सपा से गठबंधन की आस लगाए बैठी आरएलडी का यूपी में कितना प्रभाव है?
चौधरी चरण सिंह से अजीत सिंह को पूरे उत्तर भारत के किसानों की एक बड़ी राजनीतिक विरासत मिली थी. लेकिन, अजीत सिंह उस विरासत को संभालने में कामयाब नहीं हो सके और आरएलडी का प्रभाव पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक ही सीमित हो गया.
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चौधरी अजीत सिंह (Ajeet Singh) के निधन के बाद अब राष्ट्रीय लोक दल यानी आरएलडी की कमान जयंत चौधरी (Jayant Chaudhary) के हाथ में आ गई है. यूपी विधानसभा चुनाव 2022 (UP assembly elections 2022) के लिए आरएलडी (RLD) और सपा (SP) के बीच गठबंधन फिलहाल तय माना जा रहा है. पंचायत चुनावों में दोनों ही दलों ने हाथ मिलाया हुआ था. 2019 के लोकसभा चुनाव में भी आरएलडी ने सपा-बसपा के साथ गठबंधन किया था. वहीं, आरएलडी के हाथों में इस बार किसान आंदोलन नाम का एक बेहतरीन मोहरा है और इसके सहारे पश्चिमी उत्तर प्रदेश (West UP) में अपने दबदबे का दावा करने वाली आरएलडी पूरा जोर लगाकर विधानसभा चुनाव में खुद को स्थापित करने की कोशिश करेगी. हालांकि, आरएलडी की सियासी ताकत सपा के साथ गठबंधन में मिली सीटों से ही तय होनी है. इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि सपा से गठबंधन की आस लगाए बैठी आरएलडी का उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में कितना प्रभाव है?
समय के साथ खो गई राजनीतिक विरासत
अजीत सिंह के पिता और पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह (Chaudhary Charan Singh) को किसानों का सबसे बड़ा नेता माना जाता था. चौधरी चरण सिंह से अजीत सिंह को पूरे उत्तर भारत के किसानों की एक बड़ी राजनीतिक विरासत मिली थी. लेकिन, अजीत सिंह उस विरासत को संभालने में कामयाब नहीं हो सके और आरएलडी का प्रभाव पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक ही सीमित हो गया. 2017 के विधानसभा चुनाव में आरएलडी को एक सीट पर जीत हासिल हुई थी. लेकिन, विधायक को पार्टीविरोधी गतिविधियों के चलते बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. फिलहाल आरएलडी के पास राजस्थान में एक विधायक है. 2014 के लोकसभा चुनाव में चौधरी अजीत सिंह और उनके पुत्र जयंत चौधरी की हार के साथ शुरू हुआ आरएलडी का पराभव अभी भी जारी है. यूपी पंचायत चुनाव में 60 सदस्यों की जीत का दावा करने वाली आरएलडी केवल एक जिले बागपत में ही जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव जीत सकी है.
सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव पहले ही साफ कर चुके हैं कि वो छोटे सियासी दलों के साथ ही गठबंधन करेंगे.
किसान आंदोलन से मिली ताकत
किसान आंदोलन की वजह से पश्चिमी यूपी की जाट बेल्ट में आरएलडी का प्रभाव बढ़ा है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट वोटरों को फिर से साधने के लिए जयंत चौधरी लगातार मेहनत कर रहे हैं. अगर ये कहा जाए कि किसान आंदोलन की राजनीतिक ताकत को पहचानते हुए अजीत सिंह ने उसे समर्थन देने का जो दांव चला था. वो काफी हद तक कामयाब होता दिखा है. किसान आंदोलन के दौरान अजित सिंह ने पश्चिमी यूपी के गांव-गांव में सभाएं कीं. इन सभाओं में जयंत चौधरी उनके साथ साये की भूमिका में रहे. अजीत सिंह के बाद जयंत चौधरी भी किसानों के बीच पैठ बढ़ाने में लगे हैं. अगर जयंत चौधरी किसान नेता राकेश टिकैत को अपने साथ जोड़ने में कामयाब हो जाते हैं, तो पश्चिमी यूपी की सियासत में बड़ा उलटफेर हो सकता है. वैसे, जाट राजनीति की इस विरासत को जयंत चौधरी कितना संभाल पाते हैं, सबकी नजरें इसी पर होंगी.
