शिवसेना को बाल ठाकरे वाला तेवर उद्धव दे रहे हैं या आदित्य?
शिवसेना में हुए कुछ फैसले आदित्य ठाकरे की राजनीतिक सोच की तरफ इशारा कर रहे हैं. क्या आदित्य ठाकरे मातोश्री से निकल कर उद्धव ठाकरे से दो कदम आगे की राजनीति कर रहे हैं? आखिर शिवसेना के ताजा तेवर के पीछे किसका दिमाग चल रहा है?
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शिवसेना खुद को ऐसे पेश कर रही है जैसे वो चैन से सोई हुई थी और अचानक जाग गयी हो. उसका अंदाज काफी बदला हुआ नजर आ रहा है. ऐसा भी नहीं कि शिवसेना में कोई नयी बात नजर आने लगी हो, बल्कि वो तो खुद को कुछ कुछ पुराने अंदाज में प्रस्तुत करने की कोशिश कर रही है.
हाल फिलहाल की शिवसेना की काफी हरकतें बाल ठाकरे वाली पार्टी जैसी लग रही हैं. बाल ठाकरे वाली शिवसेना की स्टाइल राज ठाकरे ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बनाने के बाद दिखाने की कोशिश की थी, लेकिन वो महाराष्ट्र के लोगों को ही पसंद नहीं आयी.
शिवसेना की जो ताजा छवि सामने आ रही है वो राज ठाकरे जैसी तो बिलकुल नहीं है. पूरी तरह बाल ठाकरे वाली भी नहीं कही जा सकती है - लेकिन कुछ तो खास है जो बदला हुआ नजर आ रहा है.
कुछ तो बदला है शिवसेना में
शिवसेना के ताजा तेवर में कुछ पुराना अंदाज देखने को मिल रहा है. बयानों में ही सही ये तेवर लट्ठमार रूप में अभी जरूर दिख रहा है, लेकिन चुनाव से पहले नहीं रहा. इंडिया टुडे कॉनक्लेव में देवेंद्र फडणवीस और आदित्य ठाकरे का सेशन आस पास ही रहा - और दोनों को ही एक दूसरे से जुड़े सवालों से जूझना पड़ा. दोनों ने ही तब बड़ी ही समझदारी से संभावित मुश्किलों पर चर्चा टाल दी थी - लेकिन अब वही सारी चीजें सामने आने लगी हैं.
जहां तक बयानबाजी की बात है - न तो देवेंद्र फडणवीस और न ही उद्धव ठाकरे और आदित्य ठाकरे सीधे सीधे मैदान में उतर रहे हैं. शिवसेना के पास ऐसे दो मारक हथियार हैं जिनके वार सटीक होते हैं - एक, शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत और दो, सामना, शिवसेना का मुखपत्र. ये दोनों शिवसेना के परंपरागत तेवर को अपनाये हुए हैं.
बीजेपी की तरफ से कोई न कोई नेता आगे आता रहता है - कोई शिवसेना को तोड़ डालने की बात कर रहा है तो कोई राष्ट्रपति चुनाव का अल्टीमेटम दे रहा है.
सबसे बड़ी बात जो शिवसेना में देखने को मिल रही है वो है - एक ही स्टैंड पर टिके रहना. महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजे 24 अक्टूबर को आये थे और उसके बाद से ही शिवसेना की ओर से 50-50 का शिगूफा छोड़ा गया जो अब तक कायम है.
शिवसेना की ताजा हलचल के पीछे किसका दिमाग चल रहा है?
समझने की जरूरत ये है कि आखिर वो कौन सी ताकत है जो शिवसेना को अपने स्टैंड पर लंबे वक्त तक कायम रहने के लिए प्रेरित कर रहा है? क्या शिवसेना खुद को करो या मरो वाली स्थिति में पाकर ऐसा कर रही है? ये तो सच है कि शिवसेना को खत्म करने में बीजेपी ने कोई कसर बाकी नहीं रखी है. चूंकि दोनों एक ही तरीके के हिंदुत्व की राजनीति करते हैं इसलिए बीजेपी सीधे सीधे दूसरे विरोधियों की तरह उस पर हमले भी नहीं कर सकती.
