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Updated: 17 जनवरी, 2018 06:50 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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गुजरात की पहचान हिंदुत्व की प्रयोगशाला और प्रधानमंत्री पद के सपने देखने की फैक्ट्री के तौर पर बन चुकी है. ये भी सच है कि सपने को हकीकत में बदलने के लिए यूपी के हाइवे से गुजरना और कुछ दिन सूबे के किसी इलाके में गुजारना भी पड़ रहा है. पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई इसके अपवाद हो सकते हैं.

खुद के एनकाउंटर तक का डर जता रहे वीएचपी के अंतर्राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष प्रवीण तोगड़िया ने भी कभी उसी गुजरात में प्रधानमंत्री पद के ख्वाब देखे थे - और कई साल तक उसी फैक्ट्री में एक्सपेरिमेंट भी करते रहे. कुछ दिन यूपी के अयोध्या में गुजारा भी, लेकिन पीएम की कुर्सी के लिए किस्मतवाला नहीं बन पाये.

अचानक रहस्यमय ढंग से गायब होने वाले तोगड़िया जब मन की बात सुनाने मीडिया के सामने मुखातिब हुए तो बड़े कमजोर नजर आये. जिस तोगड़िया के शब्द कभी हिंदू कट्टरवादियों के खून में जोश भर दिया करते थे, वही तोगड़िया हाथ जोड़े अपना बयान दर्ज करा रहे थे - और बीच बीच में आंसू भी टपकते जा रहे थे. क्या ये सब इसलिए हो रहा है कि अब तोगड़िया की ताकत जाती रही?

तोगड़िया कितने ताकतवर?

तोगड़िया के एनकाउंटर हो जाने का दावा तो उनके बयान देते वक्त ही ऑटो-रिजेक्ट हो गया. लोगों के मन में भी वही सवाल उभरे जिसके आधार पर पुलिस ने इस बात को नकार दिया - जिसे जेड प्लस सुरक्षा मिली हो उसका एनकाउंटर पुलिस की कोई भी टीम भला कैसे कर सकती है? भारत दौरे पर आये इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने एक बयान में डार्विन वाले अंदाज में ताकतवर होने की अहमियत बतायी है. डार्विन के 'सरवाइवल ऑफ फिटेस्ट' की थ्योरी को ही एनडोर्स करते हुए नेतन्याहू ने कहा, 'कमजोर मिट जाते हैं, शक्तिशाली जिंदा रहते हैं, आप शक्तिशाली लोगों के साथ गठबंधन करते हैं...'.

praveen togadiaताकत कम नहीं, हवा का रुख बदल गया है...

नेतन्याहू ने ये बातें दुनिया में अपने मुल्क की हैसियत और भारत के साथ रिश्ते को लेकर कही है. मानकर चलना चाहिये नेतन्याहू गुजरात में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ घूमते वक्त भी इसे महसूस कर रहे होंगे. वैसे भी कोई इजरायली प्रधानमंत्री करीब डेढ़ दशक बाद भारत के दौरे पर आया हुआ है.

praveen togadiaकभी चौतरफा तूती बोलती थी...

जहां तक तोगड़िया की ताकत का सवाल है, भुवनेश्वर की मीटिंग में बगैर हाथों में तलवार लिये ही वो इसका प्रदर्शन कर चुके हैं. ये तब की बात है जब वीएचपी के कार्यकारी प्रमुख का चुनाव होना था. उस वक्त आरएसएस के साथ बीजेपी का एक गुट तोगड़िया के चुनाव लड़ने के पक्ष में कतई न था. तभी तोगड़िया ने अपनी ताकत दिखायी और मालूम हुआ की करीब 70 फीसदी लोग उनके साथ हैं. मजबूरन, संघ को तोगड़िया के नाम पर मुहर लगानी पड़ी - और वो तीन साल के लिए कार्यकारी अध्यक्ष बन गये. आलम तो अब भी ये है कि किसी और नाम पर सहमति न बन पाने के कारण चुनाव ही टाल दिया गया है.

ताकतवर होना और बने रहना, दो बातें हैं...

प्रेस कांफ्रेंस में तोगड़िया के आंसू देख बारह साल पहले के योगी आदित्यनाथ की छवि अचानक उभर आयी. 2006 में यूपी में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी और यूपी के मौजूदा मुख्यमंत्री का इल्जाम था कि मुलायम की पुलिस उन्हें प्रताड़ित कर रही है. भरी लोक सभा की कार्यवाही के बीच अपनी पीड़ागाथा सुनाते सुनाते योगी जोर जोर से रोने लगे.

हिंदू हलके में तोगड़िया जितने ताकतवर रहे हैं, योगी अभी उस राह के मुसाफिर हैं, फिर भी संगठन में उनके ताकत की तूती बोल रही है. बस वक्त की बात है. दरअसल, कभी ताकतवर होना और बीतते वक्त के साथ तरक्की करते हुए उसे बनाये रखना अलग अलग बातें हैं. तोगड़िया को ये बात शायद समझ में आने लगी है कि किसी ग्रुप में वो ताकतवर भले हों लेकिन बाकी जगहों पर उनकी ताकत जाती हुई नजर आने लगी है.

narendra modiगुजरते वक्त के साथ औकात बदल जाती है...

