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Updated: 13 जुलाई, 2022 08:02 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) की सरकार चल रही होती तो भी वो राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू (Droupadi Murmu) का सपोर्ट कर सकते थे - क्योंकि शिवसेना का ट्रैक रिकॉर्ड ऐसा ही रहा है. लेकिन सरकार चले जाने और शिवसेना के सामने की मुश्किल घड़ी में उद्धव ठाकरे का ये फैसला बरबस ध्यान खींचता है.

हालात के हिसाब से द्रौपदी मुर्मू को सपोर्ट करने का फैसला उद्धव ठाकरे के लिए राहत भरा हो सकता है. जरूरी नहीं कि दूरगामी नतीजे भी अपेक्षा के अनुसार ही हों, जैसी चीजें अभी नजर आ रही हैं. एक बात तो है ही कि सबको सोचने समझने का मौका जरूर मिल गया है.

देखा जाये तो उद्धव ठाकरे का एनडीए कैंडिडेट को समर्थन देने के फैसले का असर वैसा ही है जैसा गोवा में कांग्रेस ने किया है. बस कुछ और समय मिल गया है - और ऐसी मुश्किल घड़ी में थोड़ा वक्त भी बड़ी राहत देने वाला होता है. सोनिया गांधी के लिए गोवा जाकर मुकुल वासनिक ने इतना भर तो कर ही दिया है.

उद्धव ठाकरे चाहे जो भी दावे करें, चाहे जितनी भी सफाई दें - लेकिन द्रौपदी मुर्मू को सपोर्ट करने का फैसला वो अपने मन से तो नहीं ही लिये हैं. असल में ये सुझाव भी शिवसेना के कुछ सांसदों की तरफ से ही आया था. हो सकता है ये सांसद उद्धव ठाकरे के प्रति सहानुभूति रखते हों या ठाकरे परिवार के प्रति निष्ठा रखते हों. ये भी हो सकता है कि ऐसे सांसद अब भी फैसला नहीं कर पा रहे हों कि उद्धव ठाकरे के साथ ही बने रहें या फिर एकनाथ शिंदे यानी बीजेपी के करीब चले जायें?

उद्धव ठाकरे ने कुछ सांसदों की बात मान कर शिवसेना को हाल फिलहाल एक और फजीहत से तो बचा लिया है, लेकिन ऐन उसी वक्त महाविकास आघाड़ी के साथियों की नाराजगी मोल ली है - औरंगाबाद का नाम बदलने को लेकर शरद पवार (Sharad Pawar) का बयान तो ऐसे ही इशारे कर रहा है.

द्रौपदी मुर्मू के सपोर्ट की कीमत भी चुकानी होगी

उद्धव ठाकरे के द्रौपदी मुर्मू का समर्थन देने को लेकर शरद पवार और ममता बनर्जी दोनों की राय अलग अलग हो सकती है - क्योंकि ममता बनर्जी के यशवंत सिन्हा को उम्मीदवार बनाकर कदम पीछे खींच लेने के बाद भी शरद पवार तो मोर्चा संभाल ही रहे हैं. और नतीजा क्या होना है, ये तो शरद पवार और ममता बनर्जी दोनों को ही मालूम है.

मुर्मू का सपोर्ट बोले तो, बीजेपी का समर्थन नहीं: शिवसेना सांसद संजय राउत ने अपनी तरफ से ये बात पहले ही साफ करने देने की कोशिश की है - द्रौपदी मूर्मु के समर्थन का मतलब बीजेपी का समर्थन नहीं है. ऐसा कहने के पीछे संजय राउत के पास एक मजबूत दलील तो है ही. शिवसेना ऐसा कोई पहली बार तो कर भी नहीं रही है.

