यूपी चुनाव के लिए आख़िर क्या है बहनजी की रणनीति?
बीएसपी भले ही मायावती को दलितों का मसीहा साबित करने की कोशिश करे, लेकिन 2012 के यूपी चुनाव और 2014 के लोकसभा चुनाव ने ये साबित कर दिया कि बहनजी का युवा दलित वोट बैंक पर से एकाधिकार खत्म होता जा रहा है. इसलिए सवाल है कि बहनजी का अगला कदम क्या होगा?
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2012 के उत्तरप्रदेश चुनाव के दौरान जब मैं रिपोर्टिंग के लिए बुंदेलखंड के दूरदराज इलाकों में गई थी, तभी इस बात का एहसास हो गया था कि बहुजन समाज पार्टी की मौजूदगी उन इलाकों में न के बराबर है. जबकि वहां की आबादी का एक बड़ा हिस्सा दलितों और पिछड़ों का था.
अब जबकि राज्य में 2017 के लिए चुनाव होने हैं और इस बार समाजवादी पार्टी की अखिलेश सरकार और केंद्र की बीजेपी सरकार इन चुनावों में अपना झंडा फहराने के लिए एड़ी-चोटी एक किए हुए है तो मेरे मन में फिर से ये सवाल उठ रहा है कि बीएसपी प्रमुख मायावती, किस तरह की तैयारी में व्यस्त हैं? ऐसा क्यों है कि जहां पिछली बार मुख्य मुक़ाबला कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच माना जा रहा था, वहीं इस बार समाजवादी पार्टी और बीजेपी के बीच? आखिर बीएसपी कहां खड़ी है इन चुनावों में और बहनजी कि रणनीति क्या है?
किस तरह की तैयारी में व्यस्त हैं मायावती? |
मायावती चार बार उत्तरप्रदेश की मुख़्यमंत्री रह चुकी हैं. लेकिन उनकी इस सफलता में मीडिया का रोल नगण्य है. वे हमेशा से मीडिया से एक तरह से बेरुखी भरा बर्ताव करती रही हैं. मानो उन्हें मीडिया की ज़रुरत ही नहीं है. या फिर ये कि उन्हें मीडिया से ज़्यादा भरोसा अपने वर्ग और समाज के लोगों में हैं.
वे मीडिया के सामने अक्सर सरकारी पीसी नुमा इंटरव्यू में ही नज़र आती हैं. ज़्यादा सवाल पूछे जाने पर वे हंसते हुए उन्हें इग्नोर करती हैं और पत्रकारों से ये कहना नहीं भूलतीं कि खाने का इंतजाम किया है. खाना खाकर जाइयेगा. मतलब, मीडिया उनके लिए मात्र संदेशवाहक है. कोई ज़रिया नहीं. उनके लिए उनका अपना काडर ही उनका मेसेंजर भी है और सत्ता साधक भी. लेकिन क्या आगामी विधान-सभा चुनाव में बहनजी का ये सपोर्ट सिस्टम उन्हें सफलता दिला पाएगा?
ये सही है कि मायावती के बहुजन समाज पार्टी के वोटरों की निष्ठा पार्टी और उसके नेता के प्रति बहुत ग़हरी है. लेकिन बदलते दौर में जब बीजेपी अपने पिछड़े कोटे से आये प्रधानमंत्री का गुणगान हर मंच से बढ़-चढ़ कर कर रही है तब क्या बहुजनों का वर्ग सिर्फ़ बहनजी के नेतृत्व में अपना भला देखता है? प्रधानमंत्री और उनके सिपाही खुद (चुनावों के मद्देनज़र ही सही) बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के प्रति अपनी श्रद्धा बढ़-चढ़ कर साबित कर चुके हैं. पहली बार यूपीएससी की परीक्षा में कोई दलित लड़की टॉप करती है, दलितों के उत्थान के लिए कई सरकारी योजनाओं की शुरुआत की जाती है, बाबा साहब को अपना साबित करने की मानो होड़ सी मची है. ऐसे में मायावती कैसे ये साबित करेंगी कि दलितों और पिछड़ों की असली सिरमौर वो या उनकी पार्टी ही है कोई और नहीं.
वे या उनकी पार्टी भले ही उनको दलितों का मसीहा साबित करने की कोशिश करें, लेकिन 2012 के यूपी चुनाव और 2014 के लोकसभा चुनाव ने ये साबित कर दिया कि बहनजी का युवा दलित वोट बैंक पर से एकाधिकार खत्म होता जा रहा है. ये वो वर्ग है जिन्हें उनके बनाए गए पार्क और स्मारकों में कोई रुचि नहीं है. न ही उनके आलीशान जीवन शैली में. ये वो वर्ग है जो अपना भविष्य उनकी नीतियों, फैसलों और सरकारी पैसे के इस्तेमाल के तौर-तरीके के बरक्स देखने की कोशिश करता है. उन्हें पता है कि उनकी अस्मिता और आत्मसम्मान किसी पार्क या स्मारक में नहीं बल्कि नौकरी, शिक्षा और सामाजिक समानता में निहित है. ये वो वर्ग है जो कंप्यूटर, टीवी और इंटरनेट के ज़रिए पूरी दुनिया से जुड़ा हुआ है.
इस नए समीकरण के बीच मायावती की चुप्पी असाध्य है. हम जैसे लोग जो उनकी हर राजनैतिक कदम का इंतज़ार करते हैं, वो जानना चाहते हैं कि बहनजी का अगला कदम क्या होगा? आने वाले विधानसभा चुनावों में क्या एक बार फिर हमें पुराने बेलौस अंदाज़ वाली वन वुमन आर्मी बहन मायावती का दीदार होगा या फिर नई पीढ़ी के साथ समन्वय स्थापित करतीं एक नई जननेता का, जो पुराने के साथ नए के साथ कदमताल मिलातीं दिखाई देंगी.
बहनजी, समय कम है अपनी चुप्पी तोड़िए.
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