया गया सवाल और मिला जवाब बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है. मान लेते हैं कि राहुल गांधी ने पश्चिम बंगाल की अपनी रैली में मोदी की ही तरह ममता बनर्जी पर भी आरोप लगाये और सवाल खड़े किये, लेकिन कुल मिलाकर देखें तो कांग्रेस नेतृत्व ने ममता बनर्जी के प्रति नरम रुख ही अपनाये रखा - और आखिर में राहुल गांधी बस हाजिरी दर्ज कराने गये थे क्योंकि उसके बाद तो कोविड 19 फैलने के नाम पर अपनी सारी रैलियां ही रद्द कर दी थी.
कमलनाथ से सीधी बात में प्रभु चावला का सवाल था - आपने कहा कि ममता जी काफी आक्रामक नेता हैं. आपने उनकी तारीफ की. आपको क्या लगता है कि ममता बनर्जी को विपक्ष का नेतृत्व करने के लिए लीडरशिप देनी चाहिए?
कांग्रेस के G-23 नेताओं को छोड़ दें तो बाकी कोई भी नेता अपनी बातों से ये संकेत तो नहीं ही जाने देता कि वो राहुल गांधी के अलावा किसी और का नेतृत्व स्वीकार करने के लिए तैयार है - वैसे कमलनाथ ने भी कोई हामी नहीं भरी है, लेकिन जो संकेत दिया है उसमें काफी गुंजाइश तो बनती ही है.
कमलनाथ का कहना रहा कि आज यूपीए को बैठकर फैसला करना पड़ेगा. सलाह दी कि सोनिया गांधी भी ममता बनर्जी से बात करें. और सबसे महत्वपूर्ण बात - सोनिया जी भी जानती हैं कि क्या स्थिति है. आज किसी ने अपनी आंखें नहीं बंद की है.
बिलकुल सही जवाब. कमलनाथ ने ऐसा ही किया है. लगता तो ऐसा है कि वो सोनिया गांधी को भी यही समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि हकीकत से पल्ला झाड़ने की कोशिश न की जाये - जैसे भी हो, जितना भी तकलीफदेह लगे लेकिन सच को स्वीकार किया ही जाये.
सच तो ये है कि ममता बनर्जी देश में विपक्ष की राजनीति में आज सबसे बड़ा चेहरा बन चुकी हैं - और सोनिया गांधी को भी ये सच स्वीकार कर ही लेना चाहिये.
सच का सामना सोनिया गांधी जितना जल्दी कर लें, कांग्रेस और राहुल गांधी दोनों ही के लिए बेहद फायदेमंद रहेगा. वैसे भी कांग्रेस तो राहुल गांधी को अब भी युवा नेता ही मानती है. अगर मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी ही नहीं ममता बनर्जी से भी तुलना करके देखें तो ऐसा सोचना गलत भी नहीं है.
अगर राहुल गांधी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को को कांग्रेस 10-15 साल के लिए होल्ड भी कर ले तो बहुत कुछ बिगड़ने वाला नहीं है. उसके बाद भी राहुल गांधी के पास पूरा मौका रहेगा - और कांग्रेस भी शायद बची रहे.
सोनिया गांधी बस ये स्वीकार कर लें कि ममता बनर्जी देश की राजनीति का वर्तमान हैं और राहुल गांधी भविष्य - ये समझने भर की देर है और बहुत बड़ा चमत्कार हो सकता है.
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