असल में पुरानी ताकत को बरकरार रखने के लिए उसे नयी ताकत के साथ तारतम्य बनाये रखना जरूरी होता है. हालांकि, ऐसा तारतम्य बनाये रखना उस वक्त मुश्किल हो जाता है जब प्रतियोगिता उसी शख्सियत से हो जो नये दौर में ताकत का सबसे बड़ा केंद्र हो.

तोगड़िया वीएचपी में जरूर ताकतवर हो सकते हैं, लेकिन उससे बाहर वो बात नहीं रही कि किसी को डर या कोई लिहाज रहे. वैसे भी लिहाज के लिए तो बीजेपी ने एक मार्गदर्शक मंडल बना ही रखा है. तोगड़िया की भी हालत फिलहाल यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी या फिर शत्रुघ्न सिन्हा जैसी हो चुकी है - जो इन दिनों बयानबाजी के बूते चर्चाओं में बने रहते हैं, लेकिन उससे ज्यादा उन्हें कोई सुननेवाला नहीं है.

एक वक्त ऐसा भी रहा जब मोदी और तोगड़िया गुजरात सरकार का हिस्सा न होकर भी सबसे बड़े पावर सेंटर थे. 1995 में बीजेपी सरकार बनी और केशुभाई पटेल मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे, लेकिन सरकार के विरले ही फैसले होते होंगे जिनमें मोदी और तोगड़िया की राय न ली जाती रही हो. राम जन्मभूमि आंदोलन आते आते तो तोगड़िया की ताकत ऐसी हो गयी जैसे हिंदुत्व के तोप हों.

वही वो दौर रहा जब मोदी और तोगड़िया की दोस्ती के किस्से गुजरात से बाहर भी चर्चाओं का हिस्सा हुआ करते थे. ये उन दिनों की बात है जब मोदी और तोगड़िया दोनों ही गणवेष में संघ की शाखाओं में मिला करते थे. तब मोदी संघ में थे और तोगड़िया विश्व हिंदू परिषद में. यही वो दौर रहा जब दोनों एक ही तरीके से सोचते थे - और यही वजह रही कि दोनों ही ने प्रधानमंत्री पद पर नजर टिका ली.

गुजरते वक्त के साथ दोनों के रिश्ते में दरार पड़ी और फिर बाद के दिनों में वो टूट ही गयी. मोदी का रुतबा बढ़ने के साथ ही तोगड़िया की पूछ घटने लगी. संघ की विचारधारा से सीधे या घुमा-फिरा कर इत्तेफाक रखने वालों का तकरीबन यही हाल था. ये तब की बात है जब जब मोदी प्रधानमंत्री की कुर्सी की ओर बढ़े जा रहे थे. बीजेपी और एनडीए में भी उस वक्त नेताओं के सामने आडवाणी को छोड़ कर मोदी खेमे में जाने का दबाव था. कुछ नेताओं ने तो तभी पाला बदल लिया, जबकि नीतीश कुमार जैसे एनडीए के नेता भी रहे जिन्होंने मोदी के खिलाफ बगावत की, चुनावी मैदान में डंके की चोट पर हराया भी लेकिन जब भविष्य धुंधला नजर आने लगा तो यू-टर्न लेते हुए दौड़ कर मोदी का नेतृत्व स्वीकार कर लिया. तोगड़िया का मामला ऐसा रहा कि न तो मार्गदर्शक मंडल जा पाये, न मेनस्ट्रीम की मजबूत टीम का हिस्सा रह पाये.

'99' का इल्जाम!

तोगड़िया से संघ और बीजेपी नेताओं की ताजा नाराजगी के पीछे '99' फैक्टर माना जा रहा है. ये सब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद के बीच चल रहे अंदरूनी संघर्ष से जोड़ कर देखा जा रहा है.

दरअसल, बीजेपी और संघ को लगता है कि तोगड़िया ने अपने प्रभाव का गलत इस्तेमाल किया - और उसकी वजह से वीएचपी के कार्यकर्ताओं ने विधानसभा चुनाव में बीजेपी के खिलाफ काम किया. नतीजे बीजेपी के पक्ष में जरूर रहे लेकिन पार्टी की सीटें 115 से नीचे गिर कर 99 पर पहुंच गयीं.

yogi adityanathनये जमाने का हिंदुत्व है...

मुंबई मिरर की रिपोर्ट में बीजेपी के एक सीनियर नेता का कहना है, 'उन्होंने पाटीदार आंदोलन की आग में घी डालने की कोशिश की और बीजेपी के खिलाफ गुस्से को भड़काने का काम किया. ये एक बड़ी वजह थी कि हम इस बार के चुनाव में 100 सीटों का आंकड़ा पार नहीं कर पाये.'

रिपोर्ट के मुताबिक तोगड़िया को संघ की ओर से साफ निर्देश दिये गये हैं कि वो राजनीतिक मुद्दों में दखल न दें, फिर भी चुनाव से पहले तोगड़िया ने गुजरात में कई किसान और युवाओं की रैलियां की और सरकार के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश की.

बढ़ती उम्र और घटती ताकत के दरम्यान तोगड़िया के सामने अब सीमित संभावनाएं ही बची हैं - या तो वो नीतीश कुमार वाली चाणक्य चाल चलें या फिर मार्गदर्शक मंडल में अपने लिये भी एक कमरा बुक करा लें.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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