जब राहुल गांधी के लिए राजनीति 'एडवेंचर' है, तो कांग्रेस की नाव डूबेगी ही!
राहुल गांधी के लिए 'बॉर्न टू रूल' वाला जो माहौल कांग्रेस पार्टी और गांधी परिवार ने बनाया है. यही उन्हें हमेशा से ही आगे बढ़ने से रोकता रहा है. साल 2004 में कांग्रेस के 'युवराज' पहली बार अमेठी से सांसद चुने गए. राहुल गांधी के कांग्रेस में आने के साथ ही पार्टी के कुछ खास नेताओं ने 'दरबारी' होने का कर्तव्य निभाते हुए अपनी चापलूसियों से उनके 'नवरत्नों' में जगह बना ली.
-
Total Shares
इंसान अपनी पूरी जिंदगी में कुछ न कुछ सीखता ही रहता है. कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी भी इसी 'लर्निंग प्रोसेस' पर चल रहे हैं. वह 2004 से लगातार सीखने और समझने की कोशिश कर रहे हैं कि राजनीति क्या है. हाल ही में राहुल गांधी की मछुआरों के साथ समुद्र में कूदने वाली तस्वीरें सोशल मीडिया पर काफी सुर्खियां बटोर रही थीं. इसके साथ ही उनका उत्तर भारतीय मतदाताओं की तुलना दक्षिण भारत के 'प्रबुद्ध मतदाताओं' से करने वाला बयान भी काफी चर्चा में रहा. ये तो अच्छा है कि राहुल गांधी के नाम के आगे 'गांधी' जुड़ा है. वरना इतनी 'नादानियां' अगर कोई और नेता करता, तो उसे अब तक राजनीति से जबरन संन्यास दिला दिया गया होता. राहुल गांधी के लिए राजनीति 'एडवेंचर' भर है. मेरा अपना आंकलन है कि राहुल गांधी कभी भी राजनीति को लेकर गंभीर नहीं रहे हैं. अगर वो होते भी हैं, तो उनकी 'नादानियां' उन्हें गंभीर नहीं रहने देती हैं.
कैसे माना जाए कि राहुल राजनीति के प्रति गंभीर हैं?
बीते दिसंबर में किसान आंदोलन देशभर में एक ज्वलंत मुद्दा बन गया था. तमाम राजनीतिक दलों ने इसे अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, लेकिन अपना समर्थन दे रखा था. कांग्रेस भी उनमें से एक थी. उस दौरान राहुल गांधी तकरीबन रोज ही कृषि कानूनों के खिलाफ और किसानों के समर्थन में ट्वीट कर रहे थे. 27 दिसंबर को उन्होंने किसानों को दिल्ली की सीमाओं पर डटे रहने के लिए एक 'प्रेरक ट्वीट' किया और इटली की यात्रा पर निकल गए.
वीर तुम बढ़े चलोधीर तुम बढ़े चलोवॉटर गन की बौछार होया गीदड़ भभकी हज़ार होतुम निडर डरो नहीं तुम निडर डटो वहींवीर तुम बढ़े चलोअन्नदाता तुम बढ़े चलो! pic.twitter.com/MqsuS9QxEj
— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) December 27, 2020
अगले दिन यानी 28 दिसंबर को कांग्रेस की स्थापना के 135 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में आयोजित हुए कार्यक्रम को भी उन्होंने नजरअंदाज कर दिया. कांग्रेस का एक ऐसा बड़ा नेता जिसे अध्यक्ष बनाने के लिए तमाम कोशिशें की जा रही हैं, वह किसान आंदोलन छोड़िए, अपनी ही पार्टी के सबसे बड़े कार्यक्रम में शामिल होने को लेकर गंभीर नहीं था.
राहुल गांधी हर उस मौके पर देश में नहीं रहे हैं, जब कांग्रेस को उनकी जरूरत रही है. 2015 से 2019 के बीच में राहुल गांधी ने 247 विदेश यात्राएं की हैं. लोकसभा में गृहमंत्री अमित शाह ने इसकी जानकारी दी थी. इन आंकड़ों के बाद भी कांग्रेसी नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उनकी विदेश यात्राओं के लिए कोसते रहते हैं. राहुल गांधी की विदेश यात्राओं से किसी को गिला-शिकवा नहीं है. इस पर सवाल केवल इतना है कि वे ऐसे महत्वपूर्ण मौकों पर राजनीति से ज्यादा खुद को तवज्जो देते दिखेंगे, तो उन्हें गंभीर कौन मानेगा.
