मुसलमान क्या सोचकर वोट देता है ?
धर्म की कट्टरता में शायद मुसलमान ये भूल जाता है कि उसका ही इस्तेमाल हर बार किया जाता है. क्या कोई मुसलमान ये पूछता है कि उसे विकास के तौर पर इन नेताओं ने क्या दिया?
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दंगे के दाग आखिर इस देश की चादर पर कौन लगाता है? नेता, जनता या फिर इस देश की कमजोर व्यवस्था ? क्या उत्तर प्रदेश से इस प्रश्न का उत्तर कोई दे पाएगा? चुनाव का माहौल गरमा-गरम है तो इस बीच क्यों न इस बात पर भी जोर दिया जाए कि देश में फैल रही नफरत से होने वाले दंगों के पीछे का कारण क्या है और जनता (वोटर) इसको कैसे लेती है.
चुनाव पूर्व सर्वे पर भरोसा करें तो पंजाब में इस बार कांग्रेस की सरकार बनने की संभावना सबसे ज्यादा है. यह वही सूबा है, जहां के बहसंख्यक सिख समुदाय को 1984 में ढूंढ ढूंढ कर कत्ल किया गया. इंदिरा गांधी की हत्या से नाराज कांग्रेस नेताओं ने उस दंगे को भड़काने के लिए आग में घी की तरह काम किया. इस हिंसा को लेकर राजीव गांधी ने तो यहां तक कह दिया था कि जब बड़ा पेड़ गिरता है तो जमीन हिलती है. लेकिन, सिख सब भूलकर कांग्रेस को फिर से वोट दे रहे हैं.
इसी तरह 2013 में समाजवादी पार्टी की सरकार के कार्यकाल में मुजफ्फरनगर में भीषण दंगा हुआ. कई मुस्लिम मारे गए और बड़ी संख्या में बेघर हो गए. लेकिन यहां भी कराए गए कई सर्वे में यही बात सामने आई कि मुसलमान समाजवादी पार्टी को वोट दे रहे हैं. तो क्या यूपी के मुसलमान दंगे के दौरान अखिलेश सरकार द्वारा ठीकठाक इंतजाम न करा पाने और सुरक्षा मुहैया न कराने के दर्द को भूल गए हैं. वे क्या सोचकर समाजवादी पार्टी को वोट दे रहे हैं ? बीजेपी अब भी उनकी दुश्मन नंबर वन क्यों है?
2002 में हुए गुजरात दंगों को लेकर अक्सर मुसलमान प्रधानमंत्री मोदी पर उंगली उठाते हैं. फिर बहस में अक्सर अपशब्दों का प्रयोग भी करते हैं. और कहीं न कहीं गुजरात को लेकर या फिर वहां रह रहे मुसलमान ये तय भी कर चुके होंगे कि मोदी को वोट नहीं देंगे, वो मानते है कि दंगों के समय मुख्यमंत्री मोदी तमाशा देख रहे थे. तो पंजाब में रहने वाले सिख वोटरों और यूपी के मुसलमानों के लिए दोषी कौन होना चाहिए ?
विचार करने वाली बात ये है कि जितना शोर 2002 के दंगों पर मचाया जाता है उतना शोर मुज़फ्फरनगर दंगों पर क्यों नहीं मचाया जाता? आखिर वहां कोई सरकार कोई नेता दोषी क्यों नहीं है? इन दंगों में भी मुसलमान हिन्दुओं की तुलना में ज़्यादा मारे गए. तो क्या इस देश का मुसलमान केवल मोदी विरोधी हैं?
यही हाल कश्मीर का भी है शायद इसीलिए वहां 4 साल का बच्चा भी मोदी विरोधी है. जिसे स्कूल जाना चाहिए वो पत्थर फेंक रहा है. पिछले साल कश्मीर से दादाजी के विद्यार्थी आए जो मुस्लमान हैं और अक्सर हमारे यहां आते रहते हैं, उन दिनों जेएनयू का ‘सो कॉल्ड’ अफज़ल गुरु वाला नारा मशहूर था, वो कहने लगे ‘बेचारा’ अफज़ल, पिताजी उन पर जमकर बरस पड़े कहा देश का गद्दार तुम्हारे लिए बेचारा कैसे हो गया? उन्होंने पलटकर कुछ नहीं कहा. अब सोचिए जो बरसा वो तो अपने ही देश में शरणार्थी की तरह रह रहा है और जो ‘बेचारा’ कह रहा है वो कौन है? आतंकवादियों को शय देना भी एक प्रकार का आतंकवाद ही है.
धर्म की कट्टरता में शायद मुसलमान ये भूल जाता है कि उसका ही इस्तेमाल हर बार किया जाता है. कश्मीरी पंडितों का पलायन हुआ, उन्हें घर से खदेड़ा गया उनके लिए बेशक किसी सरकार ने कुछ नहीं किया, पर उनका कोई सरकार इस्तेमाल नहीं कर पाई क्योंकि धार्मिक कट्टरता से ज़्यादा उनके अन्दर देश के प्रति प्रेम है. शायद नेताओं का रोज़ा मनाना इफ्तार पार्टी करना मुसलमान को भाता है, नमाज़ आती हो या ना आती हो पर नमाज़ के पोज़ में फोटो खींचवाने वाला नेता मुसलमानों में पोपुलर हो जाता है.
क्या कोई मुसलमान ये पूछता है कि उसे विकास के तौर पर इन नेताओं ने क्या दिया? लैपटॉप और मोबाइल जैसी चीजें क्यों देश के किसी राज्य का भविष्य तय करती है? धर्म की थाली में अपने नकली विचारों के व्यंजन को नेता इसीलिए परोसते हैं क्योंकि हम उन्हें मौका देते हैं क्योंकि हम अलग कानून अलग धर्म और अलग विचार लेकर चलना चाहते हैं. मुसलमानों को धर्म के आलावा अपने विकास की ओर भी ध्यान देना चाहिए. अगर नेता के चुप्पी गुजरात दंगों में गलत थी तो फिर मुज्ज़फरनगर के दंगों में भी या कहा जा सकता है कि नेता की चुप्पी थी.
हर बात पर कहते है कि तेरा धर्म क्या है? ये बात राजनीति में तब खत्म होगी जब धर्म की कट्टरता लोगों के अन्दर से खत्म होगी वरना इस देश को आगे बढ़ाना मुश्किल होगा. अगर मुसलमानों के हिसाब से कोर्ट का निर्णय अफज़ल गुरु के समय गलत है तो फिर अब्दुल करीम टुंडा के समय सही कैसे हो जाता है? अगर प्रधानमंत्री मोदी गुजरात दंगों को लेकर गलत हैं तो फिर मुज्ज़फरनगर दंगों के लिए यूपी की समाजवादी पार्टी की सरकार मुसलमानों के लिए निर्दोष कैसे है ?
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