और उद्धव ठाकरे भी अपनी तरह से ऐसी ही बातें समझाने की कोशिश कर रहे हैं. उद्धव ठाकरे कहते हैं, ठाकरे ने कहा, 'दरअसल, मौजूदा राजनीतिक माहौल को देखते हुए, मुझे उनका समर्थन नहीं करना चाहिये था - लेकिन हम संकीर्ण मानसिकता वाले नहीं हैं.'

sonia gandhi, uddhav thackeray, sharad pawarद्रौपदी मुर्मू का समर्थन उद्धव ठाकरे के लिए रिस्क वाला तो है, लेकिन एक बार उबर गये तो चीजें आसान भी हो सकती हैं

ये बात तो बिलकुल सही है. अभी तो उद्धव ठाकरे अगर ये कहते कि वो खुद वही फैसला लिये हैं जैसा पहले शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे लिया करते थे. ये उद्धव ठाकरे की तरफ से उन आरोपों का जवाब है जिसमें कहा जाता है कि वो बाल ठाकरे की शिवसेना को अलग रास्ते पर ले जा चुके हैं - और एकनाथ शिंदे तो इसी बात को मुद्दा बनाकर बीजेपी की मदद से उद्धव ठाकरे की सरकार गिराकर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर भी बैठ चुके हैं.

उद्धव ठाकरे के पास अब इतनी राजनीति का अधिकार तो है ही, 'शिवसेना सांसदों की बैठक में किसी ने मुझ पर दबाव नहीं डाला.'

बड़ी ही मासूमियत के साथ उद्धव ठाकरे कहते हैं, 'मेरी पार्टी के आदिवासी नेताओं ने मुझसे कहा कि ये पहली बार है कि किसी आदिवासी महिला को राष्ट्रपति बनने का मौका मिल रहा है' - और वो मान गये. अगर उद्धव ठाकरे अपने नेताओं के मन की बात पहले सुन लिये होते तो ये दिन शायद न देखने पड़ते. आखिर बागी बनने से पहले शिवसेना विधायक कह तो रहे ही थे कि वो बीजेपी के साथ वापस गठबंधन कर लें. मुश्किल तो ये भी थी कि बीजेपी भी ऐसा करने को तैयार होती, ये कैसे मालूम होता.

निष्ठावान विधायकों को उद्धव ठाकरे का शुक्रिया : शिवसेना सांसदों की बात मान लेने के साथ साथ उद्धव ठाकरे की तरफ से अपने साथ डटे विधायकों को एक इमोशनल चिट्ठी भी लिखी गयी है. ये वे विधायक हैं जो अब भी उद्धव ठाकरे के साथ बने हुए हैं, जबकि स्पीकर की तरफ से नोटिस भी मिला हुआ है. इन विधायकों में आदित्य ठाकरे भी हैं, जिन्हें एकनाथ शिंदे की तरफ से बाल ठाकरे का पौत्र होने के नाते बख्श दिया गया है. वैसे सुप्रीम कोर्ट ने फैसला होने तक ऐसे विधायकों के खिलाफ स्पीकर के एक्शन लेने पर रोक ला दी है.

उद्धव ठाकरे ने अपने आभार पत्र में लिखा है, मुसीबत की घड़ी में पार्टी के प्रति निष्ठा और विश्वास दिखाने के लिए आप सभी का धन्यवाद... शिवसेना को इतनी ताकत देने के लिए धन्यवाद... मां जगदंबा आपको हमेशा स्वस्थ रखें, मेरी उनसे यही प्रार्थना है. साथ ही, उद्धव ठाकरे ने इन विधायकों से अपील की है कि वे किसी भी धमकी या प्रलोभन के चक्कर में न पड़ें और एकनिष्ठ बने रहें.

मुर्मू को समर्थन देने की सांसदों की पहल की वजह: सबसे पहले राहुल शेवाले ने उद्धव ठाकरे से एनडीए उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति चुनाव में समर्थन देने की अपील की थी. हालांकि, रामदास तडस जैसे सांसद का दावा है कि शिवसेना के 12 सांसद एकनाथ शिंदे के पक्ष में खड़े हो सकते हैं. ये कह कर कि 'हिंदुत्व की रक्षा के लिए हम ऐसा कदम उठाएंगे,' रामदास तडस ने अपना भी इरादा जता दिया है.

