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Updated: 14 अगस्त, 2022 07:46 PM
विजय मनोहर तिवारी
विजय मनोहर तिवारी
  @vijay.m.tiwari
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यहूदियों के नरसंहार पर केंद्रित 'शिंडलर्स लिस्ट' अकेली और अंतिम फिल्म नहीं है, जिसने जातीय घृणा से लबालब भरे एक विक्षिप्त राजनीतिक विचार के घातक प्रभावों को परदे पर प्रस्तुत किया था. यह हिटलर के नाजियों की क्रूरता की कहानी थी. बीते सौ सालों में हिटलर की बेरहमी पर सैकड़ों फिल्में बनी हैं, 'शिंडलर्स लिस्ट' इनमें से ही एक है. हिटलर के मरने के बाद शायद ही कोई दशक ऐसा गुजरा हो, जब दुनिया की किसी न किसी भाषा में सिनेमा ने उसके पापों छुआ न हो. संवेदनशील फिल्मकारों ने अनगिनत कोणों और अनगिनत कथाओं के माध्यम से जातीयता की स्वयंभू श्रेष्ठता के वहशी विचार की परतों को जमकर खोला है.

एडोल्फ हिटलर, जिसे जर्मनी की सत्ता पर सिर्फ 13 साल का समय मिला था, आज तानाशाही और क्रूरता का पर्याय बनकर धरती की स्मृतियों में सुरक्षित एक बदनुमा दाग है. मौत की एक ऐसी मेगा मशीन, जिसने 60 लाख निर्दोष यहूदियों को मरवाने के लिए चौबीस घंटे काम करने वाला एक पूरा तंत्र खड़ा कर दिया था. यातना शिविरों में डाले गए हजारों-हजार यहूदी परिवारों ने धीमी गति से अपनी देह में सरकती मौत को देखा और अनुभव किया था. बीसवीं सदी की पहली चौथाई में यह सब उस वक्त हुआ, जब यूरोप ने बहुत सारी मशीनों को ईजाद कर लिया था. कैमरा, उनमें से एक और सबसे महत्वपूर्ण है. मनुष्यता के इतिहास का यह बेरहम दौर तस्वीरों और फिल्मों में भी दर्ज हो पाया.

Schindler s List India secularism Racial and Religion Hatredभारत के इतिहास को पढ़ने के बाद हिटलर एक शरारती बच्चा भर नजर आने लगेगा.

'शिंडलर्स लिस्ट' 1993 में आई फिल्म है, जब पश्चिम का सिनेमा उद्योग कम्प्यूटर जनित प्रभावों से लैस फिल्में बनाने में भारत से पहले और आगे काफी सक्षम था. रंगीन और थ्रीडी फिल्में आ चुकी थीं. किंतु स्टीवन स्पिलवर्ग ने इसे ब्लैक एंड व्हाइट परदे पर उतारा. सबसे खास, पूरी फिल्म में हिटलर कहीं नहीं है. नाजियों के एक ऑफिस के दृश्य में वह चंद सेकंड के लिए एक तस्वीर में नजर आया है. यह एक ऐतिहासिक और महान फिल्म है, जिसने हिटलर के शिकार यहूदियों की पीड़ा को बहुत गहराई से उकेरा.

हिटलर 56 साल की उम्र में मर गया. सत्ता में 13 साल ही रहा. यहूदियों के ज्यादातर नरसंहार पांच साल के दौरान किए. आज वह धरती पर पैदा हुए नराधम लोगों में सबसे ऊपर गिना जाता है. क्या क्रूर कारनामे करने वाला वह धरती पर अकेला ऐसा था, जिसे मनुष्यता के नाम पर धब्बा कहा जाए? क्या अपनी नस्ल को शुद्ध, सर्वश्रेष्ठ और सर्वोपरि मानने वाला हिंसा का वह इकलौता स्वयंभू पैगंबर था, जिसके पहले या बाद में उस जैसा कोई नहीं हुआ? क्या दुनिया के दूसरे देशों के ज्ञात इतिहास में ऐसा कोई दूसरा नहीं हुआ, जिसने लाखों लोगों को अपनी सनक का शिकार बनाया हो?

अगर आप भारत का तेरह सौ सालों का इतिहास पढ़ लेंगे तो आप ऐसे-ऐसे खलनायकों से रूबरू होंगे, जिनके आगे एडोल्फ हिटलर केजी वन में पढ़ने वाला एक शरारती बच्चा ही नजर आएगा. वह 1947 में 15 अगस्त आते-आते अखंड भारत के टुकड़े होने की ह्दय विदारक पूर्व पीठिका है. 712 में सिंध से लेकर 1193 की दिल्ली तक और फिर आगे की छह सदियों में अंग्रेजों के आने तक देश के कोने-कोेने में वे तारीखें और तारीखवार ब्यौरे दस्तावेजों पर इस्लामी फतह के कारनामों की तरह शान से दर्ज किए गए हैं.

बस हमने उन्हें पढ़ा नहीं है. हमें वह पढ़ाया नहीं गया है. इसलिए हम भी तानाशाही के नाम पर अकेले एक हिटलर को कोसकर मनुष्यता के साथ बरती गई अकथनीय क्रूरता के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करके फारिग हो जाते हैं. बस हमें यह ज्ञात नहीं है कि हमारे आसपास अनगिनत हिटलरों ने बिल्कुल उसी बेरहमी से खून बहाया है, जैसा यहूदियों के यातना शिविरों में हमने देखा.

