क्या भारत में अल्पसंख्यक अलग-थलग हैं?
AMU की वर्षगांठ के अवसर परPM के भाषण को सुनकर शेखर गुप्ता को मुस्लिमों के बारे में ‘भाजपा से अलग’ मोदी का रवैया दिखाई दिया है. मुसलमानों के संदर्भ में गहरी चिंता जाहिर करते हुए उन्होंने ‘नाराज, हताश और उपेक्षित’ शब्दों के प्रयोग किए हैं. यह बेहद गंभीर है कि भारत में कोई समुदाय अपने आपको किसी भी राज्य में अलग-थलग, नाराज, हताश और उपेक्षित महसूस करे.
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पुरानी आदतें जड़ जमा चुके बुरे नशे की तरह होती हैं. मुश्किल से ही छूटती हैं. अव्वल तो प्राण छूट जाएं आदतें नहीं छूटतीं. पत्रकार शेखर गुप्ता की एक टिप्पणी मुझे ऐसी ही आदतों की याद दिला रही है. दैनिक भास्कर में छपने वाले अपने कॉलम में उन्होंने 29 दिसंबर को लिखा-‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) ने ‘खुद को अलग-थलग महसूस कर रहे भारतीय मुसलमान (Indian Muslims) अल्पसंख्यकों’ (Minorities) की ओर पहली बार हाथ बढ़ाया है.’ अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU)की वर्षगांठ के अवसर पर प्रधानमंत्री के भाषण को सुनकर शेखर गुप्ता को मुस्लिमों के बारे में ‘भाजपा से अलग’ मोदी का रवैया दिखाई दिया है. मुसलमानों के संदर्भ में गहरी चिंता जाहिर करते हुए उन्होंने ‘नाराज, हताश और उपेक्षित’ शब्दों के प्रयोग किए हैं. यह बेहद गंभीर है कि भारत में कोई समुदाय अपने आपको किसी भी राज्य में अलग-थलग, नाराज, हताश और उपेक्षित महसूस करे. किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र का लक्षण यह नहीं है. सबके साथ बराबरी का व्यवहार ही लोकतंत्र में सत्ताधीशों से अपेक्षित है और ऐसी अपेक्षा बुरी बात नहीं है. इसके लिए अड़ने और आंदोलन करने के साथ ही अदालतों के रास्ते भी खुले हुए हैं. लेकिन भारतीय मुसलमानों के संदर्भ में क्या यह तोहमत सही है कि वे खुद को अलग-थलग महसूस कर रहे हैं? क्या यह दूषित और विकलांग सेक्युलर सोच से उपजी एक गलत व्याख्या नहीं है?
ये सुनना कि भारत का मुसलमान अपने को अलग महसूस कर रहा है अपने में दुर्भाग्यपूर्ण है
भारतीय मुसलमानों का जिक्र करते हुए उन्हें ‘अल्पसंख्यक’ लिखना ही दोषपूर्ण है. जाने-माने वकील अश्विनी उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट में बाकायदा एक याचिका लगाकर अल्पसंख्यक की परिभाषा स्पष्ट करने की गुहार लगाई थी. इसका आधार वे नौ राज्य थे, जहां हिंदू अल्पसंख्यक हो चुके हैं, लेकिन अल्पसंख्यकों के नाम पर बंटने वाली सारी सरकारी खैरात स्थानीय बहुसंख्यक ही हड़प रहे हैं. अल्पसंख्यक की प्रचलित ठोस परिभाषा में भी सबसे पहले मुसलमान हैं, जो बाकी सब अल्पसंख्यकों के जोड़ से भी ज्यादा हैं.
किस मुल्क में 20 करोड़ की आबादी अल्पसंख्यक के रूप में मान्य हो सकती है? लेकिन सत्तर साल तक दूषित और एकपक्षीय सेक्युलर तंत्र में पली-पनपी सोच में जब भी मुसलमानों का जिक्र होगा, उनके आगे अल्पसंख्यक लिखा जाना ऐसे जरूरी होगा, जैसे वह उन्हें प्रदत्ता कोई सम्मान हो. नदीम एक कारपेंटर है. वह हमेशा की तरह अपने काम में लगा है. अब्दुल अपने गैराज में बराबर मेहनत कर रहा है. कोई मुसलमान जज है तो वह रोज की तरफ फैसले सुना रहा है. अफसर है तो अफसरी कर रहा है.
वे पहले की तरह दफ्तर का काम छोड़कर दिन की नमाजें पूरी करने जा रहे हैं. टीचर है तो पढ़ा रहा है. स्टुडेंट है तो पढ़ रहा है. जो सरकारी योजनाओं के पात्र हैं, उन्हें बराबर सब तरह की योजनाओं का भरपूर फायदा मिल रहा है. कश्मीर में तो पहली बार वोट डालने के लिए बेखौफ होकर लोग कतारों में खड़े देखे गए हैं. वे अलग-थलग होकर कहीं पहाड़ों में नहीं गए. कहीं कोई अलग-थलग नहीं है. कोई स्कूल-कॉलेज, दफ्तर, अदालत, गैराज और अपना हुनर छोड़कर मायूस घर में नहीं पड़ा है, जहां झांक-झांककर शेखर गुप्ता जैसे पत्रकार अखबारों में ऐसा लिख रहे हैं.
यह मुसलमानों को एक पीड़ित पक्ष की तरह प्रस्तुत करने वाले विक्टिम कार्ड पर मुहर लगाने का घृणित काम है. पाकिस्तान की पूरी आबादी के बराबर यही भारतीय मुसलमान (जो कि अल्पसंख्यक भी हैं), क्या तब भी अलग-थलग महसूस कर रहे थे या डरे हुए थे, जब सच्चर कमेटी की रिपोर्ट ने उनकी नारकीय बदहाली पर चंद अशआर लिखे थे? सच्चर कमेटी की रिपोर्ट एक तरह से आजादी के बाद से लेकर सच्चर साहब के टेबल पर बैठने तक रही सब सरकारों की पोल ही खोल रही थी.