शिवसेना सांसद गजानन कीर्तिकर के मुताबिक, उद्धव ठाकरे की तरफ से बुलायी गयी मीटिंग में सिर्फ दो सांसद मौजूद नहीं थे. गजानन कीर्तिकर ने उनके नाम भी बताये हैं - भावना गवली और श्रीकांत शिंदे. भावना गवली को हाल ही में उद्धव ठाकरे ने लोक सभा में शिवसेना की नेता के पद से हटा दिया था. श्रीकांत शिंदे तो एकनाथ शिंदे के बेटे ही हैं.

उद्धव की बैठक में शामिल हुए शिवसेना सांसद गजानन कीर्तिकर ने कहा, 'वह एनडीए उम्मीदवार हैं लेकिन द्रौपदी मुर्मू आदिवासी समुदाय से आती हैं और एक महिला हैं। हमें उन्हें अपना समर्थन देना चाहिए- यह सभी सांसदों की मांग है। उद्धव जी ने हमसे कहा है कि वह एक या दो दिन में अपना फैसला बताएंगे।'

शिवसेना का ये स्टैंड नया तो नहीं ही है. हालात अलग हैं इसलिए मजबूरी का फैसला लग रहा है - और अपना फैसला शेयर करते हुए उद्धव ठाकरे भी याद दिला ही रहे हैं कि कैसे शिवसेना प्रतिभा पाटिल और प्रणब मुखर्जी का गठबंधन से अलग और आगे बढ़ कर सपोर्ट किया था. शिवसेना सांसदों का भी ऐसा ही कहना था.

उद्धव ठाकरे भले ही शिवसेना के पिछले फैसलों की याद दिलायें, लेकिन पुरानी परिस्थितियां बिलकुल अलग थीं. तब बीजेपी की भी इतनी हिम्मत नहीं हुआ करती थी कि वो शिवसेना पर दबाव बना सके - ठीक वैसे ही जैसे शिवसेना के साथ गठबंधन के बावजूद उद्धव ठाकरे के दबाव के आगे बीजेपी नारायण राणे के लिए कुछ भी नहीं कर पा रही थी.

मुद्दे की बात ये भी है कि उद्धव ठाकरे ने ये कदम उठा कर गठबंधन साथियों की नाराजगी लेकर शिवसेना को अकेले कर दिया है, लेकिन अपने दम पर खुद को मजबूत बनाने का ये एक बेहतरीन मौका भी है.

उद्धव के प्रति कांग्रेस-एनसीपी का रुख बदल सकता है

एक बात तो साफ है, उद्धव ठाकरे खुद को तसल्ली देने के साथ साथ अब तक साथ बने हुए शिवसेना विधायकों को भी आश्वस्त कर पा रहे होंगे कि एकनाथ शिंदे के साथ न जाने का उनका फैसला गलत नहीं था - और उन सांसदों को भी इतना समय तो दे ही दिया है ताकि वे सोच समझ कर कोई फैसला ले सकें.

विधायकों को तो जो कुछ मिलना था, मिल गया है. चाहे वो जिस रूप में हो. जो मंत्री बन गये वे तो फायदे में हैं ही, जो नहीं बने उनके लिए भी फायदे के इंतजाम किये ही जा चुके होंगे - लेकिन सांसदों को तो कुछ मिला नहीं है.

महाराष्ट्र में अगला विधानसभा चुनाव लोक सभा से थोड़ा ही पहले होगा और हकीकत तो चुनाव मैदान में उतरने पर मालूम होगी. ये ठीक है कि जो भी नेता एकनाथ शिंदे के पक्ष में गये हैं उनको बीजेपी से भी मदद मिल सकती है, लेकिन बीजेपी हर मौके पर सिर्फ अपना फायदा देखती है. बीजेपी के तमाम गठबंधन साथी इस बात के गवाह हैं. ये भी ठीक है कि एकनाथ शिंदे के साथ विधायकों के बाद निगमों के चुने हुए प्रतिनिधि भी भारी संख्या में पाला बदलते जा रहे हैं, लेकिन चुनावों में क्या हाल होने वाला है - अभी ये कोई नहीं जानता.

