कृषि कानून वापसी के बाद पश्चिम यूपी में जाट-बीजेपी रिश्ते का हाल...
भाजपा (BJP) ने 2014 के बाद से ही मजबूत पकड़ बना रखी है.2017 के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में भी भाजपा यहां सफल रही थी. हालांकि, इन सबसे इतर माना जा रहा है कि कृषि कानूनों की वापसी (Repeal Of Farm Laws) के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश (Western UP) में अब भाजपा आक्रामक तरीके से चुनावी मैदान में आएगी.
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने कृषि कानूनों की वापसी का ऐलान कर दिया है. बावजूद इसके दिल्ली की सीमाओं पर किसान आंदोलन जारी है. संभावना जताई जा रही है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन की वजह से भाजपा को नुकसान पहुंच सकता है. विपक्षी दलों की ओर से भी पीएम नरेंद्र मोदी के कृषि कानूनों (Repeal of Farm Laws) को लेकर किए गए इस फैसले को चुनावों में हार के डर से लिया गया फैसला बताकर प्रचारित किया जा रहा है. यूपी चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की अहमियत भाजपा (BJP) के लिए बहुत खास है. क्योंकि, इस क्षेत्र में भाजपा ने 2014 के बाद से ही मजबूत पकड़ बना रखी है.
2017 के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में भी भाजपा यहां सफल रही थी. हालांकि, इन सबसे इतर माना जा रहा है कि कृषि कानूनों की वापसी के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अब भाजपा आक्रामक तरीके से चुनावी मैदान में आएगी. क्योंकि, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और ब्रज के क्षेत्र के लिए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह (Amit Shah) ने कमान संभाल ली है. पश्चिमी यूपी में चुनावों की धुरी किसान आंदोलन (Farmer Protest) के इर्द-गिर्द ही घूमेगी. इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि कृषि कानून वापसी के बाद पश्चिम यूपी में जाट-बीजेपी रिश्ते का हाल क्या है?
पश्चिमी उत्तर प्रदेश और ब्रज के क्षेत्र के लिए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह (Amit Shah) ने कमान संभाल ली है.
किसान आंदोलन
कृषि कानूनों की वापसी के बाद के बाद किसान आंदोलन को 6 अन्य शर्तों के साथ जारी रखने का फैसला लिया गया है. संयुक्त किसान मोर्चा का कहना है कि कृषि कानूनों को रद्द करना ही किसान आंदोलन की मांग नहीं थी. किसान आंदोलन में एमएसपी गारंटी कानून, बिजली अधिनियम संशोधन विधेयक 20-21 के साथ एनसीआर में प्रदूषण पर लगाम लगाने के लिए पराली जलाने पर किसानों को सजा का प्रावधान खत्म करने की भी मांग की गई थी. संयुक्त किसान मोर्चा का कहना है कि इसके अलावा अब किसानों की तीन मांगें और हैं. जिसमें किसान आंदोलन के दौरान किसानों पर दर्ज किए गए मामलों को तत्काल वापस लेने, केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा को बर्खास्त कर गिरफ्तार करने और आंदोलन के दौरान मरने वाले 700 किसानों को मुआवजे व पुर्नवास के इंतजाम के साथ शहीद का दर्जा देते हुए सिंघु बॉर्डर पर स्मारक बनाने के लिए जमीन देने की मांग की है.
इन मांगों को पश्चिमी यूपी के लिहाज से देखा जाए, तो ज्यादातर मांगें केवल किसान आंदोलन को अनिश्चित काल तक के लिए चलाने के लिए ही लगती हैं. क्योंकि, किसान नेता राकेश टिकैत जिस फॉर्मूले का जिक्र कर एमएसपी मांग रहे हैं, उस पर गारंटी कानून बनाना किसी भी देश के लिए असंभव सा लगता है. राकेश टिकैत ने आजतक के विशेष कार्यक्रम 'सीधी बात' में वरिष्ठ पत्रकार प्रभु चावला से बातचीत में कहा था कि '3 क्विंटल गेहूं (300 किलोग्राम) की कीमत 1 तोले (10 ग्राम) सोने के बराबर कर दी जाए.' और, उनकी ये मांग अभी भी जारी है. किसान आंदोलन के दौरान हत्या, बलात्कार जैसे कई मामले आंदोलन स्थलों पर हुए हैं. वहीं, 26 जनवरी को दिल्ली की सड़कों पर फैली अराजकता पर सरकार के लिए किसी भी हाल में मुकदमे लेना संभव नहीं होगा. किसान आंदोलन के दौरान मरने वाले किसानों को मुआवजा देना भी सरकार के लिए असंभव ही है.
