पंजाब में पतन की ओर अग्रसर आम आदमी पार्टी
पंजाब के प्रति पार्टी आलाकमान की उदासीनता और मनमाना रवैया ही विद्रोह का कारण बना है.
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2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में भव्य जीत के बाद, आम आदमी पार्टी के पास पंजाब में विस्तार करने का बहुत अच्छा मौका था. पंजाब का मतदाता कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल की बारी-बारी से बनने वाली सरकारों से त्रस्त हो चुका था और एक विकल्प की अपेक्षा कर रहा था. 2014-2015 के काल खंड में पंजाब में आम आदमी पार्टी की लोक प्रियता का पता इस बात से ही चलता है कि 2014 लोक सभा चुनावों में 'आप' को अपने चारों सांसद पंजाब से ही मिले थे.
पंजाब विधानसभा चुनावों में पार्टी को बहुत अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद थी. चुनावों से छह महीने पूर्व सर्वेक्षणों में भी 'आप' आगे चल रही थी, परंतु चुनाव आते-आते पार्टी विभिन्न विवादों में फंसती गई. चुनावों से पूर्व 'आप' के नेता मुख्यमंत्री पद के सपने देख रहे थे, पर चुनावों में पार्टी सिर्फ 20 सीट ही जीत पाई. उस समय से ही पंजाब में आम आदमी पार्टी पतन की ओर अग्रसर है.
पार्टी के आलाकमान द्वारा दिल्ली से पंजाब इकाई पर नियंत्रण रखने के अनेक असफल प्रयास हुए हैं. उन सभी प्रयासों का दल पर बहुत बुरा असर पड़ा. अब पंजाब में पार्टी खुले विद्रोह से जूझ रही है. नवीनतम संकट का कारण सुखपाल सिंह खैहरा को पंजाब विधानसभा में विपक्ष के नेता के पद से हटाना था.
आम आदमी पार्टी का पंजाब में पतन तय
सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ अपने मुखर स्वर के लिए सुखपाल सिंह खैहरा जाने जाते हैं. विपक्ष के नेता के रूप में उनकी बर्खास्तगी की सूचना पंजाब के लिए पार्टी प्रभारी मनीष सिसोदिया ने ट्विटर के माध्यम से दी. ट्विटर के द्वारा ही नए पंजाब विधानसभा में विपक्ष के नेता के नाम की घोषणा कर दी गई. मनीष ने पंजाब इकाई से इस विषय पर बात करना भी ज़रूरी नहीं समझा और सिर्फ ट्वीट करके ही अपनी ज़िम्मेवारी पूरी कर दी. पंजाब के प्रति पार्टी आलाकमान की उदासीनता और मनमाना रवैया ही विद्रोह का कारण बना है.
राज्य इकाई पर थोपे गए इस मनमाने ढंग से लिए फैसले के कारण सुखपाल सिंह खैहरा का समर्थन करने वाले नेता स्वयं को अपमानित महसूस कर रहे हैं, जिसके फलस्वरूप उन्होंने विद्रोह का ध्वज उठा लिया है. पंजाब से 'आप' के 4 लोकसभा सांसदों में से 2 का भी पार्टी आलाकमान से मत विरोध कई वर्षों से चल रहा है. चाहे लोकसभा हो या विधानसभा पंजाब इकाई और पार्टी आलाकमान में हर स्तर पर मतभेद और अविश्वास का माहौल नजर आता है.
अरविंद केजरीवाल की सबसे बड़ी कमी है कि वह सारे अधिकार अपने पास या अपने चेलों के पास ही रखना चाहते हैं. उन्होंने कभी भी अपनी पार्टी के पंजाब के नेताओं को स्वतंत्र होकर काम नहीं करने दिया, हमेशा उन पर शक किया, यही कारण है कि पार्टी की राज्य में यह दुर्दशा हो गई है. चाहे योगेंद्र यादव हों, कुमार विश्वास या सुचा सिंह छोटेपुर हों, जिसने भी बराबरी का अधिकार मांगा उसे ही पार्टी में अपमान और बाहर का रास्ता देखना पड़ा है. यदि अरविंद केजरीवाल इस तरह काम करेंगे तो अन्य राज्यों में फैलने का सपना केवल सपना बनकर ही रह जाएगा.
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