लालू जिसे भूल कह रहे हैं, नीतीश उसे ऐतिहासिक भूल सुधार बताना चाहते हैं
महागठबंधन कैसे चल रहा है किसी से छिपा नहीं है. नीतीश को मुख्यमंत्री बीजेपी ने ही बनाया - और इस बार लालू को साथ मिलाकर नीतीश सीएम बन पाये. ये समझना जरूरी है.
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राष्ट्रपति चुनाव में नीतीश कुमार के फैसले को लेकर लालू प्रसाद तब तक खामोश रहे जब तक मीरा कुमार का नाम सामने नहीं आ गया. मीरा कुमार को विपक्ष का उम्मीदवार घोषित किये जाने के बाद लालू ने नीतीश के निर्णय पर हैरानी जतायी और कहा कि 'ये उनकी ऐतिहासिक भूल है'.
नीतीश के इस कदम को लेकर लालू का जो भी नजरिया हो, नीतीश कुमार समझाना चाहते हैं कि ये भूल नहीं, बल्कि ऐतिहासिक भूल सुधार है. राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में नीतीश के हिसाब से इसके वाजिब कारण भी देखने को मिलते हैं.
नीतीश को कितना फायदा
मोदी सरकार के नोटबंदी के फैसले का सपोर्ट कर चुके नीतीश को लेकर ये तो कोई नहीं समझ रहा है कि वो फिलहाल एनडीए में जा ही रहे हैं. वैसे तो लालू को भी नहीं लगता नीतीश ऐसा वास्तव में करने वाले हैं. महागठबंधन पर फिलहाल कोई फर्क नहीं पड़नेवाला ये लालू भी समझ रहे हैं और नीतीश ने भी ऐसा कोई साफ संकेत नहीं दिया है.
आज तक से बातचीत में लालू कहते हैं, "वो केवल एनडीए के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार का समर्थन कर रहे हैं. इसमें ज्यादा कुछ पढ़ना नहीं चाहिए, सोचना नहीं चाहिए."
नीतीश कु्मार को लेकर बीजेपी की ओर से वेंकैया नायडू का बयान भी इसी बात को तस्दीक करता है - 'नीतीश कुमार का समर्थन केवल राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के लिए है.'
अब मान भी जाओ...
विपक्ष की ओर से सोनिया ने मीरा कुमार का नाम पहले घोषित कर दिया होता तो बात और होती. संभव है नीतीश के लिए उनके खिलाफ जाना मुश्किल होता. जिस तरह उन्होंने बिहार के राज्यपाल की उम्मीदवारी को गर्व बताया, बिहार की बेटी के लिए भी वो ऐसी बात कह सकते थे. लेकिन ऐसा नहीं हो पाया.
कोविंद के पक्ष में नीतीश के खड़े होने की एक महत्वपूर्ण वजह उनका महादलित होना भी माना जा रहा है. पिछले एक दशक से नीतीश महादलित की राजनीति करते आ रहे हैं. बिहार में लालू के मुकाबले ना के बराबर जातीय जनाधार होने के बावजूद इसी के बूते नीतीश फील्ड में भी टिक पाते हैं.
जीतनराम मांझी को अपनी कुर्सी सौंपने के पीछे भी नीतीश की यही सोच रही. मांझी की महत्वाकांक्षाओं के चलते उन्हें हटाने और दोबारा कुर्सी पर काबिज होने के लिए नीतीश को खूब सियासी पापड़ भी बेलने पड़े. मांझी ने नीतीश की इस हरकत को दलितों का अपमान करार दिया था. हालांकि, चुनाव में मांझी को कोई सपोर्ट नहीं मिला, फिर भी नीतीश के मन में इस बात का मलाल जरूर रहा होगा. कोविंद का समर्थन कर नीतीश एक बार फिर महादलितों का हमदर्द बनने की कोशिश कर रहे हैं. 2019 में प्रधानमंत्री पद न सही, जेडीयू के लिए सीटें तो अहम होंगी ही.
