एक गुरु की हार और बहस का जारी रहना!
जब हमने रामलीला मैदान में जब एक हुजूम देखा था तो इस देश के कई राजनीतिक समीक्षकों ने उसकी तुलना आजादी के दूसरे आंदोलन और जयप्रकाश नारायण के आंदोलन तक से कर दी थी. लेकिन...
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देश 5 सितंबर को जब शिक्षक दिवस मना रहा था और देश शिक्षकों के सम्मान की चर्चा कर रहा था, तब रालेगण सिद्धि में एक गुरु खामोश बैठे थे. जब बोले तो मन की पीड़ा, दिलों की बेबसी जुंबा पर साफ झलक रही थी . उस गुरु को दर्द इस बात का था, कि इस देश के लोकतंत्र में शुचिता, पारदर्शिता और अनुशासन का झंडा उनके जिस शिष्य ने एक नई ऊंचाइयों पर ले जाने के वायदे के साथ थामा था, वह कहीं लड़खड़ा गया और वह भी बहुत जल्द. कुछ सही समझा, चर्चा अन्ना हजारे और उनके प्रिय शिष्य अरविंद केजरीवाल की ही हो रही है.
जब हमने रामलीला मैदान में जब एक हुजूम देखा था तो इस देश के कई राजनीतिक समीक्षकों ने उसकी तुलना आजादी के दूसरे आंदोलन और जयप्रकाश नारायण के आंदोलन तक से कर दी थी. सबके अपने-अपने पक्ष थे. माहौल देश का कुछ ऐसा बन गया था. निराशा, हताशा के दौर में भ्रष्टाचार की जो कहानियां समाचार पत्रों में प्रकाशित हो रही थीं, मंत्री जेल जा रहे थे, वह वाकई जनमानस को झकझोरने वाला था. ऐसे में जब अन्ना ने स्वराज और लोकपाल की मांग को लेकर जो आंदोलन खड़ा किया, तब देश की राजनीतिक व्यवस्था उससे किस कदर दबाव में थी, यह लोगों को तब पता चला, जब आधी रात तक पहली बार संसद की बैठक कर देश के प्रमुख दल एक ऐसे सशक्त व्यवस्था को लागू करने पर चर्चा करते दिखे, जिससे शासन में शुचिता और पारदर्शिता को लागू किया जा सके. लोगों को लगने लगा कि जज्बा और हौसला हो, तो सत्ता के गलियारे से दूर रह कर भी तंत्र को सुधारा जा सकता है या यूं कहें तो सुधरने पर मजबूर किया जा सकता है.
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और तब आंदोलन की सफलता से उत्साहित एक तबके ने अरविंद केजरीवाल की अगुवाई में नई व्यवस्था के वायदे के साथ सत्ता की उस दौड़ में शामिल होने का फैसला किया. दरअसल, अन्ना के आंदोलन में जो कुछ लोग अन्ना के काफी करीबी माने जाते थे, उनमें से एक केजरीवाल भी थे. अन्ना के आंदोलनों की रुपरेखा तैयार करना, रणनीति बनाना, कैडर जुटाना, ये सब काम केजरीवाल बखूबी निभा रहे थे. लेकिन जब केजरीवाल ने राजनीतिक दल बनाने का फैसला किया, तब अन्ना सहमत नहीं थे. अन्ना की सोच कुछ और थी और संभवत उसके ठोस कारण थे. चिंता इस बात की ज्यादा थी कि मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था में क्या नैतिकता और शुचिता के उन मूल्यों को ज्यादा दिनों तक जिंदा रखा जा सकता है, जिनकी लड़ाई वो लड़ते आ रहे थे. जनतंत्र ने कब धनतंत्र का रूप अख्तियार कर लिया था और ऐसे में बिना धन-कुबेरों के समर्थन से पारदर्शी राजनीति कर पाना क्या संभव था.
