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Updated: 25 जनवरी, 2017 04:16 PM
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क्या अखिलेश यादव के सुल्तानपुर से चुनाव प्रचार शुरू करने के पीछे भी वही वजह है जो पूरे पांच साल उनके नोएडा आने से परहेज की रही? मान्यता रही है कि जो भी सीएम नोएडा आया उसकी कुर्सी चली गई, शायद इसीलिए अखिलेश ने पूरे पांच साल ऐसा नहीं होने दिया और उद्घाटनों में रिमोट से काम चलाते रहे. अब अगला पांच साल पक्का हो जाए उससे भी जुड़ी एक मान्यता है जो सुल्तानपुर से जुड़ी है. असल में सुल्तानपुर की सदर सीट को शुभ माना जाता है. क्योंकि देखा गया है कि 1969 से 2012 तक जिस पार्टी का उम्मीदवार जीता वही पार्टी सत्ता में आई.

मान्यताएं भी जरूरी हैं!

अखिलेश यादव के सुल्तानपुर रैली की तैयारी महज तीन दिन पहले शुरू हुई. सुल्तानपुर सदर से मौजूदा विधायक अरुण कुमार वर्मा टाइम्स ऑफ इंडिया को बताते हैं, "मुझे आनन फानन में रैली को सफल बनाने के लिए काफी तैयारी करनी पड़ी."

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इस सीट के सौभाग्यशाली होने की कहानी शुरू होती है 1969 से जब कांग्रेस उम्मीदवार जीता और पार्टी से यूपी में सरकार बनाई. 1991 में ये सीट बीजेपी को मिली और सूबे में उसने सरकार बनाई. 2007 में बीएसपी और फिर 2012 में समाजवादी पार्टी ने सीट जीती और सत्ता पर काबिज हुई. माना जा रहा है कि इसी मान्यता के चलते अखिलेश यादव ने शुरुआत उस इलाके से की जहां पांचवें चरण में चुनाव होने हैं.

rahul-akhilesh_650_012517024936.jpg'अबकी बार 300 पार...'

इस रैली में अखिलेश ने कांग्रेस गठबंधन का खास तौर पर जिक्र करते हुए कहा कि बहुमत की सरकार तो हम अपने से ही बना लेते लेकिन अब 300 पार कर लेंगे.

लेकिन क्या वाकई ये सब इतना आसान है? सारी बातों के बावजूद अखिलेश की रैली से कांग्रेस प्रतिनिधि का दूरी बनाए रखना खटकता है.

कैसे होगा वोट ट्रांसफर?

माना जा रहा है कि समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का गठबंधन हो जाने के बाद अखिलेश यादव और राहुल गांधी भी कुछ रैलियों में साथ साथ चुनाव प्रचार करेंगे. इस डील को नक्की करने वाली प्रियंका गांधी के भी डिंपल यादव के साथ साथ से चुनाव प्रचार की भी बातें चल रही हैं.

तो क्या नेता साथ साथ प्रचार करेंगे - और कार्यकर्ता यूं ही दूरी बनाए रखेंगे? न तो कांग्रेस की रैली में समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता जाएंगे और न ही कांग्रेस वाले समाजवादी रैलियों में. सुल्तानपुर के वाकये से तो ऐसा ही लगता है.

मीडिया के जरिये सुल्तानपुर जिला कांग्रेस अध्यक्ष कृष्ण कुमार मिश्रा ने भी गठबंधन की बात सुनी थी, लेकिन अखिलेश की रैली से वो दूर ही रहे. जब इंडियन एक्सप्रेस ने इस बारे में पूछा तो उनका कहना था कि गठबंधन को लेकर उन्हें कोई आधिकारिक सूचना नहीं मिली है. उन्होंने सीट शेयरिंग को लेकर भी तस्वीर साफ न होने की बात कही. हालांकि, स्थानीय विधायक अरुण वर्मा ने इंडियन एक्सप्रेस से कहा, "मैंने कांग्रेस जिलाध्यक्ष को आमंत्रित किया था और मैं उनसे पूछूंगा कि वो चुनावी रैली में क्यों नहीं आये?"

कांग्रेस जिलाध्यक्ष का तर्क वाजिब है, लेकिन क्या ये महज कम्यूनिकेशन गैप का मामला भर है? या इसके पीछे कोई गुटबाजी या और रणनीति है, या फिर ये सब सिर्फ कन्फ्यूजन की वजह से हो रहा है? असल वजह जो भी हो गठबंधन के लिए ये काफी खतरनाक बात है.

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इस गठबंधन के पीछे दोनों पार्टियों का कुछ अपना अपना और कुछ कॉमन स्वार्थ है. कांग्रेस को बने रहने के लिए एक मजबूत सपोर्ट सिस्टम की जरूरत रही और अखिलेश यादव को कांग्रेस के साथ मिल कर मुस्लिम वोटों को खिसक कर मायावती के खाते में जाने से बचाना है. दोनों साथ मिल कर कुछ बीजेपी और कुछ बीएसपी की ओर खिसके वोटों को भी साधने की कोशिश में हैं.

लेकिन ये सब मुमकिन तो तभी हो पाएगा जब कांग्रेस उम्मीदवारों को समाजवादी पार्टी के समर्थक वोट डालें और कांग्रेस समर्थक समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार को. ऐसी चुनौती बिहार चुनाव के वक्त महागठबंधन के सामने भी थी, जबकि उसमें जाति आधारित वोट ट्रांसफर होने थे. यूपी के मामले में स्थिति थोड़ी अलग है. यहां अखिलेश यादव विकास के एजेंडे के साथ आगे बढ़ रहे हैं और कांग्रेस सेक्युलरिज्म वाली छवि के बूते.

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