धर्म-व्यापार की राजनीति में गायब हुए जनहित के मुद्दे?
5 राज्यों में चुनाव हैं ऐसे में सत्ताधारी दल भाजपा और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सारा फोकस उत्तर प्रदेश हैं. यूपी में पीएम लगातार रैलियां कर रहे हैं और विपक्ष को जमकर घेरा भी जा रहा है. लेकिन दिलचस्प ये कि इन रैलियों में ऐसी कोई बात नहीं हो रही जिसका सीधा फायदा जनता को मिले.
-
Total Shares
मुल्क में नए किस्म की सियासत यानी मुद्दाविहीन दौर चल पड़ा है जिसमें सियासी दलों को तो फायदा हो रहा है. पर, इस चलन से आवाम का कितना नुकसान हो रहा है, ये राजनेता अंदाजा नहीं लगा सकते. दरअसल, जनहित की राजनीति में मुद्दा जहां महंगाई-रोजगार का होना चाहिए, वहां धर्म-समुदाय के नाम पर जनता को आपस में भिड़ाया जा रहा है. कमोबेश, मौजूदा समय के पांच राज्यों के चुनावी हुड़दंग में चकल्लस ऐसी ही मची हुई है. चुनावी मौसम को चुनावी हुड़दंग इसलिए कहा जाने लगा है क्योंकि आमजन के मुद्दों के जगह अब सिर्फ विलाबजह का शोर होता है. सियासी भाषणों से जमकरड्रामा हो, उसकी पटकथा पहले ही लिखी जा चुकी होती है जिसका मुख्यालय दिल्ली है. राजधानी में सियासी पार्टियों के जितने के भी मुख्यालय है वहां आजकल इसी की पाठशाला लगती है. सप्ताह में करीब दो बार प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश में चुनावी सभा करने पहुंच रहे हैं. वहां कुछ ऐसा बोलकर चले आते हैं जिससे माहौल एकाध दिनां तक चर्चाओं में रहता है.
रैली में प्रधानमंत्री विपक्ष को तो घेर रहे हैं पर ऐसी कोई बात नहीं हो रही जिससे फायदा जनता को हो
पिछले सप्ताह शाहजहांपुर में योगी को यूपी का उपयोगी बोल आए थे और उसके पिछले सप्ताह लाल टोपी बोलकर हंगामा कटवा दिया था. यूपी चुनाव में इस समय लाल टोपी, जालीदार टोपी, धर्म-धर्मांतरण, जिन्ना आदि के मसले ही तो गर्म हैं. दालों का रेट आसमान छू रहा है, ईंधन की कीमतें, रोजमर्रा की वस्तुएं आपे से बाहर हैं, बावजूइ इसके कोई राजनेता बोलने को राजी नहीं है.
बहरहाल, चुनाव जैसे-जैसे अपने रंगत में आता जा रहा है, कोरोना भी जोर मारने लगा है. कोरोना के बढ़ते मामलों को देखते हुए केंद्र सरकार ने करीब दर्जन भर राज्यों में रात्रि कफयू लगाया है जिनमें ज्यादातर वो राज्य हैं जिनमें चुनाव नहीं हैं. सिर्फ उत्तर प्रदेश में रात्रि कर्फ्यू की घोषणा हुई है. ऐसा तो नहीं कहीं कोरोना भाजपा की जबरदस्त तैयारियों पर कोरोना पानी फेर देगा?
चुनाव कहीं वर्चुअल तरीके से ना कराने पड़ जाएं. दिल्ली में बीते एक सप्ताह से रोजाना कोरोना संक्रमण के केस बढ़ रहे हैं. दिल्ली ही क्या पूरे देश में यही हाल है. संक्रमणों और मरने वाले मरीजों में भी एकाएक बढ़ोतरी हुई है. कोरोना के नए वेरिएंट ओमीक्रॉम ने अपने शुरूआती चरण में ही हंगामा बरपा दिया है. इसलिए दिल्ली में मुख्य चुनाव आयोग के कार्यालय में सुगबुगाहट इस बात है कि शायद चुनाव आगे बढ़ाए जाएं, इसको लेकर मुख्य चुनाव आयुक्त बीते दिनों उत्तराखंड के दौरे पर जायजा लेने पहुंचे.
