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Updated: 06 फरवरी, 2019 07:33 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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मंदिर निर्माण पर खुद ही चुनाव आचार संहिता लागू करने के पीछे विश्व हिंदू परिषद की दलील सिर्फ इतनी है कि राम मंदिर चुनाव में मुद्दा न बने. सुन कर तो एकबारगी विचित्र किंतु सत्य जैसा ही लगता है. मगर, क्या वाकई ऐसा ही है?

अगर इसके पीछे केंद्र की बीजेपी सरकार द्वारा अयोध्या में विवादित भू-भाग को छोड़कर 67 एकड़ जमीन वापस करने की अनुमति मांगने वाली अर्जी है, तो कुंभ के धर्म संसद में इतने हंगामे की जरूरत ही क्या थी?

1. क्या भागवत की सलाह पर अमल हुआ?

विश्व हिंदू परिषद ने अब फैसला कर लिया है कि लोक सभा चुनाव खत्म होने तक अयोध्या राम मंदिर निर्माण के लिए जारी मुहिम स्थगित रहेगी. ये फैसला हर किसी को हैरान करने वाला है.

विहिप के अंतरराष्ट्रीय संयुक्त महासचिव सुरेंद्र जैन ने आजतक से बातचीत में कहा, 'हम नहीं चाहते हैं कि ये चुनावी मुद्दा बने, क्योंकि राम मंदिर लिए आस्था और पवित्रता से जुड़ा हुआ है.'

इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में वीएचपी के कार्यकारी अध्यक्ष आलोक कुमार का कहना रहा, 'हम अगले 4 महीने तक किसी भी तरह का धरना प्रदर्शन नहीं करेंगे.'

क्या वीएचपी के इस चौंकाने वाले फैसले के पीछे धर्म संसद या उससे जुड़ा कोई वाकया हो सकता है?

प्रयागराज कुंभ मेले में दो दिन की धर्म संसद हुई थी जिसमें आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत भी शामिल हुए. विरोधी विचारधारा की बात और है, लेकिन अपनों के बीच ही मोहन भागवत के खिलाफ कोई आवाज उठे, ऐसा विरले ही होता होगा. धर्म संसद में ऐसा हुआ और जो भी हुआ जोरदार हुआ. धर्म संसद में मोहन भागवत के कार्यक्रम के दौरान हंगामा और नारेबाजी बहुत बड़ी बात है - 'तारीख बताओ, तारीख बताओ'.

सवाल है कि क्या वीएचपी के फैसले में इस घटना की भी कोई भूमिका हो सकती है? वीएचपी के बैनर से जितना उग्र रूख प्रवीण तोगड़िया ने अख्तियार किया, किसी और का देखने को तो नहीं मिला है. मोदी से टकराव के चलते तोगड़िया को बाहर का ही रास्ता दिखा दिया गया.

क्या विहिप को ये फैसला बीजेपी नेतृत्व की ओर से कोई सख्ती दिखाने के चलते हुआ है?

या फिर मोहन भागवत की वो खास सलाह माननी पड़ी है?

ramdev, bhagwatकहां राम मंदिर पर अध्यादेश चाहिये था - और कहां खुद ही आचार संहिता लागू कर ली!

धर्म संसद में मोहन भागवत ने एक खास हिदायत भी दी थी - "हमें सरकार के लिए कठिनाई नहीं पैदा करनी बल्कि मदद करनी है."

क्या मोहन भागवत ने धर्म संसद में सरकार के लिए मुश्किल नहीं खड़ी करने की बात किसी खास रणनीति के तहत ही कही थी? क्या उस हंगामे के पीछे भी भागवत का सरकार को लेकर दी गयी सलाह की कोई भूमिका रही? ऐसे कई सवाल हैं जो वीएचपी के आंदोलन स्थगित करने के इर्द गिर्द घूम रहे हैं.

खास बात एक और ये हुई है कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी देकर विवादित जमीन छोड़ कर बाकी लौटाने की गुजारिश की है. तो क्या वीएचपी ने इसे पर्याप्त मान लिया है - और संघ ने तय किया है कि फिलहाल बीजेपी अपने वोट बैंक को चाहे जैसे भी हो समझाये कि इस मोड़ पर जमीन वापस मिल जाना भी कम नहीं है. मुद्दे की बाते - अगर और चाहिये यानी भव्य मंदिर बनवाना ही है तो दोबारा बीजेपी की सरकार बनवाओ.

2. क्या संत समाज के बंटने के डर है?

वीएचपी की धर्म संसद के ऐन पहले स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने घोषणा कर दी थी कि 21 फरवरी से मंदिर निर्माण शुरू होगा. एक तरफ तारीख की घोषणा और दूसरी तरह तारीख की मांग. आखिर क्या समझा जाना चाहिये?

सवाल ये भी उठता है कि क्या वीएचपी को संत समाज के बंट जाने की आशंका लग रही थी?

3. कहीं प्रियंका की कोई संभावित काउंटर स्ट्रैटेजी का डर तो नहीं?

