क्या होगा अगर लालू-नीतीश की जोड़ी हार गई?
इंडिया टुडे और CICERO के एग्जिट पोल के नतीजे के मुताबिक, बिहार के दोनों बड़े गठबंधनों के बीच कांटे की टक्कर देखने को मिल रही है. NDA को 120 सीटें, जबकि महागठबंधन को 117 सीटें मिलने का अनुमान है. अन्य के खाते में 6 सीटें जाती दिख रही हैं.
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लोक सभा चुनाव में जब बीएसपी का खाता नहीं खुला. फटाफट मायावती ने खुद राज्य सभा का एक टिकट लिया और राजधानी एक्सप्रेस पकड़ ली. दिल्ली में उन्हें डबल बेनिफिट दिखा. पहला, सड़क पर लड़ाई लड़ने की जरूरत नहीं पड़ेगी - और दोबारा स्टेट गेस्ट हाउस कांड जैसे खतरों से भी बचा जा सकेगा. रणनीति बनाने के नाम पर पांच साल का लंबा वक्त और संसद से निकल कर साउंडबाइट - वो भी तभी जब मामला दलितों से जुड़ा हो... और देखिए पांच में से तीन साल कैसे बीत गए, पता भी न चला.
क्या करेंगे नीतीश
नीतीश कुमार चाहें तो मायावती से प्रेरणा ले सकते हैं. उनके बाकी साथी तो पहले से ही राज्य सभा में हैं. कुछ साथियों का कॅरियर तो टीवी बाइट के सहारे बरसों से चलायमान है. नीतीश वहां भी तो उनसे आगे ही रहेंगे, उन्हें चाणक्य यूं तो बुलाया नहीं जाता. ऊपर से फेसबुक ट्विटर तो है ना.
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अब नीतीश बिलकुल मायावती की तरह तो हैं नहीं. हर किसी का शौक भी एक जैसा तो होता नहीं. नीतीश को तो पढ़ने लिखने का भी शौक है. अगर एक बार भी संस्मरण लिखने को सोचें तो दस प्रकाशक दौड़ पड़ेंगे. बिहार की बजाए अगर 'वाजपेयी-एरा' पर लिखें तो फिर पूछना ही क्या. किताब आने से पहले हजारों प्री बुकिंग तो पलक झपकते हो जाएगी. अब किताब आते आते कोई बैन लगा दे तो उस पर किसी लेखक का वश होता है क्या?
क्या करेंगे लालू
चाहें तो दिल्ली-पटना एक कर सकते हैं. दोनों सरकारों पर धावा बोलने का पूरा मौका होगा. एक ही बयान का टू-इन-वन इफेक्ट होगा. पहले से ही कह रहे हैं भालू से फुंकवा कर भगा देंगे. चाहें तो कथनी को करनी में भी तब्दील कर सकते हैं. फैसला उन्हें करना है.
चारा घोटाले में लालू को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिली हुई है. चाहे तो इत्मीनान से मुकदमे की पैरवी कर भी सकते हैं. वैसे वकीलों को हायर कर लें जिनकी मदद सलमान खान तक लेते हैं, फिर तो कहना ही क्या? रास्ता दिखाने के लिए जयललिता का केस है ही. अगर किस्मत की बदौलत जयललिता बार बार मुख्यमंत्री बन सकती हैं तो लालू किसी से कम हैं क्या? बस किसी नसीबवाले का साथ साधना होगा. फिर क्या? सारे जहां से अच्छा... है कि नहीं?
पटना नहीं भी रहे तो बाल बच्चे तो हैं ही. बड़े भी हो गए हैं. आखिर 'गली के गुंडे' और 'पागल हो जाएंगे' जैसे बयान भला बच्चे देते हैं क्या? अब किस्मत इतनी भी तो खराब नहीं ही हो सकती कि दोनों में से कोई भी विधानसभा न पहुंच पाए.
एक सदन के भीतर तो दूसरा सड़क पर जी भर कर क्रिकेट खेलेगा. वैसे भी राजनीति के मैदान में 22 गज की कोई लिमिट तो होती नहीं.
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