'बॉर्न टू रूल' का माहौल
राहुल गांधी के लिए 'बॉर्न टू रूल' वाला जो माहौल कांग्रेस पार्टी और गांधी परिवार ने बनाया है. यही उन्हें हमेशा से ही आगे बढ़ने से रोकता रहा है. साल 2004 में कांग्रेस के 'युवराज' पहली बार अमेठी से सांसद चुने गए. राहुल गांधी के कांग्रेस में आने के साथ ही पार्टी के कुछ खास नेताओं ने 'दरबारी' होने का कर्तव्य निभाते हुए अपनी चापलूसियों से उनके 'नवरत्नों' में जगह बना ली. यहां तक तो तब भी ठीक था, कुछ वर्षों बाद इन्ही नवरत्नों ने राहुल गांधी को केवल कांग्रेस ही नहीं बल्कि देश की भी 'जरूरत' घोषित कर दिया. इसी जरूरत को अमली जामा पहनाने के लिए 2014 में वह कांग्रेस की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार बनाए गए. माना जा रहा था कि कांग्रेस फिर वापसी करेगी और राहुल गांधी की ताजपोशी की जाएगी. खैर, परिणाम इसके उलट आए.
राहुल गांधी ने कांग्रेस में 'पैराशूट' के सहारे एंट्री की, तो उन्हें जमीनी राजनीति का ज्ञान ना के बराबर ही रहा. मोहनदास करमचंद गांधी ने भी महात्मा गांधी बनने की अपनी यात्रा भारत को जमीनी स्तर पर समझने के बाद शुरू की थी. राहुल गांधी के मामले में यह बात हमेशा ही नदारद रही. अमेठी से तीन बार सांसद चुने जाने के बावजूद वह राजनीति का ककहरा नहीं सीख सके. राहुल गांधी को कई मौके मिले, लेकिन वो लगातार इन्हें गंवाते ही रहे हैं. कांग्रेस में परिवारवाद की वजह से देश की जनता में उनकी एक पूर्वाग्रह से भरी छवि बनी थी, जिसे वह अब तक तोड़ने में कामयाब नहीं हो सके हैं. राहुल गांधी लोगों की नजरों में कभी भी जमीन से जुड़े नेता नहीं बन सके.
राहुल गांधी कांग्रेस के एक ऐसे नेता के रूप में स्थापित हो चुके हैं, जो 'सेल्फ गोल' कर अपनी ही टीम को हराता है.
राहुल गांधी कांग्रेस के एक ऐसे नेता के रूप में स्थापित हो चुके हैं, जो 'सेल्फ गोल' कर अपनी ही टीम को हराता है. 2014 के बाद से ऐसे अनगिनत मौके आए हैं, जब राहुल गांधी ने कांग्रेस के लिए आक्रामक 'बैटिंग' करने के लिए बल्ला संभाला, लेकिन 'हिट विकेट' आउट हो गए. उनके बयानों की बात करेंगे, तो लिस्ट कभी खत्म ही नहीं होगी. इसे एक लाइन में ऐसे समझ लेते हैं, 'भाजपा के नेता खुद चाहते हैं कि चुनावी राज्यों में राहुल गांधी प्रचार करने आएं. ताकि उनके कहे शब्दों को भाजपा अपने हिसाब से घुमाकर कांग्रेस पर बढ़त बना सके.' राहुल गांधी अभी तक भारत को जमीनी स्तर पर समझने की अपनी यात्रा पूरी नहीं कर सके हैं. एक नेता के तौर पर उनका 'आचरण' काफी 'बचकाना' लगता है. खुद को जनता से जुड़ा हुआ दिखाने के चक्कर में राहुल गांधी कई बार अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार चुके हैं.
Abs of a boxer ????????Most daring young fit & people’s leader Way to go @RahulGandhi ji pic.twitter.com/E5QVSpTnBZ
— Vijender Singh (@boxervijender) February 26, 2021
आज कुछ तूफानी करते हैं!
राहुल गांधी का 'आज कुछ तूफानी करते हैं' वाला व्यवहार कांग्रेस के खुद उनके लिए भी हानिकारक ही साबित होता है. उस पर कांग्रेस के 'दरबारी' नेता 'राहुल गांधी के ऐब्स भी हैं' कहकर उन्हें 'फिट' साबित करने में जुट जाते हैं. राहुल गांधी ने 'सत्ता को जहर' बताया था, लेकिन वह 'नीलकंठ' बनना चाहते हैं कि नहीं, इस पर उनका 'एडवेंचरस' स्वभाव सवालिया निशान लगा देता है. खैर, राहुल गांधी को समझना होगा कि उनके पास अब राजनीति सीखने के लिए बहुत ज्यादा समय नहीं बचा है. साथ ही कांग्रेस को भी यह सोचना होगा कि राहुल गांधी की ताजपोशी के लिए सबसे पुरानी पार्टी अपनी साख को कब तक ताक पर रखती रहेगी.
आपकी राय