क्यों सुषमा स्वराज संसद में अपना नुकसान कर बैठी हैं?
हकीकत में एक वरिष्ठ लेकिन राजनीतिक रूप से हल्के कांग्रेसी मंत्री ने जानबूझकर गांधी परिवार को शर्मिंदा करने के लिए उन खातों से प्रतिबंध हटा लिया था.
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बचाव हो या हमलावर रुख, संसद में बहस करने के मामले में आज सुषमा स्वराज से बेहतर कोई नहीं है. ललित मोदी के मुद्दे पर स्थगन प्रस्ताव पर वह पहले दिन से ही आक्रामक रही हैं. जब बहस शुरू हुई, तो वह अच्छी तरह से तैयारी के साथ आई थीं. उन्होंने कांग्रेस और खासकर गांधी परिवार पर कुछ तीखे हमले किए. 1984 की सर्दियों में कांग्रेस की देखरेख में यूनियन कार्बाइड के वारेन एंडरसन के भागने का मामला इस मौके के लिए खास नहीं था. लेकिन इंग्लैंड में ओत्तावियो क्वात्रोकी के बैंक खातों से रोक हटाना एक शर्म की बात थी.
इंडियन एक्सप्रेस में रितु सरीन ने 2006 में वह स्टोरी मेरी देखरेख में ही ब्रेक की थी. और मुझे याद है कि यह मामला कांग्रेस के लिए गहरी शर्मिंदगी की वजह बन गया था. लेकिन उन्होंने अहंकार के कारण इस मामले में वैसी ही बेशर्मी दिखाई, जैसी बाद में भाजपा ने कई घोटालों में अपने नेताओं के नाम आने पर. कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने तो उस वक्त इन खातों से रोक हटाए जाने को रुटीन बताकर समझाने की कोशिश की थी.
कुछ बड़े नेता चौंकाने वाले तर्क दे रहे थे, ताकि सोनिया गांधी को उस जाहिर सी शर्मिंदगी से दूर किया जा सके.
"बॉस, अगर सोनिया जी क्वात्रोकी के लिए लंदन में सिर्फ 28 करोड़ रुपए चाहती थीं, तो हम इसका इंतजाम दो घंटे में कर सकते थे, इसके लिए इस तरह के निशान पीछे छोड़ देने की जरूरत थी?" सभी स्पष्टीकरणों में यह सबसे बेशर्मीभरा था. यह एक तरह का कटाक्ष था जबकि हकीकत में एक वरिष्ठ लेकिन राजनीतिक रूप से हल्के कांग्रेसी मंत्री ने जानबूझकर गांधी परिवार को शर्मिंदा करने के लिए उन खातों से प्रतिबंध हटा लिया था.
यही कारण है कि यह गांधी परिवार और कांग्रेस पार्टी के इतिहास में यह एक ऐसा अध्याय है, जिसका बचाव नहीं किया जा सकता, सुषमा स्वराज का इतना कहना तो सही है.
लेकिन यह उन्हें गैर जिम्मेदाराना काम से दोषमुक्त नहीं करता, जो उन्होंने किया है. मैं इस आरोप को नहीं मान सकता कि उन्होंने किसी से रिश्वत ली है. वे वसुंधरा राजे की तरह नहीं हैं, जो ललित मोदी की दोस्त या व्यापार में भागीदार भी हैं. लेकिन उन्होंने अपने दायरे के बाहर जाकर उसकी मदद की, सामान्य तौर पर उन्होंने इस तरह से कभी भी किसी की मदद नहीं की होगी.
ललित मोदी मदद लेने के लिए सीधे उन तक कैसे पहुंचे? क्या कोई ईमेल है, कोई पत्र, ट्वीट या कुछ भी ऐसा जिसे जनता के सामने रखा जा सके? सभी तरह से यह जान पड़ता है कि यह सिर्फ एक निजी फोन कॉल थी. भारत जैसे बड़े देश के विदेश मंत्री के लिए मात्र किसी व्यक्ति की फोन कॉल पर कार्रवाई करना कैसे उचित है. और किसी दूसरे देश के दूत को कॉल करना, कहना कि मुझे कोई आपत्तिस नहीं है, क्या यह सीधे-सीधे मदद किए जाने का सबूत नहीं है?
सिर्फ बहस की कसौटी पर देखा जाए, तो वे लोकसभा में शानदार थीं. लेकिन ललित मोदी वाली बेवकूफी ने उन्हें नुकसान पहुंचाया है. यह देखना बड़े अफसोस की बात है कि हमारा एक सम्माननीय और लोकप्रिय नेता आज के सबसे विवादास्पद व्यक्ति के साथ अपने मेलजोल के कारण विवाद में पड़ गया है.
मेरे ख्याल में 'खेद' का एक शब्द भी क्रम में होना चाहिए था. सिर्फ स्वीकार कर लेतीं कि मानवता में बहने वे दिमाग का इस्तेमाल नहीं कर पाईं, तो शायद कुछ भरपाई हो जाती. उनकी सराहना करने वाले बहुत से वरिष्ठ पार्टीजन मुस्कुरा रहे हैं. उन्हें लग रहा है कि यह भविष्य में उनकी राजनीति को प्रगति देगा और इस हद तक कि उन्हें शीर्ष पद के लिए देखा जाएगा. शायद वे इसे इस तरह खत्म करना नहीं चाहती होंगी. लेकिन उनके पास मौका था कि वे स्क्रिंप्ट को बदल देतीं, मानवता और पश्चाताप का छोटा सा अंश जोड़कर.
एक अलग रूप: मुझे सुषमा से बार-बार स्व. अर्जुन सिंह के संस्मरण से गांधी परिवार को शर्मिंदा करने वाली बात सुनकर कर बहुत शर्म महसूस हुई थी. चमचागिरी में घिरे रहे अर्जुन सिंह ने यूपीए के 2004 में सत्ता में आने के समय से ही गांधी परिवार का विरोध शुरू कर दिया. उन्हें लगता था कि 1992 में (बाबरी मस्जिद कांड के बाद) और 2004 में सोनिया ने दो बार उन्हें प्रधानमंत्री बनाए जाने से इनकार किया.
वो इस बात से नाराज़ थे कि उन्होंने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बना दिया, जिन्होंने कभी बोलने की कोशिश नहीं की. वह केवल एक "नौकरशाह" थे, जो फ़ाइलें लेकर उनके दरवाजे के बाहर खड़े रहा करते थे. अर्जुन सिंह एक समाजवादी होने का दावा करते थे लेकिन वह गहरे सामंती थे. उनके और मेरे बीच एक बहुत ही दिलचस्प रिश्ता था. वह अक्सर मुझ पर चिल्लाया करते थे, यहां तक कि मुझे मेरी नौकरी से निकलवा देने की धमकी दिया करते थे लेकिन उन्होंने कभी मुझसे बात करना या मेरे फोन का जवाब देना बंद नहीं किया. उनके बारे में विधिवत इस तथ्य का उल्लेख मैंने मेरे कॉलम राष्ट्रहित में भी किया है.
एक बार जब मैंने उनका चिरपरिचित एक नारा "अर्जुन सिंह की अंतिम इच्छा, सोनिया-राहुल मांगे भिक्षा" लिखकर उनकी टांग खिंचाई की तो वह मुझ पर चिल्लाए नहीं. उन्होंने सिर्फ ऊपर देखा और एक छोटी सी मुस्कान दी. आज वो सिर्फ मुस्कुरा नहीं रहे होंगे, बल्कि हंस रहे होंगे.
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