Subhash Chandra Bose Birthday : नेताजी सुभाष होते तो रूकवा देते देश का दुर्भाग्यपूर्ण बंटवारा!
Subhash Chandra Bose Birthday: क्या नेताजी सुभाष चंद्र बोस 1947 में जीवित होते तो पाकिस्तान का सपना कभी भी हकीकत में बदलता? क्या वे मोहम्मद अली जिन्ना को समझा पाते कि भारत के बंटवारे से किसी को कुछ लाभ नहीं होगा? आज यानी 23 जनवरी को उनका जन्मदिन है ऐसे में ये सवाल अपने आप में महत्वपूर्ण हैं.
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क्या नेताजी सुभाष चंद्र बोस यदि जीवित होते तो पाकिस्तान का सपना कभी भी हकीकत में बदलता? क्या वे मोहम्मद अली जिन्ना को साम–दाम–दंड-भेद से समझा पाते कि भारत के बंटवारे से किसी को कुछ लाभ नहीं होगा? ये सवाल अपने आप में काल्पनिक होते हुए भी महत्वपूर्ण हैं. नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जीवन काल में ही अखिल भारतीय मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान का प्रस्ताव परित किया था. जिन्ना ने 23 मार्च, 1940 को लाहौर के बादशाही मस्जिद के ठीक आगे बने मिन्टो पार्क में एक सभा को संबोधित करते हुए अपनी घनघोर सांप्रदायिक सोच को खुलेआम प्रकट कर दिया था. जिन्ना ने सम्मेलन में अपने दो घंटे लंबे बेहद आक्रामक भाषण में हिन्दुओं को पानी पी पीकर कोसा था. उन्होंने कहा था कि,'हिन्दू– मुसलमान दो अलग धर्म हैं. दोनो के अलग-अलग विचार हैं. दोनों की परम्पराएं और इतिहास भी अलग हैं. दोनों के नायक भी अलग है. इसलिए दोनों कतई साथ नहीं रह सकते.' जिन्ना ने अपनी तकरीर के दौरान लाला लाजपत राय से लेकर दीनबंधु चितरंजन दास को खुलकर अपशब्द कहे. जाहिर है, नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने जिन्ना के भाषण के अंश पढ़े ही होंगे.
पाकिस्तानी लेखक फारूक अहमद दार ने अपनी किताब 'जिन्नाज पाकिस्तान: फॉर्मेशन एंड चैलेंजेंस' में लिखा है कि मुस्लिम लीग के पाकिस्तान के हक में प्रस्ताव पारित करने के बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस के अध्यक्ष की हैसियत से जिन्ना से आग्रह किया था कि वे अलग देश की मांग को छोड़ दें. उन्होंने जिन्ना को भारत के आजाद होने के बाद पहला प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव भी दिया था. कुछ इसी तरह का प्रस्ताव कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सी. राजागोपालचारी ने भी जिन्ना को दिया था.
जैसा कद था नेताजी सुभाष चंद्र बोस यदि जीवित होते तो पाकिस्तान का सपना कभी भी हकीकत नहीं बनता
जाहिर है कि जिद्दी जिन्ना ने नेताजी की पेशकश पर सकारात्मक उत्तर नहीं दिया. उसके बाद का इतिहास तो सबको पता ही है. नेताजी सुभाष चंद्र बोस पेशावर के रास्ते देश से चले गए भारत को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्ति दिलवाने के लिए. फिर वे दुनिया के अनेक देशों में रहे. उन्होंने सिंगापुर में आजाद हिन्द फौज का गठन किया. जाहिर है कि देश से बाहर जाने के बाद वे जिन्ना या मुल्लिम लीग की गतिविधिवियों से लगभग दूर हो गए.
अभी तक तो यह कहा जाता है कि उनकी एक विमान हादसे में 1945 में मृत्यु हो गई थी. लेकिन, अभी तक इसके कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिले हैं. सत्तर साल कांग्रेस सरकार ने जनता को विमान दुर्घटना की कहानी ही बताई. मोदी सरकार ने नेताजी से जुड़े गुप्त दस्तावेजों को सार्वजनकि कर दिया. अब रोज नये-नये तथ्य सामने आ रहे हैं.
पर जरा सोचिए कि उनकी मृत्यु नहीं होती तब उनकी जिन्ना के 16 अगस्त 1946 के डायरेक्ट एक्शन के आह्वान को लेकर किस तरह की प्रतिक्रिया होती. जिन्ना ने 16 अगस्त,1946 के लिए डायरेक्ट एक्शन का आहवान किया था. एक तरह से वह हिन्दुओं के खिलाफ दंगों की शुरूआत थी. तब बंगाल में मुस्लिम लीग की सरकार थी. उसने दंगाइयों का खुलकर साथ दिया था. उन दंगों में कोलकाता में पांच हजार मासूम हिन्दू मारे गए थे.