नीतीश को फर्क कितना पड़ा
नीतीश किसके साथ ज्यादा सहज महसूस करते होंगे? एनडीए या महागठबंधन? महागठबंधन कैसे चल रहा है किसी से छिपा नहीं है. नीतीश को मुख्यमंत्री बीजेपी ने ही बनाया - और इस बार लालू को साथ मिलाकर नीतीश सीएम बन पाये. ये समझना जरूरी है.
आरजेडी नेता अक्सर जताते रहे हैं कि नीतीश कुमार, लालू प्रसाद की कृपा पर मुख्यमंत्री बने हुए हैं. यहां तक कि शहाबुद्दीन जैसे लोग भी ऐसे बयान दिया करते हैं. सबसे ज्यादा ये बात वे चापलूस नेता कहते हैं जो तेजस्वी की ताजपोशी की सलाह देने के साथ साथ मुहिम भी चलाते रहते हैं.
लेकिन लालू को भी पता है कि वो ऐसा नहीं कर सकते. ऐसा भी नहीं कि वो कभी ऐसा सोचते नहीं. यूपी चुनाव के बाद जो खबरें आई थीं उनसे तो यही मालूम होता है कि बड़े गेम प्लान तैयार थे.
असल बात ये है कि नीतीश इस बात को अच्छी तरह समझते हैं. नीतीश जानते हैं कि अभी लालू चाहकर भी उनका बाल भी बांका नहीं कर सकते. लालू का पूरा परिवार फिलहाल जांच एजेंसियों के रडार पर है. जैसे जैसे खबरें आ रही हैं पता चलता है धीरे धीरे उनका शिकंजा भी कसता जा रहा है.
पटना के सियासी गलियारों में महसूस किया जा रहा है कि नीतीश ने बड़ी मेहनत से आरजेडी नेताओं के हमलावर तेवर और लालू के दबदबे से थोड़ी बहुत निजात जरूर पायी है.
नीतीश ने 2014 से पहले मोदी के विरोध में एनडीए छोड़ने के साथ ही सारे सियासी संबंध खत्म कर लिये थे. कुछ तो डीएनए सैंपल भेज कर और फिर बीजेपी को बिहार चुनाव में शिकस्त देकर नीतीश ने ताबूत में आखिरी कील भी ठोक दी थी. लालू से दो दशक पुरानी दुश्मनी को किनारे कर हाथ मिलाने के बावजूद नीतीश के लिए महागठबंधन कभी 'बेर-केर के संग' से बेहतर नहीं रहा.
जब नीतीश ने नोटबंदी का समर्थन किया तो बीजेपी की ओर से भी उनकी शराबबंदी की तारीफ की गयी. कुछ दिन बाद, पटना में प्रधानमंत्री मोदी और नीतीश के हाव-भाव बदले हुए देखे गये. उसके बाद और भी बेहतर होते गये.
सोनिया गांधी के भोज को छोड़कर अगले ही दिन प्रधानमंत्री के लंच में नीतीश का शामिल होना महज राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी तक ही सीमित नहीं माना जा सकता.
कांग्रेस को अहसान चुकाने की नीतीश ने कम कोशिश नहीं की है. लालू पर दबाव बनाकर नीतीश महागठबंधन का नेता बनवाने के बदले में नीतीश ने चुनाव में न सिर्फ सीटें दिलवाईं, बल्कि असम से लेकर यूपी तक उसकी जीत के लिए तमाम प्रयास किये. लेकिन जब बात 2019 के लिए प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवारी की आती है तो कांग्रेस राहुल गांधी के मोह से उबर ही नहीं पाती. नीतीश को भी लगता है कि उनके नाम पर भले ही पूरा विपक्ष राजी हो जाये, लेकिन कांग्रेस तो मानेगी नहीं. फिर क्या फायदा? ऐसे में टीम मोदी से रिश्ते को मजबूत बनाकर नीतीश कांग्रेस को भी मैसेज देना चाहते हैं कि वो कभी उन्हें हल्के में लेने की सोचे भी ना.
नीतीश एक तीर से कई निशाने साध रहे हैं. अगर कांग्रेस भी लालू की तरह मानती है कि एनडीए उम्मीदवार को सपोर्ट कर नीतीश ऐतिहासिक भूल कर रहे हैं तो वो जता देना चाहते हैं कि ये कोई भूल नहीं, ऐतिहासिक भूल सुधार है.
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