बीजेपी ने जान बूझ कर महाराष्ट्र और हरियाणा में एक जैसे प्रयोग किये हैं - महाराष्ट्र में मराठा वर्चस्व को तोड़ने के लिए ब्राह्मण मुख्यमंत्री और हरियाणा में जाट राजनीति में तोड़-फोड़ मचाने के लिए गैर-जाट मुख्यमंत्री. हरियाणा में तो बीजेपी ने जाट वोट बैंक को दुष्यंत चौटाला के जरिये साधने में लग गयी है, लेकिन महाराष्ट्र में शिवसेना मराठी अस्मिता को फिर से उभारने की कोशिश कर रही है - और शरद पवार को बीच में लाने के पीछे भी यही मकसद है.
आपने देखा होगा, चुनाव के दौरान जब शरद पवार के खिलाफ ED ने एफआईआर दर्ज किया था तो सिर्फ राहुल गांधी नहीं, उद्धव ठाकरे भी शरद पवार के साथ ही खड़े दिखे थे.
सिर्फ शरद पवार ही नहीं, एनसीपी की ओर से अजीत पवार और कई दूसरे नेता भी कह चुके हैं कि उनकी पार्टी को विपक्ष में बैठने का जनादेश मिला है - लेकिन शिवसेना की मुहिम पर कोई फर्क नहीं महसूस किया गया है. शरद पवार और उद्धव ठाकरे के बीच संपर्क लगातार बने रहने के संदेश शिवसेना की तरफ से भिजवाये जा रहे हैं.
भविष्य की राजनीति को देखते हुए बीजेपी एनसीपी का सपोर्ट फिर से नहीं लेना चाहती. ऐसे में शिवसेना के सपोर्ट के बगैर बीजेपी के लिए सरकार बनाना नामुमकिन सा है. बीजेपी की बस एक कमजोरी है और उसे शिवसेना ने पकड़ लिया है.
बदलाव का क्रेडिट किसे मिलेगा
उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र के राजनीतिक पटल पर शायद ही कभी नजर आये हों, जब तक बाल ठाकरे सक्रिय रहे. उद्धव के मुकाबले राज ठाकरे ज्यादा मुखर हुआ करते थे और उनकी मौजूदगी बराबर महसूस की जाती रही. विरासत तो बेटे की होती है, लिहाजा राज ठाकरे ने 2006 में अपनी अलग राह चुन ली और MNS बना कर अपनी अलग राजनीति करने लगे.
उन दिनों उद्धव ठाकरे सामना के संपादन में दिलचस्पी लेते थे और तब से लेकर अब तक सामना का संपादकीय महाराष्ट्र की राजनीति में महत्वपूर्ण बयान हुआ करता रहा है. वो आज भी जारी है. उद्धव ठाकरे शिवसेना के उस तेवर को सामना के संपादकीय में कायम रखने में कामयाब रहे हैं. मुद्दा अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का रहा हो या पाकिस्तान के खिलाफ भारत के स्टैंड का उद्धव ठाकरे की राजनीति सामना के संपादकीय तक ही सीमित दर्ज होती रही है.
उद्धव ठाकरे ने महाराष्ट्र चुनाव के बाद सरकार बनाने को लेकर बीजेपी के खिलाफ भी सामना का वैसे ही इस्तेमाल किया है जैसे शिवसेना अब तक करती आयी है - लेकिन पार्टी जिस रणनीति के साथ मैदान में डटी हुई है वो सिर्फ सामना के संपादकीय के वश की बात नहीं है.
सामना का संपादकीय हर रोज एक पॉलिटिकल लाइन तय कर देता है और मुद्दे के हिसाब से बाकी नेता उस पर रिएक्ट करते रहते हैं. देवेंद्र फडणवीस ने ते यहां तक कह दिया है कि सामना के जरिये दोनों दलों के बीच के संवाद को पटरी से उतारने की कोशिश हो रही है और वो ठीक नहीं है.
क्या ये मातोश्री से निकल कर ठाकरे परिवार के किसी सदस्य के चुनाव लड़ने और जीत कर जनप्रतिनिधि बनने का असर है?
