त्रिपुरा न तो असम है न मणिपुर, माणिक सरकार को हल्के में न ले बीजेपी
दिल्ली एमसीडी के नतीजे आने से पहले ही अमित शाह ने साफ कर दिया था कि बीजेपी के स्वर्णिम काल के मायने क्या हैं? बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह फिलहाल अपने त्रिपुरा मिशन को अंतिम रूप देने में जुटे हैं.
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जीत के जोश से सराबोर बीजेपी की नजर अब नॉर्थ ईस्ट के तीसरे राज्य त्रिपुरा पर है. वैसे 2013 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने 50 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जिनमें से 49 पर उसकी जमानत ही जब्त हो गई, लेकिन बीजेपी पांच साल पहले वाली पार्टी नहीं रही.
बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह फिलहाल अपने त्रिपुरा मिशन को अंतिम रूप देने में जुटे हैं. असम और मणिपुर को कांग्रेस मुक्त बनाने के बाद शाह लेफ्ट के आखिरी किले पर फतह करने का इरादा पहले ही जाहिर कर चुके हैं. मगर, बीजेपी अध्यक्ष को भी ये बात नहीं भूलना चाहिये कि माणिक सरकार न तो तरुण गोगोई हैं और न ही इबोबी सिंह.
बीजेपी का इरादा
दिल्ली एमसीडी के नतीजे आने से पहले ही अमित शाह ने साफ कर दिया था कि बीजेपी के स्वर्णिम काल के मायने क्या हैं? भुवनेश्वर में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में अमित शाह ने कहा, '2014 में जब हम जीते तो कहा गया कि बीजेपी चरमोत्कर्ष पर पहुंच चुकी है, 2017 में भी यही कहा गया, लेकिन बीजेपी का चरमोत्कर्ष आना बाकी है. अभी 13 राज्यों में हमारी सरकार है, लेकिन हमारी कल्पना है कि देश के हर प्रदेश में हमारी सरकार हो.' 2019 में मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री बनाने का दावा करते हुए शाह ने बताया कि गोल्डन एरा का मतलब पंचायत से पार्लियामेंट तक बीजेपी का राज होना चाहिये.
बीजेपी के स्वर्णिम काल में माणिक का रोड़ा
गुजरात और पश्चिम बंगाल के बाद शाह अब त्रिपुरा का दौरा करने वाले हैं - और उसके बाद दो महीने में बीजेपी के चार मुख्यमंत्री - झारखंड के रघुवर दास, असम के सर्बानंद सोनवाल, अरुणाचल प्रदेश के पेमा खांडू और यूपी के सीएम आदित्यनाथ योगी भी मणिपुर में बीजेपी के लिए अलख जगाने का काम करेंगे. बीच-बीच में कोई न कोई केंद्रीय मंत्री भी मणिपुर पहुंच कर मोदी सरकार के कामकाज का बखान करता रहेगा - और चुनाव तक ये सिलसिला चलता रहेगा.
असम और मणिपुर फॉर्मूला
बीजेपी असम और मणिपुर दोनों जगह बारी बारी अपनी सरकार बना चुकी है. दोनों ही राज्यों में चुनाव अलग अलग समय पर हुए और परिस्थितियां भी बिलकुल अलहदा रहीं.
असम में तरुण गोगोई के खिलाफ प्रदेश कांग्रेस में ही भारी असंतोष रहा. उसी का नतीजा रहा कि हिमंता बिस्वा सरमा बीजेपी से जा मिले और उसकी जीत के आर्किटेक्ट बने. हिमंता दो बातों से बेहद नाराज थे - एक, सीनियर नेताओं को नजरअंदाज कर गोगोई का अपने बेटे को आगे बढ़ाना - और दो, कांग्रेस आलाकमान के यहां समस्याओं का सुनवाई न होना. बीजेपी ने इन सब का पूरा फायदा उठाया और सरकार बनाने में कामयाब रही.
