तेजस्वी यादव और कन्हैया कुमार की गलतियां उन्हें चुनावों में पैर जमाने नहीं देंगी
बिहार (Bihar Election 2020) में एक बार फिर तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) और कन्हैया कुमार (Kanhaiya Kumar) को लेकर चर्चा चल रही है. आम चुनाव में जहां दोनों का साथ आने से इंकार चर्चा में रहा वहीं अब दोनों के मंच साझा करने को लेकर भी चर्चा हो रही है - लेकिन क्या ऐसा संभव है?
-
Total Shares
तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) और कन्हैया कुमार (Kanhaiya Kumar) दोनों ही लॉकडाउन से पहले बिहार के दौरे पर निकले थे. कन्हैया कुमार के दौरे में जगह जगह विवाद भी हुए थे - कई जगह तो कन्हैया का जोरदार विरोध भी हुआ था और पुलिस को दखल देनी पड़ी थी. लॉकडाउन के चलते कन्हैया बेगूसराय लौट गये और वहीं सिमट कर रह गये. एक इंटरव्यू में कहा भी था कि ऐसे दौर में परंपरागत राजनीति की जगह तो बची भी नहीं है, लिहाजा इलाके में रह कर लोगों की जो मदद संभव है कर रहे हैं.
आम चुनाव के बाद से तेजस्वी यादव के लंब वक्त तक लापता रहने और लॉकडाउन के समय दिल्ली में जमे रहने को लेकर सवाल उठाये जाते रहे - लेकिन मौका मिलते ही पटना लौट कर तेजस्वी यादव राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय हो गये. सुशांत सिंह राजपूत की मौत की सीबीआई जांच को लेकर तेजस्वी का काफी एक्टिव देखा गया, लेकिन सत्ता में होने से सीबीआई जांच का क्रेडिट भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खाते में चला गया लगता है.
अब जबकि बिहार विधानसभा चुनाव (Bihar Election 2020) को लेकर चुनाव आयोग की गाइडलाइन भी जारी हो चुकी है, तेजस्वी यादव और कन्हैया कुमार फिर से चर्चा में छाये हुए हैं, लेकिन इस बार चुनाव में साथ आने को लेकर. करीब करीब वैसे ही जैसे 2017 के यूपी चुनाव में राहुल गांधी और अखिलेश यादव साथ देखे गये थे.
तेजस्वी यादव और कन्हैया कुमार को लेकर फिलहाल सबसे बड़ा सवाल यही है कि अगर आरजेडी और वाम दल महागठबंधन के बैनर तले चुनाव लड़े तो क्या तेजस्वी यादव और कन्हैया कुमार मंच भी शेयर करेंगे?
महागठबंधन को कन्हैया की जरूरत है क्या?
जीतनराम मांझी भले ही बिहार चुनाव में कोई करिश्मा न दिखा पाते हों, लेकिन किसी भी खेमे में उनका होना और न होना दोनों मायने जरूर रखता है. जीतनराम मांझी के पाला बदल कर नीतीश कुमार के साथ एनडीए में शामिल होने की गहमागहमी के बीच महागठबंधन में उनकी कमी महसूस की जाने लगी है. राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के नेता उपेन्द्र कुशवाहा ने भी कहा है कि जीतनराम मांझी के जाने से महागठबंधन को हुए नुकसान की भरपाई के लिए अब वाम दलों को भी शामिल किया जाना चाहिये.
हाल ही में बिहार आरजेडी के अध्यक्ष जगदानंद सिंह की लेफ्ट पार्टियों की नौ सदस्यों वाली एक टीम के साथ बैठक हुई थी. बताते हैं कि आरजेडी और वाम दलों के बीच अब तक कई बैठकें हो चुकी हैं, लेकिन आखिरी बैठक ज्यादा महत्वपूर्ण रही. आरजेडी के साथ हुई वार्ता के बाद अब सीपीआई और सीपीएम के भी महागठबंधन में शामिल होने की संभावना जतायी जा रही है. बैठक में कांग्रेस के साथ मिल कर सभी दल महागठबंधन के बैनर तले बिहार की 243 सीटों पर चुनाव मिल कर लड़ने पर सहमति तो बनी है - लेकिन सीटों का बंटवारा किस हिसाब से होगा अभी सामने नहीं आया है.