संघ, वीएचपी और बीजेपी नेता अरसे से कांग्रेस पर राम मंदिर निर्माण में रोड़े अटकाने की तोहमत लगाते रहे हैं. हाल में खबर आई थी कि प्रियंका गांधी कुंभ में राहुल गांधी के साथ डुबकी लगा सकती है. पिछले 18 साल में किसी कांग्रेस नेता ने ऐसा नहीं किया. 2001 में सोनिया गांधी ने कुंभ में स्नान किया था.

कयास लगाये जाने लगे थे कि राहुल गांधी के सॉफ्ट हिंदुत्व को आगे बढ़ाते हुए प्रियंका गांधी अयोध्या मुद्दे पर बीजेपी पर पलटवार कर सकती हैं. जब प्रियंका गांधी के कुंभ आगमन की खबर पहुंची तो अखाड़ा परिषद ने स्वागत और आशीर्वाद तक देने की बात कही. 21 फरवरी से मंदिर निर्माण की घोषणा करने वाले स्वामी स्वरूपानंद पर भी कांग्रेस नेता दूसरों के मुकाबले अपना ज्यादा हक समझते हैं.

तो क्या प्रियंका गांधी की भी वीएचपी के पैर पीछे खींचने में कोई भूमिका हो सकती है?

4. विधानसभा चुनावों में कोई फायदा नहीं मिलने से तो नहीं?

2018 के आखिर में हुए विधानसभा चुनावों में भी बीजेपी नेता मंदिर निर्माण का मुद्दा उठाते रहे. योगी आदित्यनाथ ने तो अली बनाम बजरंगबली की जंग और दलित हनुमान तक को चुनावी मैदान उतार दिया - लेकिन सब बेकार गया.

कर्नाटक चुनाव से पहले यूपी में अलीगढ़ से जिन्ना विवाद को खूब हवा दी गयी और कैराना पहुंचते पहुंचते एकजुट विपक्ष ने इसे जिन्ना बनाम गन्ना का रूप दे दिया - बीजेपी नेता मुंह देखते रह गये.

yogi adityanathफिर चुनाव प्रचार में क्या कह कर वोट मांगेंगे योगी?

क्या थोड़ा बहुत इस वाकये का वीएचपी के फैसले में कोई रोल नहीं हो सकता?

5. सहयोगी दलों के चलते तो नहीं?

शिवसेना तो अयोध्या मामले में पूरा मैदान ही लूट लेने पर आतुर है. उद्धव ठाकरे की अयोध्या यात्रा और उसी दौरान मथुरा और काशी दौरे का संदेश, जाहिर है बीजेपी में बड़ी चेतावनी के तौर पर लिया गया होगा.

अयोध्या पहुंचने से पहले और बाद में भी उद्धव ठाकरे सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से पूछते रहे हैं - आखिर मंदिर कब बनेगा?

एक तरफ शिवसेना तो दूसरी तरफ जेडीयू जैसे सहयोगी दल कई बार संकेत दे चुके हैं कि वो मंदिर मुद्दे पर बीजेपी के साथ पूरी तरह नहीं खड़े होने वाले.

कहीं ऐसा तो नहीं कि जिन्हें बीजेपी एनडीए में शामिल करना चाह रही है, वे इस मुद्दे के चलते हाथ पीछे खींच ले रहे हों? जैसे नवीन पटनायक की पार्टी बीजेडी?

6. कहीं कोर्ट से टकराव की स्थिति न बन पड़े इसलिए?

हाल फिलहाल संघ परिवार से जुड़े संगठनों के नेता अयोध्या केस को लेकर सुप्रीम कोर्ट को टारगेट करने लगे थे. सबरीमाला केस में तो अमित शाह ने यहां तक कह डाला कि अदालत को ऐसे फैसले नहीं सुनाने चाहिये जिन पर अमल न हो सके. बाकी कई नेताओं ने भी ऐसी बातें कहीं जैसे सुप्रीम कोर्ट भी उनके निशाने पर कांग्रेस वाली कतार में ही हो.

कहीं ऐसा तो नहीं कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा जल्दी फैसले नहीं देने को लेकर उत्पन्न होती तनाव की स्थिति की भी इसमें कोई भूमिका हो?

7. या फिर इसलिए, क्योंकि कोई जवाब ही नहीं सूझ रहा था?

संघ प्रमुख मोहन भागवत ने मोदी सरकार से मंदिर निर्माण के लिए कानून बनाने की मांग की थी. उसके बाद संघ, वीएचपी और बीजेपी नेताओं की ओर से अध्यादेश की मांग होने लगी थी. फिर प्रधानमंत्री का इंटरव्यू के जरिये बयान आया कि सरकार जो कुछ भी करेगी वो अदालत के फैसले के बाद ही, पहले तो हरगिज नहीं.

संघ प्रमुख का कहना था कि लोगों को जवाब देते नहीं बन रहा. बताया गया कि लोग पूछ रहे हैं कि जब केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार है और यूपी में योगी आदित्यनाथ की, तो भी अयोध्या में राम मंदिर निर्माण न हो पाने की आखिर क्या वजह है?

कहीं इस सवाल के पीछे जवाब का अभाव तो नहीं? ऐसा तो नहीं कि अब इस सवाल का जवाब भी मिल चुका है?

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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