मणिपुर की स्थिति असम जैसी कत्तई नहीं थी. लगातार तीन बार मुख्यमंत्री रहे इबोबी सिंह को बहुमत तो नहीं मिला लेकिन कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी. इसी आधार पर इबोबी सिंह की दलील थी कि सरकार बनाने के लिए उन्हें पहले मौका मिलना चाहिये, ‘‘मैं शक्ति परीक्षण के लिए तैयार हूं क्योंकि मेरे साथ आंकड़े हैं.’’ राज्यपाल नजमा हेपतुल्ला ने पहले ही कह दिया था कि उनके इस्तीफा देने तक वह नई सरकार के गठन की प्रक्रिया शुरू नहीं कर सकतीं. खैर, मणिपुर में भी बीजेपी ने गोवा की तरह ही सरकार बनाने में कामयाब रही.
2013 के आंकड़े भले ही बीजेपी के खिलाफ हों, लेकिन पार्टी की सदस्यता में लगातार इजाफा उसकी हौसलाअफजाई के लिए काफी है. 2014 में 15 हजार से बढ़कर अब बीजेपी सदस्यों की संख्या दो लाख से ज्यादा हो चुकी है. बीजेपी इसे अपने लिए स्वीकार्यता के तौर पर देख रही है और उसे एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर का फायदा मिलने की भी उम्मीद है. हाल के निकाय चुनावों में बीजेपी कई जगह दूसरे स्थान पर रही जिसे वो एक मजबूत इशारा समझ रही है जो गलत नहीं कहा जा सकता.
त्रिपुरा में विधानसभा की कुल 60 सीटें है और इनमें से एक-तिहाई सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं. 2013 में माणिक सरकार ने 55 सीटों पर सीपीएम के उम्मीदवार उतारे थे और 49 सीटों पर जीत मिली थी. कांग्रेस ने 48 सीटों पर उम्मीदवार उतारे और उसे 10 पर जीत मिली.
और माणिक सरकार
त्रिपुरा में 1998 से माणिक सरकार मुख्यमंत्री हैं - और अब तक उनके पास न तो अपनी कार है न घर. बैंक बैलेंस भी ऐसा नहीं कि थोड़ा शान बघार सकें. घर के बारे में कहते हैं जब जरूरत पड़ेगी देखी जाएगी.
माणिक सरकार के विरोधी उनकी गरीबी को पब्लिसिटी से ज्यादा नहीं मानते और उनके कपड़ों, महंगे चश्मे और सैंडल पर सवाल उठाते रहते हैं. हालांकि, माणिक सरकार इससे साफ इंकार करते हैं. भविष्य के लिए वो बताते हैं कि उनका खर्च केंद्र सरकार की कर्मचारी रहीं उनकी पत्नी की पेंशन से चल जाएगा.
ये सच है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन से राजनीति में आये अरविंद केजरीवाल को बीजेपी ने दिल्ली में भारी शिकस्त दी है, लेकिन माणिक सरकार को उसी नजरिये से देखना समझदारी नहीं होगी. शूंगलू कमेटी की रिपोर्ट को माने तो केजरीवाल का शासन सवालों के घेरे में, जबकि माणिक सरकार को देश के सबसे गरीब मुख्यमंत्री होने का गौरव भी हासिल है, उनकी साफ सुथरी छवि भी है. जहां तक राजनीतिक अनुभव की बात है तो केजरीवाल नौसिखिये हैं जबकि माणिक सरकार मंझे हुए खिलाड़ी.
कुछेक चीजों के अलावा माणिक सरकार को क्रिकेट का जबरदस्त शौक है. सचिन तेंदुलकर के अलावा वो सौरव गांगुली, अजहरुद्दीन और अब विराट कोहली के बहुत बड़े फैन हैं. कॉलेज के दिनों में अच्छे बल्लेबाज रहे माणिक सरकार को नई पारी की ओपनिंग अगले साल करनी है - बॉलिंग एंड पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, तो विकेट कीपिंग खुद कैप्टन अमित शाह कर रहे हैं - और दोनों चाहते हैं कि क्लीन बोल्ड करना संभव न हो तो रन आउट तो कर ही दें.
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