आरजेडी और कांग्रेस के बीच भी सीटों के बंटवारे पर अब तक कोई नतीजा नहीं निकला है. राहुल गांधी पहले ही साफ कर चुके हैं कि चुनावी गठबंधन तभी संभव है जब कांग्रेस को सम्मानजनक सीटें मिलेंगी. वाम दलों की तरफ से ये खबर भी आ रही है कि वे राज्य के 18 जिलों में चुनाव लड़ना चाहते हैं जहां उनका प्रभाव है और इसके लिए 42-48 सीटों पर दावा भी पेश किया जा चुका है.
क्या तेजस्वी यादव कन्हैया कुमार के साथ मंच शेयर करने को तेयार होंगे?
तेजस्वी और कन्हैया कुमार के बिहार चुनाव में साथ आने को लेकर दोनों के समर्थकों और विरोधियों के रिएक्शन भी आने लगे हैं. कोई दोनों की शिक्षा-दीक्षा की तुलना कर रहा है तो कोई दोनों के राजनीतिक कद में मुकाबले की.
बड़ा सवाल ये है कि महागठबंधन में साथ आने पर भी क्या तेजस्वी यादव और कन्हैया कुमार चुनावी रैलियों में मंच शेयर करेंगे?
बीजेपी प्रवक्ता निखिल आनंद कन्हैया कुमार को जेएनयू का फर्जी समाजवादी बता रहे हैं तो कहते हैं कि तेजस्वी विरासत में मिली राजनीति को संभाल रहे हैं. कन्हैया कुमार को तेजस्वी यादव को खत्म करने का सीपीआई का प्रोपेगैंडा बताते हुए निखिल आनंद कहते हैं - 'अब या तो तेजस्वी यादव रहेंगे या कन्हैया?'
लेकिन यही सवाल जब आरजेडी नेताओं के सामने आ रहा है तो वो तेजस्वी यादव को बिहार का सबसे बड़ा नेता बता रहे हैं. जगदानंद सिंह का कहना है कि महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव हैं और लालू यादव कोआर्डिनेटर और ये चीजें सभी सहयोगी दलों ने मिल कर तय किया हुआ है.
अगर निजी तौर पर देखें तो कन्हैया कुमार को बिहार विधानसभा चुनाव में कम ही दिलचस्पी होगी. निश्चित रूप से वो बिहार दौरे में जगह जगह लोगों से मुलाकात कर रहे थे और इस चुनाव के लिए अपनी भूमिका की तलाश कर रहे थे, लेकिन अब तक उनको ज्यादा सक्रिय राष्ट्रीय राजनीति में देखा गया है. जेएनयू अध्यक्ष रहते देशद्रोह के आरोप में जेल जा चुके कन्हैया कुमार तिहाड़ से लौटने के बाद पूरे देश में दौरा किये और 2019 में लोक सभा का चुनाव भी बेगूसराय से लड़े, लेकिन तेजस्वी यादव ने भी उनके खिलाफ उम्मीदवार उतार दिया. चुनाव नतीजे देखें तो कन्हैया कुमार और आरजेडी उम्मीदवार को मिला कर मिले वोटों से काफी ज्यादा वोट बीजेपी के गिरिराज सिंह को मिले थे - हो सकता है आरजेडी का साथ मिला होता तो टक्कर अच्छी देखने को मिलती.
एक सवाल ये भी है कि क्या महागठबंधन को कन्हैया कुमार की कोई जरूरत है?
महागठबंधन के पास ले देकर तेजस्वी यादव ही स्टार प्रचारक हैं. अगर कांग्रेस साथ मिल कर चुनाव लड़ती है तो राहुल गांधी भी एक स्टार प्रचारक ही होंगे, लेकिन उनके कार्यक्रम वैसे तो होने से रहे जैसे तेजस्वी यादव और कन्हैया कुमार के होंगे. राहुल गांधी तो कुछ रैलियां करेंगे और वे भी ज्यादातर डिजिटल ही होंगी. डोर टू डोर कैंपेन के लिए राहुल गांधी तैयार होंगे तो वे भी कम ही होंगी.
