बंगाल समस्या का स्थायी समाधान है सिर्फ और सिर्फ 'योगी मॉडल!'
ध्यान से सुनिए कि पंचायत चुनाव में हुई ये 41 हत्याएं बंगाल में लोकतंत्र के खतरे में होने का संकेत नहीं बल्कि लोकतंत्र की हत्या की करुण चीत्कार हैं. 'ममता सरकार' की निर्ममता से बंगाल के दामन पर लगे ये खून के धब्बे भला कैसे धुलेंगे?
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भद्र बंगाल में लोकतंत्र की आत्मा सुबक रही है. 41 से अधिक हत्याओं और सैकड़ों घायलों के साथ रक्तरंजित पंचायत चुनावों से वहां जम्हूरियत का जिस्म फिर से लहूलुहान हो गया है. बूथ के बूथ खून से नहाए हुए हैं. हर वोट पर इंसानी खून की छींटे देखी जा सकती हैं. ‘बूथ कैप्चरिंग’ से जहां लोकतंत्र जगह-जगह ‘बे-लिबास’ हुआ तो बेलगाम कत्ल-ओ-गारद से कानून-व्यवस्था की अस्मत तार-तार हुई और देश, दुनिया भर में शर्मसार हुआ. बूथ-बूथ पर बरसी बुलेट, चाकू-छूरी, बम-कारतूस, लाठी-डंडे की मार से अपने प्रत्याशी को जबरन ‘निवार्चित’ कराने की जुर्रत, पानी में उतराते बेसहारा मतपत्र और जलती मत-पेटियां ममता सरकार की लचर कानून-व्यवस्था का फसाना सुना रही हैं. हैरत है, कि यह सब हो रहा है उस भद्र मानुष के बंगाल में जो युवा संन्यासी विवेकानंद की ललकार से जगा है. जो रवींद्र के संगीत में ढला है. जो वैभव, वैराग्य और विकास की त्रिगुटि में पगा है.
अब इससे भी बड़ी विडम्बना क्या होगी, जो ममता बनर्जी कभी स्वयं राजनीतिक हिंसा से पीड़ित थीं, वाम जनित हिंसा के सैलाब को पार कर बंगाल शेरनी कहलायी थीं, वही आज इस प्रचण्ड हिंसा की वाहक मानी जा रही हैं. इन सबके दरम्यान मौजूं सवाल है कि आखिर क्यों मुख्यमंत्री ममता का पश्चिम बंगाल बार-बार राजनीतिक हिंसा की आग में जलने लगता है? कानून-व्यवस्था नामक शय वहां क्यों मृत है?
आखिर क्यों लोक सभा से लेकर ग्राम सभा तक का हर चुनाव, यहां मानव रक्त में नहाया हुआ है? आखिर लोकतंत्र के नाम पर पश्चिम बंगाल की सत्ता संरक्षित और प्रायोजित हिंसा, कब और कैसे समाप्त होगी? सबसे पहले बात बंगाल में राजनीतिक हिंसा के इतिहास की. पश्चिम बंगाल की चुनावी और सियासी फिजा, दशकों से खून से रंगी रही है. बस किरदार बदलते रहे हैं.
बंगाल में जैसे हालात हैं यदि वहां कोई सुधार कर सकता है तो वो यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ही हैं
कांग्रेस इसकी जन्मदाता है. वाममोर्चा के लोगों ने इसे बंगाल के 'पॉलिटिकल' संस्कार के रूप में स्थापित किया और अब तृणमूल कांग्रेस इस विरासत को 'दोगुनी रफ्तार' से आगे बढ़ा रही है. विदित हो कि 10 करोड़ की आबादी, लगभग 5.67 करोड़ मतदाता वाले बंगाल में ग्राम पंचायत की 63229, जिला परिषद की 928 व पंचायत समिति की 9730 सीटों समेत कुल 61636 पोलिंग स्टेशन पर चुनाव हुए हैं.
राज्य चुनाव आयोग की मांग पर शांतिपूर्ण चुनाव कराने के लिए केंद्र से पर्याप्त मात्रा में सुरक्षा बलों को भी समय से भेजा गया था. राज्य के पास अपना ‘दक्ष पुलिस बल’ तो पहले से ही मौजूद था. फिर क्यों नेताजी और श्यामा प्रसाद मुखर्जी की बंग भूमि खून से लाल हुई?
क्या राज्य का खूफिया तंत्र सो रहा था? क्या मुख्यमंत्री ममता दीदी की ‘स्मार्ट पुलिस’ को दंगाइयों के कुत्सित इरादों का बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था या दंगाइयों को हासिल सत्ता की सरपरस्ती ने उन्हें लाचार बना दिया था? पंचाय़त चुनावों की घोषणा के बाद से ही बंगाल का माहौल हिंसक होने लगा था, उसके बाद भी ममता सरकार की ये अक्षम्य ढिलाई असहज करने वाली है.
ध्यान से सुनिए कि पंचायत चुनाव में हुई ये 41 हत्याएं बंगाल में लोकतंत्र के खतरे में होने का संकेत नहीं बल्कि लोकतंत्र की हत्या की करुण चीत्कार हैं. 'ममता सरकार' की निर्ममता से बंगाल के दामन पर लगे ये खून के धब्बे भला कैसे धुलेंगे? कुछ राजनीतिक चिंतक मुख्यमंत्री ममता के बचाव में कह रहे हैं कि राज्य बहुत बड़ा है, हर जगह पुलिस नहीं लगाई जा सकती है.
