बीजेपी को 'आप' से क्या सीखना चाहिए
दिल्ली चुनाव के नतीजो ने स्थानीय राजनीति को लेकर लगाए गए कयासों को सही साबित कर दिया. केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी को अब अपनी रणनीति और छवि की गहराई से समीक्षा करने की जरूरत है.
-
Total Shares
दिल्ली चुनाव के नतीजो ने स्थानीय राजनीति को लेकर लगाए गए कयासों को सही साबित कर दिया. केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी को अब अपनी रणनीति और छवि की गहराई से समीक्षा करने की जरूरत है. दिल्ली की इस जीत ने दिखाया कि आम लोगों की राजनीति कैसे उच्च वर्ग की राजनीति के खिलाफ होती है. 'आप' ने इस चुनाव में बीजेपी से भ्रष्टाचार विरोधी मंच भी छीन लिया है.
पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से, जो वक्त 'आप' को मिला वह अरविंद केजरीवाल पर लगे नकारात्मक लेबल को हटाने और दिल्ली में भाजपा के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर जगाने के लिए काफी था. सुरक्षा और लोक सेवाओं की गुणवत्ता, दोनों ही मुद्दों ने चुनाव में आप को फायदा पंहुचाया.
यह सच है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जनसर्मथन जुटाने और बाहरी दुनिया से नाता जोड़ने के लिए बड़े पैमाने पर खर्चा किया. इसमें कोई शक नहीं कि उन्हें इसका बड़ा फायदा भी हुआ. लेकिन अब पूरी सरकार को देश की राजधानी ने आइना दिखा दिया. केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी की पकड़ मतदाताओं पर कुछ ढीली हो गई. ऐसे हालात में दिल्ली की सत्ता 'आप' को मिल गई. चुनाव में एक नए चेहरे को उतारने के पीछे बीजेपी की रणनीति सियासी गणित के हिसाब से उल्टी साबित हुई.
आम आदमी पार्टी के नेता इस चुनाव में भारत की जनसंख्या में युवाओं की तादाद का फायदा लेने में लगे हुए थे. और उनकी यह कोशिश अभिजात्य वर्ग के खिलाफ कमजोर वर्ग को एकजुट करने और खास तौर पर मुस्लिम अल्पसंख्यक वोटों को भाजपा के खिलाफ अपनी लड़ाई में इस्तेमाल करने के काम आई.
विश्लेषकों का मानना है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव का भारत के राजनीतिक विकास पर क्या असर रहेगा, इसकी जांच और तथ्यों की परख अच्छी तरह से करनी होगी. और देखना होगा कि क्या आम आदमी पार्टी भविष्य की राष्ट्रीय राजनीति में अपने लिए जगह बनाने में कामयाब होगी?
इस बात को याद रखा जाना चाहिए कि जब भारत आजाद हुआ था तो एक विकासशील देश था. गरीबी का मुद्दा सबसे बड़ी परेशानी था. शीत युद्ध के दौरान जिस वैचारिक वामपंथ ने दुनिया को बांट दिया था, उसने भारत को आर्थिक विकास और जनता के कल्याण के लिए वामपंथी दृष्टिकोण अपनाने के लिए मजबूर किया था. एक तरफ एक महाशक्ति अंतर्राष्ट्रीय साम्यवाद और दूसरी तरफ आजाद दुनिया का ख्याल. ऐसे में भारत के लिए एक मिलीजुली अर्थव्यवस्था को लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत चलाने के हालात बन रहे थे.
हालांकि, नेहरू के दौर में ही नौकरशाही से जुड़े सरकार के मुद्दे जैसे, बढ़ते भ्रष्टाचार के कारण योजनाओं के अमल में जवाबदेही की कमी और देश के प्रमुख नेताओं के अंर्तराष्ट्रीय राजनीति में उलझे रहने की वजह से भारत की घरेलू राजनीति में कमजोरियां उजागर होने लगी थीं.
इस बीच, दिल्ली में जाति और क्षेत्र के आधार पर पार्टियों का उदय हुआ. इन पार्टियों ने लोगों को आर्थिक आधार पर वैचारिक रुप से वामपंथ और दक्षिणपंथ में बांटकर देखना शुरू कर दिया. भारत ने बदलते राजनीतिक परिदृश्य की वजह से विभाजन और बहुत कुछ देखा. शीत युद्ध के बाद भारत की घरेलू राजनीति में दो मुख्य धारा दिखने लगी. जिसमें एक थी कांग्रेस, जो वामपंथ का प्रतिनिधित्व करती थी. दूसरी बीजेपी जो एक प्रयोग के बाद जनता पार्टी के रूप में बढ़ दिख रही थी, दक्षिणपंथियों की अगवानी करते हुए. 80 के दशक के बाद से हालांकि कांग्रेस भ्रष्टाचार और अन्य मुद्दों की वजह से कमजोर होने लगी थी.
एक दौर था जब बीजेपी एक व्यावहारिक पार्टी थी, जो बहुमत-अल्पमत से जुड़ी राजनीति की विभाजनकारी प्रथा के खिलाफ राष्ट्रवाद की अपील करती थी.
2014 के आम चुनाव में बीजेपी के एक हाथ में यूपीए-2 के भ्रष्टाचार, कुशासन और घोटालों के मुद्दे थे तो दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी का कुशल नेतृत्व और विकास का वादा. जिसकी वजह से बीजेपी आराम से बहुमत हासिल कर केंद्र में आ गई. हालांकि, केन्द्र में आने के बाद दिल्ली में जो सियासी जमीन बीजेपी तैयार करने की कोशिश में थी, उस पर आम आदमी पार्टी ने कब्जा कर लिया.
देश की राजधानी और बाहर, दिल्ली विधानसभा चुनाव के दूरगामी प्रभाव का अनुमान लगाना अभी जल्दबाजी होगा. मुख्यधारा की दक्षिणपंथी पार्टी के रूप में बीजेपी को अपनी पकड़ मजबूत करनी है. जिसके लिए भाजपा ने तेज आर्थिक विकास और गरीबी कम करने का वादा किया है. अगर विकास की राजनीति कामयाब होती है तो अभी भी ये वाम दलों के परंपरागत लोक लुभावनवाद से आगे निकल सकती है. राजनीतिक लाभ के लिए जो पार्टियां अल्पसंख्यक कार्ड खेलती हैं उनके सफाए की उम्मीद भी की जा सकती है.
किसी भी मामले में राजनीति का मूल्यांकन सरकार पर आरोप मढ़ने वाले नेताओं के प्रदर्शन से किया जाएगा. राजनीति में लंबे दौर से लोक लुभावन नारे लगाना और वादों को पूरा नहीं करना एक शगल रहा है. जो अब नहीं चलेगा. भविष्य में चुनावी उतार चढ़ाव जनता को पंसद आने वाले नेताओं और पार्टियों पर निर्भर करेगा.
आपकी राय