जन्नत में आतंक का जिन्न
'आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता' यह बात आप ही कहते थे दिग्विजय सिंह और सुशील शिंदे के बयान पर, लेकिन आज आपने ही आतंकवाद को मजहब का बुर्का पहना दिया.
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2013 में मैं अपने दोस्तों के साथ लेह के रास्ते जोजिला पार करके श्रीनगर लौटा था, उस वक्त भी रमजान के दिन थे. घाटी के शराब के ठेके बंद थे पर घाटी गुलजार थी. खुफिया विभाग के कुछ मित्रों से बात की तो पता चला कि तत्कालीन प्रधानमंत्री के दामाद वहां खुफिया विभाग का जिम्मा संभाले हुए थे. लिहाजा एक अंडरस्टैंडिंग थी, कट्टरपंथी और सुरक्षा एजेंसियों के बीच कि इस बार नाक का सवाल सरदार का है.
वजह चाहे कुछ भी रही हो पर हम निर्भीक होकर श्रीनगर घूम रहे थे. देर शाम डल के किनारे पंजाबी लड़कों के साथ थे. वह भी शायद लेह के रास्ते ही लौटे होंगे क्योंकि, उनके पास बुलेट तरीके की बाइक और उस बुलेट पर ही बुद्ध धर्म और भारतीय तिरंगा ध्वज लहरा रहा था. स्थानीय लोग भी चाहते थे कि शांति का माहौल ऐसा ही रहे क्योंकि उनका रोजगार पर्यटकों से चलता है.
लाल चौक, श्रीनगर
हालत इतना सुकून देती कि डल के किनारे जितने ढाबे थे उनमें अधिकतर हिंदुओं के थे या यूं कहें गैर मुसलमानों के पंजाबी से लेकर हरियाणवी ढाबे नजर आ रहे हैं. सुरक्षा का माहौल ऐसा कि देर शाम हम लोग डल से पैदल ही लाल चौक तक गए और किसी तरह का डर नहीं लगा, खास तौर पर तब जब इस ट्रिप में महिला मीडिया कर्मी भी शामिल थी और सुबह मैं अकेला एसयूवी में बैठकर पूरे शहर का चक्कर काट कर आया.
इससे पहले भी परिवार के साथ श्रीनगर का दौरा कर चुका हूं. एक दफा गुलबर्गा की बत्ती गुल हो गई थी और तारे कुछ कुछ इस कदर चमक रहे थे मानो सितारों का कालीन घाटी के ऊपर उड़ा दिया गया हो. हालात काफी हद तक सामान्य थे, बस रात करीब 10 बजे के बाद आवाजाही बंद हो जाती थी.
मेरा बेटा पहली बार श्रीनगर घाटी में ही घुटनों पर चलना सीखा था. मैंने खुद कश्मीरी पोशाक में तस्वीरें खिंचाईं थी. टैक्सी ड्राइवर भी बताता था कि कट्टरपंथियों ने पिक्चर हॉल भले ही बंद कर रखे हों लेकिन हम बॉलीवुड के दीवाने हैं. समस्याएं कहां नहीं होतीं दिल्ली में भी ढूंढ सकते हैं पर उन समस्याओं से बड़ी उम्मीद थी. आज वह उम्मीद टूट चुकी है. गुस्सा आतंकवादियों पर नहीं है गुस्सा अपनी ही सरकार पर है कि, जिस CM की बहन के अपरहण पर गृह मंत्रालय डोल जाता था आज उसी गृहमंत्री को मरते हुए सिपाही, टूटती हुई कलम, डर की सिसकियां, मौत का मातम नजर नहीं आता क्योंकि निशाने पर वही मुस्लिम तुष्टिकरण है जिसके नाम पर यह राम वाले सत्ता में आए और अब रमजान के सीजफायर की आड़ में भारत ही नहीं दुनिया की जन्नत को लहूलुहान होते देख रहे हैं.
'आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता' यह बात आप ही कहते थे दिग्विजय सिंह और सुशील शिंदे के बयान पर, लेकिन आज आपने ही आतंकवाद को मजहब का बुर्का पहना दिया. कोई हिंदुस्तानी मुसलमान यह नहीं चाहेगा कि रमजान में खून बहे खासतौर पर अपने ही जवानों की शहादत से और जो चाहेगा उसे हिंदुस्तानी कहा नहीं जा सकता.
अब घाटी के हालात बदल चुके हैं
शर्म आती है ऐसी सोच पर, टीस उठती है उस वोट पर, जो मैंने आपको दिया था. दुख होता है कि आप सत्ता के लिए शहीदों के खून से लथपथ उस सीढ़ी पर चढ़ जाएंगे जिस शहादत की बुनियाद मुखर्जी ने डाली थी.
मुझे लगता था कि मनमोहन सिंह के समय तुष्टीकरण सिर्फ फौरी तौर पर राहत दे रहा है, ऐसी राहत जो कल ज्वार की तरह पानी नहीं आतंकवाद के एसिड से हमें जला देगी, पर आप तो उनसे भी बेदर्द निकले जो उन आतंकवादियों को मोहलत देते हो जिनके सर काटने की कीमत भारतीय जवान छुट्टी पर भी चुकाते हैं.
सवाल उठता है कि जवाब क्या है ? राज्यसभा में आप, लोकसभा में आप, विधानसभाओं में आप, फिर भी आप कायर निकले और आस्तीन चढ़ाकर जो दूसरे आपको हटाने के लिए खड़े हैं वह भी आतंकियों के जख्मों का इतिहास लिए, उसी सोच के सामने नतमस्तक हो जाएंगे यह कोई नई बात नहीं.
फिर एक आम हिंदुस्तानी कर क्या सकता है ? इसका जवाब मेरे पास नहीं है. आंखे नम हैं, दिल में गुस्सा और दिमाग मानो बंद होने लगा है. हम सेना रखते हैं सुरक्षा के लिए, वह सुरक्षा के लिए शहादत का कफन ओढ जाते हैं और सरकार चुनते हैं देश चलाने के लिए पर वह सत्ता के नशे में सो जाते हैं.
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