जिस हिसाब से बीजेपी और जेडीयू मिलकर तेजस्वी यादव को घेरने की तैयारी कर चुके हैं, वैसी स्थिति में महागठबंधन की जरूरत कन्हैया कुमार ही पूरी कर सकते हैं. माना जा रहा है कि लालू यादव की बहू ऐश्वर्या को तेजस्वी यादव या तेज प्रताप यादव के खिलाफ उतारा जा सकता है.
एक तरफ नीतीश कुमार और उनके साथियों के साथ साथ बीजेपी के बड़े बड़े नेता चुनाव मैदान में होंगे - और उनके मुकाबले लालू यादव की गैरहाजिरी में तेजस्वी यादव अकेले कहां तक मोर्चा संभाल पाएंगे समझना मुश्किल नहीं है.
तेजस्वी और कन्हैया के साथ होने की संभावना
आरजेडी नेता जो भी दावा करें, असल बात तो यही है कि कन्हैया कुमार को लेकर लालू परिवार का डर है और वो वाजिब भी है. लेकिन ये मुद्दा ऐसा भी नहीं था जिसका रास्ता न निकाला जा सके.
सच तो ये है कि जिस तरह की बातें तेजस्वी यादव के विरोधियों की तरफ से सुनने को मिल रही हैं, लालू परिवार में डर भी उन्ही बातों को लेकर है. ये डर भी सिर्फ दोनों के राजनीतिक कद या शिक्षा दीक्षा को लेकर नहीं, बल्कि बिहार से उस स्पेस को भरने को लेकर है जहां दोनों खड़े होते हैं. तेजस्वी यादव और कन्हैया कुमार दोनों ही युवा हैं और माना यही जाता है कि लालू यादव इस बात की इजाजत कभी भी नहीं देंगे कि उनके बेटे का हमउम्र कोई नेता बिहार में आगे बढ़े. ऐसा हुआ तो बेटा पीछे छूट जाएगा क्योंकि विरासत के अलावा और कोई काबिलियत तो उसमें है नहीं.
ऐसा भी नहीं कि तेजस्वी यादव को अपने नेतृत्व को साबित करने का मौका नहीं मिला है. ये भी तो सही ही है कि लालू यादव मौके पर मौजूद नहीं हैं, लेकिन दिशानिर्देश मिलने में तो कोई दिक्कत नहीं ही है. जमीन पर ताकत दिखाने के लिए फील्ड में मौजूद रहना होता है - और इस मामले में तेजस्वी यादव और राहुल गांधी की राजनीतिक सक्रियता में कोई खास फर्क नजर नहीं आता.
अगर आम चुनाव में कन्हैया कुमार को महागठबंधन का उम्मीदवार बनाया गया होता और वो चुनाव जीत जाते तो गठबंधन के नेता होने के नाते कामयाबी तो तेजस्वी यादव के खाते में ही दर्ज होती. वैसे भी कन्हैया कुमार राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय होते और तेजस्वी यादव बिहार की सत्ता की राजनीति में - लेकिन दिमाग पर दिल हावी हो जाये तो फैसले प्रभावित तो होंगे ही. हो सकता है कन्हैया कुमार पर देशद्रोह के मुकदमे को लेकर भी तेजस्वी यादव के मन में कोई संकोच रहा हो, लेकिन उस हिसाब से देखें तो उन पर भी तो भ्रष्टाचार के आरोप लगे ही हैं - हो सकता है कि वो ये भी मान कर चलते हों कि देशद्रोह जैसे गंभीर आरोप भ्रष्टाचार की तरह मुंछों की दुहाई तो चलती नहीं.
अव्वल तो आने वाले विधानसभा चुनाव में भी तेजस्वी यादव और कन्हैया कुमार के चुनावी मंच साझा करने की संभावना कम ही लगती है, लेकिन महागठबंधन में सहमति बन भी जाती है तो बहुत फायदा नहीं होने वाला. अगर आम चुनाव से ही ऐसा साथ होता तो कुछ ज्यादा असर जरूर हो सकता था.
इन्हें भी पढ़ें :
बिहार चुनाव से पहले तेजप्रताप vs तेजस्वी शुरू!
आपकी राय