2018 के आखिर में हुए विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में सत्ता गवां दी थी, लेकिन छह महीने के भीतर ही जब आम चुनाव हुए तो नतीजे बिलकुल अलग रहे. राज्यों में सत्ता बदल जाने के बावजूद लोगों ने वोट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर ही डाला था - जरूरी न सही, लेकिन ऐसा उद्धव ठाकरे के साथ भी होने की संभावना से तो इनकार भी नहीं किया जा सकता.

पवार की बातें तो नाखुशी ही जाहिर करती हैं: उद्धव ठाकरे के लिए विपक्ष के साथ ऐडजस्ट करना अब मुश्किल हो सकता है. कांग्रेस और एनसीपी को तो उद्धव ठाकरे के द्रौपदी मुर्मू को सपोर्ट करने का स्टैंड बिलकुल भी अच्छा नहीं लगेगा. अब तक तो वे उद्धव के साथ रहने का भरोसा दिला रहे थे, लेकिन अब फैसले पर विचार कर सकते हैं.

एनसीपी नेता जयंत पाटिल का ये कहना कि पहले भी शिवसेना राष्ट्रपति चुनाव में अपना अलग फैसला लेती रही है. जयंत पाटिल इसे शिवसेना और उद्धव ठाकरे का निजी फैसला बताते हुए समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि एनसीपी का इससे कोई लेना देना नहीं है - लेकिन शरद पवार का औरंगाबाद के नाम पर उद्धव ठाकरे को कठघरे में खड़ा कर देने को आखिर कैसे समझा जाये?

हुआ तो ये था कि कैबिनेट की जिस बैठक में नाम बदलने के प्रस्ताव को मंजूरी दी गयी, कांग्रेस और एनसीपी दोनों के ही मंत्री मौजूद रहे. कांग्रेस कोटे के मंत्री अशोक चव्हाण का कहना था कि नाम बदला जाना कैबिनेट का फैसला था. हालांकि, मीडिया से बातचीत में एनसीपी के नेता कहते हैं कि प्रस्ताव बगैर बहस या किसी चर्चा के बस पास कर दिया गया था. एक मीडिया रिपोर्ट में एनसीपी के एक नेता के हवाले से बताया गया है कि कैसे एनसीपी को लगता है कि ये उद्धव ठाकरे का राजनीतिक फायदा उठाने का प्रयास रहा. उद्धव ठाकरे को पता था कि वो उनकी सरकार का आखिरी दिन था. मीडिया से बातचीत में एनसीपी नेता का सवाल होता है, अगर उद्धव ठाकरे ऐसा करने को लेकर गंभीर थे तो कैबिनेट के सामने पहले ही ये प्रस्ताव लाना चाहिये था.

मीडिया से बातचीत में एनसीपी नेता शरद पवार का कहना रहा, 'मुझे औरंगाबाद और उस्मानाबाद का नाम बदलने के फैसले के बारे में तब मालूम हुआ जब कैबिनेट ने फैसला कर लिया... चूंकि ये तीन दलों की सरकार रही, इसलिए मुझे लगता है कि घटक दलों के बीच प्रस्ताव पर चर्चा की जानी चाहिये थी.'

महाराष्ट्र के सीनियर कांग्रेस नेता बालासाहेब थोराट की बात भी ध्यान देने वाली हैं, 'संविधान और लोकतंत्र का समर्थन करने वाला हर कोई राष्ट्रपति पद के लिए यशवंत सिन्हा का समर्थन कर रहा है... हमें नहीं पता कि शिवसेना द्रौपदी मुर्मू का समर्थन क्यों कर रही है? शिवसेना महाविकास आघाड़ी का हिस्सा है, लेकिन हमसे इस पर कोई विचार-विमर्श नहीं किया गया है.'

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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