होके नाउम्मीद... |
अन्ना के परम शिष्य ने वादा कुछ ऐसा ही किया था. पर चूंकि अन्ना क्रांति की उपज थी, आम आदमी पार्टी, लिहाजा लोगों की अपेक्षाएं ज्यादा थीं. पर पहला झटका तब लगा कि जब पार्टी को दो करोड़ का एक रहस्यमय डोनेशन का मामला सामने आया. कंपनियां नकली, पता गलत, लोग फर्जी, फिर इतनी बड़ी रकम पार्टी को किसने औऱ क्यों दी? अन्ना ने तब भी कहा था कि दल या पक्ष तो बना, लेकिन इनसे जुड़े या जुड़ने वाले लोगों की समीक्षा कौन करेगा. लोग आंदोलन और उसकी सोच से जुड़े रहे, यह कौन सुनिश्चित करेगा. उस चुनौती से निपटने के लिए पार्टी के अंदर एक आंतरिक लोकपाल बना, सुलझे और जानकार लोग रखे गए, लेकिन इसके पहले की आँदोलन का पहिया आगे बढ़ता, बिखराव शुरू हो गया, लोकपाल भी गायब हो गए. देश के इतिहास में पहली बार प्रचंड बहुमत से सरकार बनाने का रिकॉर्ड 2014 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में बना तो संभवत वह जनमानस की उन्हीं आकांक्षाओं को परिलक्षित करता था. लेकिन फिर एक के बाद कई घटनाएं घटीं, जिनसे गुरु के उन सपनों को शायद धक्का पहुंचा होगा. यही कारण रहा कि सशक्त लोकपाल और भूमि अधिग्रहण के मसले पर अन्ना जब रालेगण में धरने पर बैठे और केजरीवाल ने अपने नेताओं को समर्थन देने भेजा, तब गोपाल राय और संजय सिंह को मंच पर आने तक नहीं दिया गया. अन्ना ने स्वयं आप नेताओं को वहां नीचे बैठने और हस्तक्षेप न करने की हिदायत तक दे डाली. तब तक पुरानी टीम बिखर चुकी थी, प्रशांत, योगेन्द्र बाहर जा चुके थे. शुचिता, नैतिकता और पारदर्शिता की दुहाई देकर नई राजनीति की शुरूआत करने वाली पार्टी का एक मंत्री फर्जी डिग्री के आरोप में गिरफ्तार हो चुका था. अब ऐसे लोग पार्टी में कैसे आए, उनका चयन का आधार क्या था, मंत्री बनने की योग्यता किस आधार पर तय हुई, यह बहस अब तक जारी है.
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अन्ना को दूसरा झटका तब लगा, जब उनके शिष्य दिल्ली विधानसभा में लोकपाल बिल लेकर आए. बिल का प्रारूप सामने आते ही घमासान शुरू हुआ और अन्ना ने भी माना कि उस बिल की आत्मा रामलीला मैदान में तय किए गए प्रारूप से मेल नहीं खाती. मूल बिल की खासियत यह थी कि लोकपाल के चयन से लेकर, हटाने की प्रक्रिया तक में सरकार की ही भूमिका प्रमुख थी, जो अन्ना के मुताबिक मूल भावना के विपरीत था. जब प्रशांत-योगेन्द्र ने मसला उठाया, अन्ना ने आपत्ति जताई, तो केजरीवाल ने दूत भेजे, बिल में कुछ बदलाव किया, पर उस हद तक नहीं, जितनी की दरकार थी. आखिर सत्ता में आते ही प्राथमिकता और मूल आदर्शों में इतना बड़ा बदलाव क्यों आया, मीडिया और विश्लेषक अब तक उसे लेकर चर्चा में उलझे पड़े हैं.
लेकिन तोमर के बाद अन्य दो मंत्री जिन आरोपों में बाहर गए, वह अपने आप में झकझोरने वाला था. घूस कांड और सेक्स सीडी कांड में दो मंत्रियों का इस्तीफा एक ऐसा मसला है, जिसने आम आदमी पार्टी के उस हमलावर चेहरे को कुंद कर दिया, जो उनके आंदोलन की बुनियाद थी. इन दोनों मामलों के बचाव में अब तक पार्टी की तरफ से जो कुछ भी कहा गया, वह कुल मिलाकर ऐसा ही था कि मेरे चादर की गंदगी मत देखो क्योंकि आपकी चादर पहले से ही गंदी है. यह तर्क नहीं होता, इसे कुतर्क कहते हैं. इन मुद्दों पर विपक्ष कभी सत्ता पक्ष से सहानुभूति नहीं रख सकता, मीडिया पक्ष में नहीं बोल सकता. आपने कोई कार्रवाई कर दी, इसके नाम पर पीठ थपथपा नहीं सकते, क्योंकि इसके अलावा आपके पास कोई चारा भी नहीं था. बचाव का कोई उपाय भी नहीं था. अब आप नेहरू-गांधी, वाजपेयी पर कीचड़ उछाल कर एक मंत्री के भ्रष्ट आचरण का बचाव नहीं कर सकते. जो आवाज उठाए, उसे मानहानि की धमकी देकर खामोश करने की कोशिश क्यों होनी चाहिए, यह अलग बहस का विषय है. अगर जेटली या कोई और मानहानि का मुकदमा करे तब अदालत में दलील यह दी जाती है कि मानहानि कानून को खत्म करना चाहिए, क्योंकि यह फ्रीडम ऑफ स्पीच की भावना के खिलाफ है, पर अपने पर सवाल खड़े हो, तो मानहानि.
अब ऐसी व्यवस्था या सोच पर तरस आती है, पर ऐसे में अन्ना की स्थिति को भी समझा सकता है. अन्ना कह रहे थे कि छह मंत्रियों में से तीन मंत्रियों को जिस तरह से बाहर जाना पड़ा, उससे मुझे बहुत निराशा हुई है. मुझे अरविंद से बहुत उम्मीदें थी, लेकिन जैसी व्यवस्था चल रही है, उससे मुझे काफी दुख हुआ है. अब क्या इसे गुरु के आदर्शों की हार मानें, बहस जारी है.
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