माल्या के पलायन से उपजे सवाल
संसद का ये बजट सत्र शुरू होने के बाद से अबतक इसमे विधेयक कम पेश और पारित हुए हैं, अर्थहीन विवादों पर आरोप-प्रत्यारोप ही अधिक हुआ है. फिर चाहें वो जेएनयू मामाला हो या रोहित वेमुला प्रकरण अथवा अभी ये विजय माल्या के पलायन का मामला.
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देश में दिवालिया घोषित हो चुके और नौ हजार करोड़ के कर्ज में डूबे उद्योगपति विजय माल्या के कथित तौर पर लन्दन भाग जाने की खबर आने के बाद से देश की राजनीति में उबाल आया पड़ा है. माल्या तो लन्दन निकल गए लेकिन उनपर देश की संसद में सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच आरोप-प्रत्यरोप का घमासान मचा हुआ है. मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की तरफ से जहाँ माल्या के भागने में सरकार के सहयोग की बात की जा रही है तो सत्ता में बैठी भाजपा कांग्रेस को क्वात्रोची की याद दिला रही है.
संसद में इस सम्बन्ध में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा सरकार पर निशाना साधते हुए कहा गया कि काला धन वापस लाने का दावा करने वाली सरकार ने माल्या को भगाकर अपनी असलियत दिखा दी. इसपर पलटवार करते हुए वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कांग्रेसी शासन में फरार हुए क्वात्रोची की याद दिलाते हुए अपने बचाव में कहा कि माल्या को कर्ज कांग्रेस ने दिया था और उन्हें रोकने का कोई आदेश नहीं था, इसलिए वे लन्दन जा सके. कहना गलत न होगा कि जनता से जुड़े जरूरी मुद्दों पर चिंतन-मनन और उनके समाधानमूलक उपायों पर कार्य करने के लिए चुनकर संसद भेजे गए हमारे जनप्रतिनिधि वहां सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप का खेल खेलने में लगे हैं.
संसद का ये बजट सत्र शुरू होने के बाद से अबतक इसमे विधेयक कम पेश और पारित हुए हैं, अर्थहीन विवादों पर आरोप-प्रत्यारोप ही अधिक हुआ है. फिर चाहें वो जेएनयू मामाला हो या रोहित वेमुला प्रकरण अथवा अभी ये विजय माल्या के पलायन का मामला. विपक्ष के दबाव में ऐसे बेकार मसलों पर सरकार को संसद में वक़्त देना पड़ा है और वो वक्त भी किसी सार्थक चर्चा से होते हुए समुचित निष्कर्ष पर पहुँचने की बजाय आरोप-प्रत्यारोप की ही भेंट चढ़कर रह गया. देश में आम जनता से जुड़े तमाम जरूरी मुद्दे हैं, जिनपर संसद में चर्चा होनी चाहिए न कि ऐसे आपसी आरोप-प्रत्यारोप में उसका बहुमूल्य समय और उसमे लगने वाली जनता की कमाई बर्बाद होनी चाहिए.
इसी क्रम में अगर विजय माल्या के मामले पर नज़र डालें तो उनपर भारतीय बैंकों का करीब 9 हजार करोड़ का कर्ज है, जिसे वे चुका नहीं रहे और लम्बे समय से अटकाए हुए हैं. कहने की जरूरत नहीं कि वे भी एनपीए की उसी समस्या के एक लक्षण हैं, जिससे आज भारतीय बैंक सर्वाधिक पीड़ित हैं. अभी हाल ही में इस सम्बन्ध में उनके खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय ने सीबीआई के निर्देश पर मामला दर्ज किया, जिसके साथ ही वे लन्दन निकल लिए. अब लन्दन में बैठकर वहां से वे यह ट्विट कर रहे हैं कि मीडिया उनके खिलाफ ट्रायल चला रही है. वे कोई भगोड़े नहीं, बड़े उद्योगपति हैं और उन्हें इस देश की न्याय व्यवस्था पर पूरा भरोसा है. अब अगर अपने उद्योगपति होने का उन्हें इतना ही गुमान है और इस देश की न्याय व्यवस्था पर भरोसा भी है तो फिर 9 हजार करोड़ के कर्ज में फंसे होने के बावजूद बिना किसी सूचना के वे विदेश कैसे निकल गए? और सबसे बड़ी चीज कि अगर अपनी प्रतिष्ठा उन्हें इतनी ही प्यारी है कि मीडिया ट्रायल से घबरा रहे हैं, तो फिर बैंकों का पैसा दबाकर क्यों बैठे हैं? इन सवालों का माल्या साहब के पास सिवाय कुतर्कों के शायद ही कोई जवाब हो.
अब अगर उनको लेकर देश की वर्तमान से लेकर पिछली सरकारों के रुख पर आए तो मूल बात यही है कि चाहें पिछली कांग्रेस नीत संप्रग सरकार हो या मौजूदा भाजपा नीत राजग सरकार, विजय माल्या के प्रति तो दोनों ने ही कमोबेश उदारता दिखाई है. कांग्रेस ने अपने शासन के दौरान उन्हें जमकर कर्ज दिया जो कि अब 9 हजार करोड़ का हो चुका है, तो आज भाजपा सरकार ने उन्हें इतने बड़े कर्ज में डूबे होने के बावजूद पूरी ढील दे रखी है. अब विजय माल्या के ऊपर इन दलों की ये उदारता यूँ ही तो नहीं हो सकती; पूरी संभावना है कि दोनों ने अपने-अपने समय में इनसे कमोबेश लाभ लिया होगा.
राजनीति और कॉर्पोरेट के बीच संबंधों का ये समीकरण तो खैर अब इस देश में न केवाल सर्वविदित बल्कि स्वीकृत भी हो चुका है. लोग जानते हैं कि ये एक सच्चाई है और इससे कोई राजनीतिक दल अछूता नहीं है, इसलिए उन्होंने इसे सियासत के एक अंग के रूप में स्वीकार ही लिया है. पर इन सब के बीच विडंबना ये है कि एक किसान जो अपनी मेहनत से इस देश के राजनेताओं और उद्योगपतियों सबका पेट भरता है, उससे एक छोटा-सा कर्ज वसूलना हो तो भी बैंक जो ताकत दिखाते हैं, वो ताकत विजय माल्या जैसे उद्योगपति जो उनका 9 हजार करोड़ लेकर बैठे हैं, के सामने क्यों नहीं दिखा रहे? इसीको आम और ख़ास का अंतर कहते हैं, जिसे आज यह देश पाटना तो दूर उलटे और बढ़ाता जा रहा है. उचित होगा कि हमारे सियासतदां अपनी आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति से निकलकर जरा इसपर भी सोचें क्योंकि यह अन्तर अगर ऐसे ही बढ़ता रहा तो एकदिन बड़ी बगावत का रूप अख्तियार कर लेगी, जिसके बड़े घातक परिणाम होंगे.
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