बे-वजह मामले को तूल दिया जा रहा है. हालांकि यह कुतर्क है लेकिन यदि उनकी बात को मान भी लिया जाए तो विचारणीय है कि देश का सबसे बड़ा राज्य तो उत्तर प्रदेश है. यहां वर्ष 2021 में हुए पंचायत चुनाव में 12.43 करोड़ से अधिक मतदाता और 02 लाख से अधिक पोलिंग स्टेशन थे. लेकिन पूरा चुनाव बगैर बूथ कैप्चरिंग के ही सम्पन्न हो गया था. सारे फैसले बैलेट से हुए, बुलेट चलाने की हिमाकत और हिम्मत तो कोई कर ही नहीं सका.
यही नहीं अभी हाल में नगर निकाय चुनाव में महापौर की 17, निगम पार्षद की 1420, नगर पालिका परिषद अध्यक्ष की 199, सदस्य की 5327, नगर पंचायत अध्यक्ष की 544 और सदस्य की 7177 सीटों पर वहां चुनाव सम्पन्न हुए, लेकिन एक भी सीट पर हिंसा की मामूली घटना भी सुनने को नहीं मिली. मतलब बंगाल से ढाई गुना अधिक आबादी वाले योगी आदित्यनाथ के उत्तर प्रदेश में हिंसा मुक्त चुनाव होता है, एक बार नहीं बार-बार होता है.
और मुख्यमंत्री ममता का बंगाल राजनीतिक हिंसा से बार-बार दहक जाता है. वहां चुनाव का मतलब लोकतंत्र का उत्सव नहीं लाशों को ढेर बन गया है. इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि घने अंधकार को चीरने के लिए प्रकाश की प्रेरणा होना आवश्यक है. ध्यान से देखें तो, अराजकता और हिंसा के अंधकार में घिरी ममता सरकार के लिए ‘योगी मॉडल’ प्रकाश की प्रेरणा के समान ही है.
इतना कुछ सुनने और देखने के बाद सहज ही एक सवाल जन्म लेता है कि बंगाल में इतनी हिंसा क्यों होती है? दरअसल बंगाल में उद्योग-धंधे लगातार कम हो रहे हैं जिससे रोजगार के अवसर सिमट रहे हैं. जबकि जनसंख्या बढ़ रही है. खेती से बहुत फायदा नहीं हो रहा है. जबरदस्त बेरोजगारी की वजह से युवा सत्ताधारी दलों पर निर्भर हैं. सत्ताधारी दल के ‘दादाओं’ की अनुमति के बिना न तो कोई रिक्शा चला सकता है और न ही रेहड़ी लगा सकता है.
अतः बेरोजगार युवक कमाई के लिए राजनीतिक पार्टी से जुड़ते हैं ताकि पंचायत व नगरपालिका स्तर पर होने वाले विकास कार्यों का ठेका मिल सके. स्थानीय स्तर पर होने वाली ‘वसूली’ भी उनके लिए कमाई का जरिया है. वे चाहते हैं कि उनके करीबी उम्मीदवार किसी भी कीमत पर जीत जाएं. इसके लिए अगर हिंसक रास्ता अपनाना पड़े, तो अपनाते हैं. असल में यह उनके लिए जीविकोपार्जन की लड़ाई है.
चुनाव के मौके पर सत्ताधारी दल अपनी इसी ‘फोर्स’ का इस्तेमाल जीत हासिल करने के लिए करते हैं. अब प्रश्न यह है कि इसका समाधान क्या है? विदित हो कि वर्ष 2017 के पहले उत्तर प्रदेश भी अराजकता, हिंसा और भ्रष्टाचार का केंद्र था. बीमारू राज्य में इसका शुमार होता था. लेकिन साल 2017 के बाद से योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश सुरक्षा, सुविधा, स्वरोजगार, संभावना और उद्यमिता के विराट केंद्र के रूप में देश में स्थापित हुआ है.
आज यूपी अंतरराष्ट्रीय निवेशकों का ड्रीम डेस्टिनेशन है. 'अर्थ महाकुंभ' UPGIS-2023 में 45 लाख करोड़ से अधिक की धनराशि के आए निवेश प्रस्ताव वहां हुए कायाकल्प की एक झांकी है. ऐसे ‘योगी मॉडल' के द्वारा ही बंगाल की इस समस्या का स्थाई निराकरण किया जा सकता है.
खैर, पश्चिम बंगाल में जिस तरह लोकतंत्र लहूलुहान हो रहा है और विपक्ष के बड़े नेता जैसे राहुल गांधी, अखिलेश यादव, मायावती चुप्पी साधे बैठे हैं, तो ऐसा सलेक्टिव समर्थन और विरोध लोकतंत्र के हित में कतई नहीं है. ममता बनर्जी समेत सियासी नफे-नुकसान की बुनियाद पर सही-गलत का फैसला करने करने वाली जमातों के वारिस सुन लें कि लोकतंत्र से खिलवाड़ समूची नस्ल के साथ धोखा है.
और यह धोखा सभ्यता के दामन पर नहीं, दिल पर नक्श हो रहा. फिलहाल लोकतंत्र समर्थकों के मुंह से यही बात निकल रही है कि
वक्त हर जुल्म तुम्हारा, तुम्हे लौटा देगा,
वक्त के पास कहां रहमो-करम होता है.
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