है तो ये बहुत बड़ा बदलाव शिवसेना के अब तक के इतिहास में. जो न बाल ठाकरे कर सके, न उद्धव ठाकरे से हो पाया - आदित्य ठाकरे ने उसे कर दिखाया है.
आदित्य ठाकरे के प्रत्यक्ष राजनीति में उतरने के बाद से शिवसैनिकों में उत्साह भी बढ़ा हुआ है. शिवसैनिकों के इसी जोश को भुनाने की हर संभव कोशिश कर रही है. बीजेपी के लिए शिवसैनिकों के जोश को देखते हुए संभल संभल कर कदम बढ़ाना पड़ रहा है. बीजेपी ऐसी कोई दांव नहीं चलना चाहती कि मराठा आरक्षण जैसे महत्वपूर्ण फैसलों पर पानी फिर जाये. ये मराठा आरक्षण का ही मसला रहा जिसके चलते कांग्रेस और एनसीपी से कई नेता बीजेपी और शिवसेना में पहुंच गये.
यहां एक चीज समझने में थोड़ी मुश्किल हो सकती है. आदित्य ठाकरे में उत्साह है और सोच नयी है - लेकिन उद्धव ठाकरे ने राजनीति को बचपन से ही करीब से देखा है. राजनीति के फील्ड में वो भले ही सीधे सीधे कूदे न हों, लेकिन ऐसा कोई वाकया तो हुआ नहीं होगा जिसकी ज्यादा से ज्यादा जानकारी उद्धव ठाकरे तक न पहुंची है. कम से कम महाराष्ट्र की राजनीति के मामले में. इस हिसाब से तो उद्धव ठाकरे और आदित्य ठाकरे में अनुभव और उत्साह जैसा ही बड़ा फर्क समझा जा सकता है - लेकिन बाद बस इतनी ही नहीं है.
या तो उद्धव ठाकरे हर पिता की तरह अपने अधूरे ख्वाब पुत्र के जरिये पूरा करने की कोशिश में हों. या फिर आदित्य ठाकरे दादा की राजनीति को फिर से महाराष्ट्र की सड़कों पर उतारने का मंसूबा पाले हुए हों. वैसे भी उद्धव की तुलना में आदित्य ठाकरे में बाल ठाकरे की छवि ज्यादा देखी जाती है. करीब करीब वैसे ही जैसे प्रियंका गांधी वाड्रा में इंदिरा गांधी की छवि.
आदित्य ठाकरे के जनता के बीच जाने और चुनाव लड़ने का फैसला भी तो ऐसा ही होगा. निश्चित तौर पर ये बात पूरे परिवार ने मिलजुल कर तय की होगी - लेकिन पहल तो किसी एक ने ही की होगी. या तो उद्धव ठाकरे के मन में ये बात रही हो, या फिर आदित्य ठाकरे ने मातोश्री तक सिमटी राजनीति के दायरे को आगे बढ़ाने की पहल की हो और उसे मंजूरी दे दी गयी हो. जैसे भी संभव हुआ हो, लेकिन उद्धव ठाकरे की ओर से अभी तक ऐसा तो नहीं ही हो सका था.
कुछ मीडिया रिपोर्ट में इस बात की भी चर्चा रही कि एकनाथ शिंदे को शिवसेना विधायक दल का नेता बनाने फैसला भी आदित्य ठाकरे का ही लगता है. मतलब, बिलकुल ये बात नहीं है कि उद्धव ठाकरे ने आदित्य ठाकरे की जगह एकनाथ शिंदे को तरजीह दी है - माना जा रहा है कि ये पहल खुद आदित्य ठाकरे की ही है. आखिरी फैसला न सही, अगर आदित्य ठाकरे की ओर से ऐसी पहल होने लगी है फिर तो समझा जा सकता है कि शिवसेना जो बदली बदली नजर आ रही है उसके पीछे आदित्य ठाकरे का दिमाग काम कर रहा है - हालांकि, ऐसे किसी नतीजे पर पहुंचने से पहले आदित्य ठाकरे के आने वाले कदम पर ध्यान देना जरूरी होगा.
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