जब सुप्रीम कोर्ट को ही तलाक-ए-हसन अनुचित न लगे, तो मुस्लिम महिलाएं क्या ही करेंगी?
सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) का कहना है कि इस्लाम में शरीयत के तहत दिए जाने वाले 'तलाक-ए-हसन' (Talaq-E-Hasan) की प्रथा प्रथम दृष्टया अनुचित नहीं है. ये चौंकाने वाली टिप्पणी है. क्योंकि, इसी सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक (Triple Talaq) को असंवैधानिक करार दिया था.
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आजादी के अमृत महोत्सव के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से महिलाओं के प्रति लोगों के व्यवहार का मुद्दा उठाया था. इस दौरान पीएम नरेंद्र मोदी ने महिला सम्मान को देश के विकास के लिए महत्वपूर्ण स्तंभ बताते हुए लोगों को अच्छे व्यवहार का संकल्प भी दिलाया था. लेकिन, दूसरे ही दिन सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) का कहना है कि इस्लाम में शरीयत के तहत दिए जाने वाले 'तलाक-ए-हसन' (Talaq-E-Hasan) की प्रथा प्रथम दृष्टया अनुचित नहीं है.
जस्टिस संजय किशन कौल ने मामले की सुनवाई के दौरान मौखिक टिप्पणी करते हुए कहा है कि 'प्रथम दृष्टया तलाक-ए-हसन इतना भी अनुचित नहीं है. महिलाओं के पास भी एक विकल्प है. 'खुला तलाक' के जरिये तलाक लिया जा सकता है. प्रथम दृष्टया मैं याचिकाकर्ताओं से सहमत नहीं हूं. मैं नहीं चाहता हूं कि यह किसी अन्य कारण से एजेंडा बने.' वैसे, सुप्रीम कोर्ट की ये टिप्पणी चौंकाने वाली है. क्योंकि, सुप्रीम कोर्ट ने ही तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित किया था. खैर, इस टिप्पणी के बाद कहना गलत नहीं होगा कि जब सुप्रीम कोर्ट को ही तलाक-ए-हसन अनुचित न लगे, तो मुस्लिम महिलाएं क्या ही करेंगी?
देश का संविधान समानता की बात करता है, तो मुस्लिम पर्सनल लॉ के नाम पर महिलाओं पर अत्याचार क्यों किया जाता है?
तलाक-ए-हसन का मामला रह गया अनसुलझा
इस्लाम में तलाक-ए-बिद्दत यानी तीन तलाक की कुप्रथा को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक ठहराया था. 1 अगस्त, 2019 को केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने संसद से 'तीन तलाक' के खिलाफ कानून पारित कराया था. जिसके बाद इस कुप्रथा की वजह से जहन्नुम का दंश झेलने वाली मुस्लिम महिलाओं ने इस कानून की खूब सराहना की थी. लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने उस दौरान इस्लाम में शरीयत के अनुसार, तीन तलाक को ही असंवैधानिक घोषित किया था. लेकिन, तलाक-ए-हसन के बारे में कोई टिप्पणी नहीं की गई थी. क्योंकि, उस दौरान तलाक-ए-हसन को लेकर कोई याचिका सुप्रीम कोर्ट में नहीं पहुंची थी.
क्या है तलाक-ए-हसन?
जिस तरह से तीन तलाक में पुरुष की ओर से मुस्लिम महिला को एक बार में ही तीन बार तलाक कहकर निकाह खत्म कर लिया जाता है. उसी तरह तलाक-ए-हसन में कोई भी मुस्लिम मर्द तीन महीने में एक निश्चित अंतराल के बाद तीन बार तलाक बोलकर अपनी बेगम से रिश्ता तोड़ सकता है. तीन तलाक की तरह ही तलाक-ए-हसन भी केवल पुरुषों द्वारा ही दिया जाता है.
अनुचित दिखने के कारण भी बताइए?
जिस देश में हर नागरिक को संविधान द्वारा समानता से लेकर स्वतंत्र राय रखने तक का अधिकार मिलता हो. वहां एक मुस्लिम महिला केवल इसलिए तलाक-ए-हसन को मानने को मजबूर की जा सकती है. क्योंकि, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इसकी इजाजत देता है. क्या तलाक-ए-हसन में तीन तलाक की तरह ही सारे अधिकार केवल पुरुषों को ही नहीं दे दिए गए हैं? यदि कोई मुस्लिम महिला इस तलाक को अन्याय माने तो उसकी सुनवाई कहां होगी? तीन तलाक और तलाक-ए-हसन में सिर्फ अवधि का ही तो फर्क है. दोनों अवस्था में भुगतना औरत को ही है, पहले वाले तुरंत और दूसरे में तीन महीने के बाद. सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि महिलाओं के पास खुला तलाक का विकल्प है. लेकिन, यदि महिला तलाक न देना चाहे तो उसके पास क्या विकल्प है? अहम सवाल ये है कि जो देश संविधान और उसके कानून से चलता हो, वहां इस तरह के पर्सनल लॉ बोर्ड की जरूरत ही क्या है? तलाक के लिए मुस्लिम पुरुषों को अन्य पुरुषों की तरह ही कानून की शरण में जाने से क्या समस्या है?
देश में कैसे आएगी समानता?
लंबे समय से देश में ये मांग उठती रही है कि यूनिफार्म सिविल कोड लागू किया जाना चाहिए. क्योंकि, भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है, तो संविधान में यूनिफार्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता की चर्चा भी अनुच्छेद 44 में की गई है. यूनिफार्म सिविल कोड में धर्म, वर्ग, जाति, संप्रदाय, मजहब से ऊपर उठकर देश के हर नागरिक के लिए एक समान कानून होता है. वहीं, तलाक-ए-हसन के मामले को देखा जाए, तो कहना गलत नहीं होगा कि यूनिफार्म सिविल कोड की राह में इस्लाम धर्म ही सबसे ज्यादा रोड़े बिछाता है. हाल ही में कर्नाटक में कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों के इशारे पर हिजाब को इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा मानते हुए स्कूल-कॉलेजों में इसे पहनने की जिद करने जैसी घटनाएं बताती हैं कि देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड किस कदर जरूरी है?
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