पंजाब भी जाने वाले हैं और 29 तारीख को लखनउ में जाएंगे, जहां सभी जिलों के एसपी-डीएम के साथ बैठक करके स्थिति का जायजा लेंगे. चुनाव कराने के मुताबिक अगर उनसे फीडबैक अच्छा नहीं मिला तो कुछ महीनों के लिए चुनाव टाले भी जा सकते हैं. ऐसा भी हो सकता है बिहार विधानसभा की तरह चुनाव वर्चुअल कराने का निर्णय लिया जाए.
कोरोना की स्थिति आगे क्या रहने वाली है, किसी को पता नहीं? चिकित्सकों में भी स्थिति स्पष्ट नहीं हैं. वो तीसरी लहर का अंदाजा अक्टूबर के आसपास लगा रहे थे. डब्ल्यूएचओ ने भी यही तुक्का मारा था, हालांकि उनका अनुमान पहली लहर में भी धराशायी हुआ था. लेकिन पिछली दोनों लहरों की टाइमिंग ठीक से देखें, तो दोनों का आगमन एक ही वक्त पर हुआ था.
होली त्योहार के तुरंत बाद कोरोना ने एकदम जोर पकड़ा था. शुरूआत इन्हीं दिनों यानी दिसंबर-जनवरी से होनी आरंभ हुई थी, जो धीरे-धीरे बढ़ती गई. इस हिसाब से तो मार्च-अप्रैल के लिए हमें अभी से सतर्क होना चाहिए. केंद्र सरकार और राज्यों की हुकूमतों को अभी से कमर कस लेनी चाहिए. चिकित्सा तंत्र की उन दिनों परीक्षा होती है, उन्हें अपनी तैयारियों को अभी से दुरुस्त करना चाहिए.
मौसम चुनावी है इसलिए उन राज्यों को सबसे ज्यादा गंभीर होना चाहिए, जहां चुनाव हैं. विशेषकर उत्तर प्रदेश को, जहां सियासी दलों की रैलियों में एक साथ लाखों लोगों जुट रहे हैं. क्योंकि ऐसी गलती हम पश्चिम बंगाल चुनाव में पहले कर चुके हैं. वहां बढ़ते कोरोना के बीच चुनाव संपन्न हुए थे. चुनाव खत्म होते ही पाबंदियां लगा दी गई थीं, लेकिन तबतक संक्रमण बुरी तरह फैल चुका था.
यही हाल इस वक्त यूपी में हैं, लेकिन इस बात की कोई परवाह नहीं कर रहा. बेशक, वहां रात्रि कर्फ्यू लगा दिया है जो कोरोना रोकने का विकल्प कतई नहीं हो सकता. स्थिति चाहें कैसे भी हो, चुनावी रैलियों में बड़े नेताओं को भीड़ चाहिए. भीड़ जुटाने का दबाव अब सिर्फ कार्यकर्ताओं के कंधों पर नहीं होता. जिले के पटवारी, तहसीलदार, लेखपाल, ग्राम प्रधान, रोजगार सेवक, आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को भी लगाया जाता है.
रैली से पुर्व गांव के बाहर बसों को तैनात किया जाता है, उन्हें खचाखच भरने की जिम्मेदारी इन सरकारी मुलाजिमों की ही होती है. ये बात तो काफी समय से तय हो चुकी है कि अब चुनावी रैलियों में जुटने वाली भीड़ वास्तिव नहीं होती, वह लालच देकर बुलाई जाती है. मतदाताओं को पैसे भी दिए जाते हैं, जिस जिले में रैली होती है भीड़ के लोग स्थानीय नहीं, बल्कि अन्य जिलों के होते हैं.
बंगाल में इसको लेकर हंगामा भी कटा था. ममता बनर्जी सार्वजनिक रूप से भाजपा पर आरोप लगाती रहीं थी कि उनकी रैलियों में दिखने वाले चेहरे बंगाली नहीं है बल्कि बहारी हैं. दरअसल, ये तस्वीरें गंदी सियासत की परिभाषा को बताने के लिए पर्याप्त हैं. साफ-सुधरी राजनीति के लिए राजनेताओं को इन हथकंड़ों से तौबा करना चाहिए.
ये भी पढ़ें -
Mercedes Maybach S650: पीएम मोदी के काफिले में शामिल यह कार 12 करोड़ की यूं ही नहीं है
राहुल गांधी के लिए 2022 में जानी दुश्मन हो सकते हैं ये 5 सियासी किरदार
आपकी राय