इन तमाम चीजों को देखते हुए एक बात कही जा सकती है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इन असंभव शर्तों का भी कही न कही असर पड़ेगा ही. किसान आंदोलन पर पहले ही राजनीतिक होने का आरोप लग चुका है. देशविरोधी एजेंडा और अराजक घटनाओं जैसी चीजों की वजह से भी किसान आंदोलन की छवि धूमिल हुई है. कृषि कानूनों की वापसी के बाद केवल विरोध के लिए प्रदर्शन जारी करने के हक में कोई किसान क्यों रहेगा? क्योंकि, पश्चिमी उत्तर प्रदेश की गन्ना बेल्ट में एमएसपी की कोई भूमिका ही नहीं है. यहां केंद्र सरकार की ओर से जारी की गई एफआरपी और राज्य सरकार की ओर से जारी की गई एसएपी से दाम तय होते हैं. वैसे, योगी आदित्यनाथ सरकार ने इस बार गन्ने के बकाये का सर्वाधिक भुगतान किया है. जबकि, अखिलेश यादव की सपा सरकार और मायावती की बसपा सरकार में भी गन्ने का पेमेंट लेट-लपेट होता रहता था.
खाप पंचायतों का सामाजिक ही नहीं राजनीतिक तौर पर भी चलता है.
खाप पंचायत
कहा जाता है कि जाट लैंड के नाम से मशहूर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चुनाव में वोट किसे दिया जाए, इसका इशारा खाप पंचायतें (Khap Panchayat) ही करती हैं. बीते कुछ सालों में भाजपा ने जाट मतदाताओं के बीच अच्छी-खासी पकड़ बना ली है. लेकिन, किसान आंदोलन में जाटों के जुड़ जाने से कई समीकरण बिगड़ गए थे. मुजफ्फरनगर में हुई किसान महापंचायत में सभी खाप पंचायतों के 'चौधरी' इकट्ठा हुए थे और किसान आंदोलन को अपना समर्थन दिया था. लेकिन, पीएम मोदी के कृषि कानून वापसी के ऐलान के बाद किसान आंदोलन को समर्थन करने के मामले पर जाट बिरादरी की खाप पंचायतों में भी मतभेद नजर आने लगे हैं. हालांकि, गठवाला खाप के चौधरी राजेंद्र सिंह कुछ महीने पहले भाजपा विधायक उमेश मलिक की गाड़ी पर हुए हमले पर भी बिदक गए थे. उस समय गठवाला खाप के चौधरी राजेंद्र सिंह ने किसान महापंचायत के बहिष्कार की घोषणा कर दी थी. जिसके बाद भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष नरेश टिकैत के समझाने पर वह साथ आने को तैयार हुए थे. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों की धुरी छोटी-बड़ी दर्जनभर से ज्यादा खाप पंचायतों के इर्द-गिर्द घूमती है.