वह उन सब सेक्युलर सरकारों के गालों पर पड़े एक तमाचे की तरह थी, जिन्होंने साठ साल तक मुसलमानों को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया था और मुसलमानों की जमीनी असलियत सच्चर साहब अपनी रिपोर्ट में लिख रहे थे. इतिहास के अनुभव बताते हैं कि मुसलमान कहीं और कभी, अलग-थलग हो ही नहीं सकता. लोकतंत्र तो बहुत बाद में उड़ी हुई एक चिड़िया का नाम है. 14 सौ साल के इतिहास की गवाही हर उस देश में दर्ज है, जहां इस्लाम ने पैर पसारे. इस्लाम की आक्रामक वैचारिक और दार्शनिक ताकत अपने अनुयायियों को कहीं अलग-थलग बर्दाश्त नहीं कर सकती.
वह एक किस्म का असंतोष तब तक गर्भ में पालकर रखती है जब तक उनका परचम सत्ता के शिखरों पर फहराने लायक संख्या का पशुबल पैदा नहीं होता. वही कृत्रिम असंतोष और नाराजगी सियासी मंचों पर विक्टिम कार्ड बनकर प्रकट होती रहती है, जो हवाओं के रुख, सूरज की रोशनी और धरती की गति तक में अपने खिलाफ एक साजिश देखती है. वे सेक्युलर नाव में तब तक दम साधे रहते हैं जब तक कि कोई मजहबी पोत पास में न आ जाए। जैसे ही कोई इस्लामी विकल्प सामने आता है, वे कूदकर उस पर सवार होने में एक सेकंड नहीं लगाएंगे और तब सारा लोकतंत्र दो कौड़ी का हो जाएगा.
हर समय और हर जगह हरचंद कोशिश यही कि जिस झपट्टे में जितना झपट लें. पहले पाकिस्तान, फिर कश्मीर, फिर विक्टिम कार्ड के साथ कहीं तीस फीसदी और कहीं चालीस फीसदी का वोट बैंक. जैसे ही कोई ओवैसी आया, बिहार के मध्यांचल वालों ने कांग्रेस, आरजेडी समेत सारी सेक्युलर नावों को डूबने के लिए पीछे छोड़ दिया और तकबीर का नारा बुलंद हो गया.एक बार ताकत में आए तो अलग-थलग होना दूसरे शुरू हो जाते हैं. उदाहरण भरे पड़े हैं.
शेखर गुप्ता अकेले नहीं हैं. यह एक पूरी जमात है, जिनके सोचने के तरीके पुरानी आदतों जैसे हैं. इनके लिए अल्पसंख्यक के नाम पर मुस्लिमपरस्ती की बातें एक ऐसा फैशन हैं, जिसका रंग दुनिया भर में उड़ चुका है. ये बेरौनक बाजार में खड़े कारोबारी हैं, जिनके मख्खियां भिनभिनाते उत्पाद सेहत के लिए हानिकरक सिद्ध हो चुके हैं.
घाटी से निकाले गए हिंदुओं को छोड़ दीजिए, हाल के वर्षों में जम्मू कश्मीर में ‘रोशनी एक्ट’ में उन्हें अल्लाह का नूर नजर आएगा. सीएए के खिलाफ शाहीनबाग मुसलमानों की नाराजगी का प्रतीक नहीं था, वह यह बताने की एक जोरदार कोशिश थी कि हम अलग-थलग नहीं हैं. कोई ऐसा मानने की भूल भी न करे. हम अब असम को बाकी हिंदुस्तान से काटने का इरादा रखते हैं. दिल्ली के बाद बेंगलुरू में ठीक से बताया गया कि किसी शहर में आग लगानी हो तो मसले पैदा करना भी काेई हमसे सीखे.
पाकिस्तान से दो ताजा खबरें हैं. खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के करक जिले में जमीयत उलमा-ए-इस्लाम नाम की सियासी पार्टी की एक रैली में भड़काऊ भाषण सुनकर निकली भीड़ ने एक पुराने हिंदू मंदिर पर हमला कर दिया. मंदिर को तोड़-फोड़ कर आग के हवाले कर दिया गया. दूसरी खबर इस्लामाबाद से है. तीन स्वयंसेवी संगठनों ने एक स्टडी के आधार पर बताया है कि हर साल करीब एक हजार से ज्यादा हिंदू, सिख, ईसाई लड़कियों को उठा लिया जाता है और उनके निकाह करके धर्मांतरण जारी है.
पुलिस का रवैया मामलों को रफा-दफा करने का पाया गया. सिंध में अब भी गुलामी की प्रथा है और ये गुलाम कोई और नहीं असल अल्पसंख्यक हिंदू हैं, जो साफ होने की कगार पर आखिरी सांसे ले रहे हैं. ये खबरें ताजा भले ही हैं, लेकिन पाकिस्तान की आम खबरें हैं. यह एक मनोवृत्ति को दर्शाती हैं, जो दुनिया भर में बहुत साफ देखी जा रही है. अलबत्ता भारत में एक तबका पुरानी आदतों में ही ठहरा हुआ है, जो नशे की बुरी लत की तरह उनका पीछा नहीं छोड़ रहीं. उनकी नजर में मुसलमान ‘अल्पसंख्यक’ भी हैं. ‘अलग-थलग’ भी. ‘नाराज’ भी. ‘उपेक्षित’ भी. क्या मजाक है.
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