मरने वालों में उड़िया मजदूर सर्वाधिक थे. फिर तो दंगों की आग चौतरफा फैल गई. मई, 1947 को रावलपिंडी में मुस्लिम लीग के गुंडों ने जमकर हिन्दुओं और सिखों को मारा, उनकी संपति और औरतों की इज्जत खुलेआम लूटी. रावलपिंडी में सिख और हिन्दू खासे धनी और संपन्न थे. इनकी संपत्ति को निशाना बनाया गया. पर जिन्ना ने कभी उन दंगों को रूकवाने की अपील तक नहीं की.
वे एक बार भी किसी दंगा ग्रस्त क्षेत्र में नहीं गए. डायरेक्ट एक्शन की आग पूर्वी बंगाल तक पहुंच गई थी. वहां पर भी हजारों हिन्दुओं का कत्लेआम हुआ था. उस कत्लेआम को रूकवाने के लिए बाद में महात्मा गांधी भी गए थे. बेशक, नेताजी सुभाषचंद्र बोस तो जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन के खिलाफ जनशक्ति के साथ सड़कों पर उतर जाते. वे कोलकाता के 1930 में मेयर थे. उन्हें कोलकाता के चप्पे- चप्पे की जानकारी थी.
वे जिन्ना और मुस्लिम लीग के गुंडों का सड़कों पर मुकाबला करते. वे जुझारू नेता थे. नेताजी घर में बैठकर हालातों को देखने वालों में से नहीं थे. पर अफसोस कि वे इससे पहले ही संसार से विदा हो चुके थे. पर मान लें कि अगर वे जिन्दा होते तो भारत का इतिहास ही आज के दिन अलग होता. तब संभवत: देश विभाजित ही न होता. उनका मुसलमानों के बीच में भी जबरदस्त असर था.
आजाद हिन्द सेना में उनके एक अहम साथी शाहनवाज खान थे. उनके अलावा भी आजाद हिन्द सेना में मुसलमानों की तादाद भी बहुत अधिक थी. नेताजी सुभाष की शख्सियत बेहद चमत्कारी और सेक्युलर थी. गौर करें कि देश के बंटवारे का असर मुख्यतः बंगाल और पंजाब पर ही हुआ. ये ही बंटे. बंगाल तो नेताजी का गृह प्रदेश था. इन दोनों राज्यों में मुसलमान और सिख भी उन्हें ही अपना नायक मानते थे.
नामधारी सिखों के लिए वे बेहद आदरणीय थे और अब भी हैं. नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म दिन आते ही बुजुर्ग नामधारी सिख उन्हें कृतज्ञ भाव से याद करने लगते हैं. नेताजी का नामधारी सिखों से संबंध 1940 के दशक आरंभ में स्थापित हुआ था. तब नेताजी सुभाष चंद्र बोस थाईलैंड में भारत को अंग्रेजी राज की गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए वहां पर बसे भारतीय समाज के संपर्क में थे.
एक दिन नेताजी सुभाष चंद्र बोस का थाईलैंड की नामधारी सिख बिरादरी के प्रमुख सरदार प्रताप सिंह के आवास में जाने का कार्यक्रम बना. वहां पर तमाम बिरादरी मौजूद थी. नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने उधर आहवान किया कि वे उनकी धन इत्यादि से मदद करें ताकि वे गोरी सरकार को उखाड़ फेंक सकें. उसके बाद वहां पर मौजूद नामधारी और दूसरे भारतीयों ने धन, गहने और अन्य सामान नेताजी सुभाष चंद्र बोस को देना चालू कर दिया.
वे यह सब देख रहे थे. पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस को यकीन नहीं हुआ कि उनके मेजबान ने उन्हें अंत तक कुछ नहीं दिया. तब उन्होंने सरदार प्रताप सिंह से पूछा, 'तो आप नहीं चाहते कि भारत माता गुलामी की जंजीरों से मुक्त हो.' जवाब में सरदार प्रताप सिंह ने विनम्रता से कहा, 'नेताजी, मैं इंतजार कर रहा था कि एक बार सारे उपस्थित लोग अपनी तरफ से जो दे ना है, दे दें. उसके बाद उसके बराबर की रकम आपको अलग से भेंट करूंगा.'
ये सुनते ही उन्होंने सरदार प्रताप सिंह को गले लगा लिया. उन्हीं सरदार प्रताप सिंह का सारा कुनबा राजधानी में दिल्ली में रहता है. बहरहाल, जब देश के बंटने की नौबत आई तो भारत माता का इतना बड़ा सपूत संसार से जा चुका था.
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