गठवाला खाप और चौबीस खाप के नेताओं ने अभी से कहना शुरू कर दिया है कि किसानों को अब घर वापसी कर लेनी चाहिए. क्योंकि, जिन कृषि कानूनों के विरोध में प्रदर्शन हो रहे थे, वो खत्म किए जा चुके हैं. वहीं, इन सबके बीच देश खाप के नेताओं का कहना है कि जब तक संसद से कानून वापस नही होंगे, किसान आंदोलन चलेगा. इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि अन्य खापों के नेता भी ऐसी ही सोच रखते होंगे. तो, संसद से कृषि कानूनों की वापसी के बाद वो भी खेतों में लौटने का मन बना सकते हैं. वहीं, मुजफ्फरनगर के भाजपा सांसद और केंद्रीय राज्यमंत्री संजीव बालियान जाटों की उसी बालियान खाप से आते हैं, जिसके चौधरी नरेश टिकैत हैं. कृषि कानूनों की वापसी के बाद मुजफ्फरनगर में संजीव बालियान के प्रभाव को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. वहीं, भाजपा के जाट विधायकों की भी अपने मतदाताओं पर पकड़ होगी, तो ये भी तय है कि अलग-अलग खाप पंचायतों से आने वाले ये विधायक भी कुछ न कुछ असर डालेंगे ही. कई खाप पंचायतें किसान आंदोलन का हल मोदी सरकार के साथ बातचीत से निकालने के पक्ष में हैं.
जाट-मुस्लिम एकता
2013 में जाट-मुस्लिम में हुए मुजफ्फरनगर दंगों के गहरे जख्मों का दर्द आज भी लोगों को सालता रहता है. जिस जाट-मुस्लिम एकता के दावे यहां किए जा रहे हैं, वो बहुतों को असहज भी करेगी. सीएम योगी आदित्यनाथ ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हालिया दौरे पर कैराना में पलायन करने वाले परिवारों से मुलाकात कर अपनी ओर से संदेश दे दिया था. इसी के साथ उन्होंने हिंदुत्व के नाम पर एक होने की बात भी छेड़ दी थी. यूपी चुनाव से पहले हिंदू-मुस्लिम का मामला जितना उछलेगा, भाजपा के नंबर उतने ही बढ़ेंगे. और, इसमें कांग्रेस नेता राहुल गांधी, सलमान खुर्शीद और मणिशंकर अय्यर जैसे नेताओं के बयान आग में घी का काम कर ही रहे हैं. सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के पिता मुलायम सिंह यादव को मुल्ला मुलायम की संज्ञा मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति की वजह से ही मिली है. और, अखिलेश यादव के टेंपल रन के साथ ही मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए मोहम्मद अली जिन्ना को देशभक्त बताने वाले बयान से भी नुकसान होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है. हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक सौहार्द की कोशिशें कितना रंग लाएंगी, ये यूपी चुनाव के नतीजे ही तय करेंगे.
मोहम्मद अली जिन्ना को देशभक्त बताने का असर सपा-आरएलडी गठबंधन पर पड़ना तय है.
आरएलडी-सपा गठबंधन
किसान आंदोलन की लहर पर सवार आरएलडी सुप्रीमो जयंत चौधरी को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पार्टी के फिर से जिंदा होने की उम्मीदे हैं. सपा के साथ गठबंधन के बाद आरएलडी की इन उम्मीदों को और ज्यादा पंख लग गए हैं. लेकिन, आरएलडी और सपा के बीच गठबंधन की लगाम अखिलेश यादव के हाथों में ही रहेगी. किसान आंदोलन के दम पर आरएलडी सीट बंटवारे को लेकर उत्साहित थी. लेकिन, कृषि कानूनों की वापसी के साथ ही ये जोश कुछ कमजोर जरूर पड़ा है. आरएलडी के नेता अजित सिंह के निधन से जयंत चौधरी को सहानुभूति वोट मिलेंगे. लेकिन, सवाल यही है कि क्या ये वोट सीट जिताने लायक होंगे? क्योंकि, जाट मतदाता पहले से ही बंटा हुआ नजर आ रहा है. वहीं, सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की मुस्लिम तुष्टिकरण वाली राजनीति का खामियाजा भी उन्हें पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भुगतना पड़ सकता है. जाट-मुस्लिम गठजोड़ से ज्यादातर सीटों पर 30-45 फीसदी वोट तय माने जा सकते हैं. लेकिन, बाकी के वोटों का ध्रुवीकरण हो गया, तो सपा-आरएलडी का बना-बनाया खेल फुस्स हो जाएगा. और, इस काम में भाजपा को महारत हासिल है. वैसे भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश और ब्रज क्षेत्र की कमान भाजपा के सबसे मजबूत रणनीतिकार केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के हाथों में है.
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