40 पीढ़ियों तक एकतरफा हिंसा के वे निर्दोष भारतीय शिकार हमारे शांतिप्रिय पूर्वज थे, जाे लगातार लड़ते, भिड़ते, मरते, कटते रहे लेकिन अपने धर्म और अपनी परंपराओं को बचाए भी रहे. जिस पीढ़ी में जो कमजोर पड़ गया, उसने न चाहते हुए भी अपना धर्म और अपनी पहचान को अपने ही हाथों से खो दिया और भटकी हुई याददाश्त के साथ वह भी उन हिटलरों का हिस्सा बन गया. वह छल और बल से भारत को रसातल में पहुंचाने वाला एक काला कालखंड है, जो एक लंबी स्याह रात की तरह भारत पर छा गया था. वह हिस्ट्री ऑफ इंडिया नहीं है, वह क्राइम हिस्ट्री ऑफ इंडिया है.

15 अगस्त के आसपास आकर भारत पर सदियों तक ढाए गए उन अपराधों की चरम परिणति विभाजन की विभीषिका है. अगर स्वतंत्र भारत में भारत के बीते हजार सालों का असल इतिहास स्कूल-कॉलेजों में पढ़ाया गया होता तो कुछ अलग तरह का भारत बनता. अपने इतिहास के प्रति सजग, अपने पुरखों की भोगी हुई पीड़ा के प्रति संजीदा, अपने वर्तमान के प्रति सावधान और अपने भविष्य के प्रति चिंतित भारत. देश के टुकड़े होना एक विभीषिका थी, लेकिन इसके बावजूद आंखों देखी मख्खी निगलने वाली नीतियों ने विभीषिका के विष बीजों की नर्सरियां तैयार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. किसी राष्ट्र के सच्चे नीति-निर्माता सौ साल बाद की असलियत को देखकर कमान संभालते हैं.

दुर्भाग्य से हमारे राष्ट्र निर्माताओं की दृष्टि ज्यादा ही मंद निकली. उनकी आंखें चश्मों के बाहर न तो बहुत दूर का देखने में सक्षम थीं और न ही उन्हें अपने आस्तीनों की सरसराहट अनुभव हो रही थी. वे बिल्कुल ही अलग दुनिया में थे.

सोशल मीडिया के आज के दौर में सूचनाओं और तथ्यों तक पहुंच घर बैठे आसान हुई है. अब दूर गांव में बैठा एक कम पढ़ा लिखा आदमी भी इतिहास के उन अनछुए अध्यायों पर बहुत कुछ देख पा रहा है, सुन पा रहा है और उन पर चर्चा कर रहा है. वह हमारे तथाकथित राष्ट्रनायकों की करतूतों को भी जान गया है और वह नकली नेरेशन भी बेनकाब हो गया है, जिसने भारत के इतिहास के हिटलरों को आदर्श शासकों की तरह पेश किया था. आज चारों खाने चित्त पड़े मुंबई सिनेमा उद्योग के किसी माई के लाल शोमैन में दम नहीं है कि वह भारत के सिर पर मौत की तरह छाई रही उन रक्तरंजित सदियों में से किसी एक का एक मामूली टुकड़ा उठाकर भी अपनी कोई 'शिंडलर्स लिस्ट' बना पाए.

'कश्मीर फाइल्स' जैसी हजारों फाइलों के पन्ने इतिहास में फड़फड़ा रहे हैं, जिन पर सेक्युलरिज्म का भारीभरकम पेपरबेट रख दिया गया था. भारत की करुण कथा के खलनायक अकेले अंग्रेज नहीं हैं, जिनसे किसी मिलेजुले संघर्ष से आजादी पा ली गई. तिरंगा केवल दिखावे का प्रसंग नहीं है. वह जख्मों से भरे भारत के टूटफूटकर उठ खड़े होने और अपने पैरों पर अपनी स्वतंत्र यात्रा की घोषणा का महान् प्रतीक है. तिरंगे की शान में सिर ऊंचा करते हुए हर भारतीय की आंखों में 1947 के पहले और बाद के इतिहास की झलक आंसुओं में झिलमिलानी चाहिए. वह सदियों तक देश के कोने-कोने में क्रूरता के शिकार बनाए उन अनाम पुरखों का स्मरण होगा, जिनके कटे हुए सिरों की मीनारें और चबूतरे बनाए गए. जिनके जौहर का धुआं आसमान में सदियों तक छाया रहा. जिन्हें गुलामों के बाजारों में भेड़-बकरियों की तरह बेचा गया. जिनके देवस्थानों को अपमानित करने, लूटने और लूटकर बरबाद करने में कहीं कोई दया नहीं दिखाई गई.

हर सदी में भारत के वे घृणित अपराधी जर्मनी के उस एक हिटलर की तरह ऐसे विचार पर सवार थे, जो उनके अनुसार एकमात्र है, सर्वश्रेष्ठ है और दो ही विकल्प देता है-उसे मान लो या मारे जाओ. हिटलर के पास तो एक ही विकल्प था. अगस्त के ये दिन उन अनाम पुरखों के बलिदान के स्मरण के हैं, जिनके नाम किसी 'शिंडलर्स लिस्ट' में दर्ज नहीं हैं और अब तो दुनिया भर में यह लिस्ट अंतहीन है.

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लेखक

विजय मनोहर तिवारी विजय मनोहर तिवारी @vijay.m.tiwari

लेखक मध्यप्रदेश के स्टेट इन्फॉर्मेशन कमिश्नर हैं. और 'भारत की खोज में मेरे पांच साल' सहित छह किताबें लिख चुक हैं.

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