गठबंधन के सहारे ही पार होगी चुनावी वैतरणी
सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) पहले ही साफ कर चुके हैं कि वो छोटे सियासी दलों के साथ ही गठबंधन करेंगे. एक बात तो तय ही मानी जा सकती है कि अखिलेश यादव की नजर में आरएलडी एक छोटा सियासी दल है, तो सीटों की संख्या को लेकर बात बन भी सकती है और नहीं भी. फिलहाल जैसी राजनीतिक स्थितियां नजर आ रही हैं, वो कहीं से भी अखिलेश यादव से करीबियों को लेकर चर्चा में रहने वाले जयंत चौधरी के पक्ष में जाती नहीं दिख रही हैं. वहीं, कांग्रेस की डूबती नाव में सवार होने का रिस्क जयंत नहीं लेना चाहेंगे. कांग्रेस के साथ गठबंधन से अच्छा है कि वह अकेले ही चुनाव लड़ लें. आरएलडी अगर अकेले विधानसभा चुनाव लड़ने का फैसला करती है, तो उसे जाटलैंड में फायदा होने की संभावना है. अजीत चौधरी के निधन के बाद जाटलैंड में आरएलडी के लिए भावुकता बढ़ी हुई नजर आती है. जयंत चौधरी को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सहानुभूति मिलना निश्चित है. अमर उजाला को दिये साक्षात्कार में जयंत चौधरी ने कहा कि पिता अजीत सिंह के साथ काम कर चुके लोगों को साथ आने की अपील की है. हालांकि, जयंत इस सहानुभूति को कितना बटोर पाते हैं, ये देखने वाली बात होगी.
अजीत सिंह की पाला बदल राजनीति ने पहुंचाया नुकसान
दिवंगत अजीत सिंह हमेशा से ही सत्ता के साथ रहे. फिर वह केंद्र में कांग्रेस हो या भाजपा और राज्य में सपा हो या बसपा. तमाम राजनीतिक दलों को उनके जाट वोटबैंक की कदर पता थी. 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगों से पहले तक जाट और मुस्लिम वोटों के सहारे अजीत सिंह का एक ठोस सियासी आधार हुआ करता था. 2009 के लोकसभा चुनाव में अजीत सिंह ने भाजपा के साथ गठबंधन कर इसी क्षेत्र से पांच सीटों पर जीत हासिल की थी. लेकिन, मुजफ्फरनगर दंगों और भाजपा के उदय ने आरएलडी के लिए सारे समीकरण बिगाड़ दिए. जाट समाज में अजीत चौधरी का सम्मान तो बना रहा, लेकिन वोट के नाम पर उन्हें जाटों का साथ नहीं मिला. यही वजह रही कि 2014 में वो अपने गढ़ बागपत से हारे और 2019 में जयंत चौधरी को भी हार का मुंह देखना पड़ा.
कहना गलत नहीं होगा कि आरएलडी में जयंत चौधरी की नई सियासी पारी का पूरा दारोमदार किसान आंदोलन पर टिका हुआ है. अजीत सिंह के प्रति जाटलैंड में जो स्नेह पहले था, अगर वह जयंत चौधरी को मिल जाता है, तो पश्चिमी यूपी की सियासत में एक बड़ा उलटफेर हो सकता है. खैर, आरएलडी के लिए काफी कुछ इस बात पर भी निर्भर करेगा कि यूपी विधानसभा चुनाव 2022 से पहले क्या राजनीतिक परिस्थितियां बनती हैं. जयंत चौधरी पश्चिमी यूपी में काफी एक्टिव हैं. हो सकता है कि वह कुछ जाट बहुल सीटों पर कमाल कर जाएं. लेकिन, उनकी सियासी ताकत पश्चिमी यूपी तक ही सीमित है.
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